‘अरे भक्त! तुझे कोई भय नहीं, तू केवल नाम ले। मैं भय का भय, भीषण का भीषण, सब क्लेशों को दूर करने वाला तथा सदा तेरी विपत्तियों का नाश करने वाला हूँ। ‘मैं तेरा’ कहकर मेरी शरण में जो आता है, उसे अभयदान करना मेरा व्रत है। आकाश टूट कर पृथ्वी पर गिर पड़े, प्रलय की अग्नि जल उठे, साथ ही कोटि व्रजपात होने लगे, भयंकर महाझंझावत से विश्व-ब्रह्माण्ड कांप उठे, सातों समुद्र उमड़ पड़ें; अरे प्रियतम! तू डर नहीं। मैं तुझे छाती से लगाकर तेरी रक्षा कर रहा हूँ–यह बात मत भूल। कलियुग में मैं नामरूप में आया हूँ। नाम ले। तेरा सब भार मैंने ले लिया है। मैं हूँ तेरा, अरे, मैं हूँ तेरा।’ (महात्मा श्रीसीतारामदास ओंकारनाथ)

मानव-सृष्टि के आरम्भ से जितनी भाषाओं का प्रादुर्भाव हुआ है, सब भाषाओं में भगवान वाचक नाम अवश्य होते हैं। पृथ्वी पर ऐसी कोई भाषा नहीं है, जिसमें भगवत्स्वरूप कोई नाम न हो। इससे स्पष्ट है कि भगवान ने सृष्टि के साथ ही मनुष्य के मन-बुद्धि व हृदय के भीतर भगवन्भावना को बनाए रखने के लिए  उसकी जिह्वा पर अपने-आप ही भगवन्नाम को प्रकट किया है। जब प्राणी पर विपत्ति आती है, दु:ख पड़ता है या अमंगल आता हुआ दिखाई देता है तो स्वत: ही मुख से ‘हे राम!’ या ‘हाय राम!’–ये रामनाम की करुण ध्वनि निकल जाती है; आत्मा अनायास ही उस मंगलकर्ता पावन मधुर नाम को पुकार उठती है। भगवान मनुष्य के चित्त को सदा आकर्षित करते हैं और वह सदा अंत:करण से भगवान को चाहता है। अत: भगवान का नाम उसकी रसना में अपने-आप स्फुरित होता है। यह भगवान की अहैतुकी कृपा का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है।

‘श्रीकृष्ण’ नाम का माधुर्य

इस ‘कृष्ण’ नाम में जो माधुर्य है, वह संसार में अन्य किसी पदार्थ में नहीं है। इन ढाई अक्षरों की ध्वनि में कितने अमृतघट समाहित हैं, इसे तो महाप्रभु चैतन्य जैसे भक्त ही जानते हैं जो श्रद्धा, विश्वास, प्रेम और भक्ति की गंगा में अवगाहन (डुबकी लगाकर) कर सतत नामजप में लीन रहते थे। मनुष्य इस संसार में जन्म लेकर विभिन्न मधुर पदार्थों–द्राक्षा, शर्करा, दुग्ध आदि का आस्वादन करता है, स्वर्ग में जाकर सुधारस व विभिन्न पुण्यों से अर्जित विषयभोगरूपी रस का भी पान करता है; परन्तु जो रस इन ढाई अक्षर ‘कृष्ण’ में है, उनका अंशमात्र भी इन सबमें नहीं है।

महाभागवत श्रीरूपगोस्वामीजी का श्रीकृष्ण नाम के सम्बन्ध में अनुभव कितना अद्भुत है–’जब कृष्ण नाम जिह्वा पर नृत्य करता है तब बहुत-सी जिह्वाएं प्राप्त करने की तृष्णा बढ़ती है, जब श्रवणेन्द्रिय (कानों) में प्रवेश करता है तो अरबों कर्ण-प्राप्ति की लालसा होती है। मन के प्रांगण में नाममाधुरी के प्रवेश करने पर शेष सब इन्द्रियां उसके वश में हो जाती हैं। न जाने, ‘कृष्ण’ इन ढाई वर्णों में कितना अमृत भरा है।’

भगवान के भक्त को भगवान जितने प्यारे लगते हैं, उनका नाम भी उसे उतना ही प्यारा लगता है; क्योंकि  तेज:स्वरूप श्रीकृष्ण ही नामरूप में प्रकट होते हैं। अत: भगवान का नाम हमारी जिह्वा पर आ गया तो स्वयं भगवान ही हमारी जिह्वा पर आ गए।

‘अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड का जो ऐश्वर्य एवं समस्त चैतन्य पदार्थ जिनका अंशमात्र हैं, ऐसे तेज:स्वरूप श्रीकृष्ण ही नामरूप में आविर्भूत होते हैं। अत: वह कृष्णनाम ही मेरा आराध्य, साध्य और जीवन है।’ इसका सर्वोत्कृष्ट उदाहरण गोपियां हैं। श्रीमद्भागवत (१०।४४।१५) में कहा गया है–’जो गोपियां गायों का दूध दुहते समय, धान आदि कूटते समय, दही बिलोते समय, आँगन लीपते समय, बालकों को झुलाते समय, रोते हुए बच्चों को लोरी देते समय, घरों में छिड़काव करते तथा झाड़ू लगाते समय प्रेमपूर्ण चित्त से, आँखों में आँसू भरे, गद्गद् वाणी से श्रीकृष्ण के गुणगान किया करती हैं, वे श्रीकृष्ण में चित्त निवेशित करने वाली गोपियां धन्य हैं।’  गोपियां उद्धवजी से कहती हैं–

स्याम हिये स्याम जिये स्याम बिनु नाहिं तिये।
आंधे की-सी लाकरी अधार स्याम नाम है।।

इस प्रकार भगवान का भक्त भगवान से केवल क्रिया द्वारा नहीं बल्कि भावात्मक रूप से जुड़ता है। ऐसे भक्त मुक्ति की भी परवाह न करके उसे दूर से ही नमस्कार करते हैं। एक ‘भक्त’ एवं ‘मुक्ति’ का वार्तालाप बड़ा ही रोचक है–भक्त पूछता है–तू कौन है? मुक्ति कहती है–मैं मुक्ति हूँ, आपकी सेवा में आई हूँ, श्रीकृष्णस्मरण के प्रभाव से आपकी दासी हो गई हूँ, आप मुझे अपनी सेवा में रख लीजिए। भक्त घबराकर कहता है–अरी! दूर खड़ी रह। मुझ निर्दोष पर क्यों प्रहार कर रही है। तुम्हारी तो गंधमात्र से मेरे नामरूपी चंदन की सुगन्ध का लोप हो जाएगा। इसका यही अर्थ है कि भगवान के प्रेमी भक्त को भगवान के एक-एक नाम के उच्चारण में ऐसा सुख मिलता है कि जिसके सामने मुक्ति का सुख भी तुच्छ हो जाता है। संत कबीर के शब्दों में–

सभी रसायन हम करी नहीं नाम सम कोय।
रंचक घट में संचरे सब तन कंचन होय।।
कबिरा माया डाकिनी खाया सब संसार।
खाइ न सके कबीर को जाके नाम अधार।।

भगवन्नाम का प्रकाश

भगवान श्रीकृष्ण के सारथि दारुक को भगवान के चरणकमलों के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त था। एक बार भगवान को न पाकर दारुक श्रीकृष्ण द्वारा धारण की गई तुलसीमाला की गंध को सूंघता हुआ उस स्थान पर पहुंचा जहां श्रीकृष्ण विराजित थे। दारुक ने देखा भगवान श्रीकृष्ण पीपल के पेड़ के नीचे आसन लगाकर बैठे हैं और असह्य तेज वाले उनके आयुध उनकी सेवा में संलग्न हैं। भगवान को देखकर दारुक उनके चरणों में गिर पड़ा और रुंधे गले से बोला–’हे प्रभो! रात्रि के समय चन्द्रमा के अस्त हो जाने पर राह चलने वाले यात्री की जैसी दशा हो जाती है, आपके चरणकमलों के दर्शन न पाकर मेरी भी वैसी ही दशा हो गई। मेरी ज्ञानदृष्टि का नाश हो गया और चारों ओर अज्ञान का अन्धकार छा गया। न तो मुझे दिशाओं का ज्ञान रहा और न मेरे मन में शान्ति रही।’

दारुक को तो भगवान के साक्षात् दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त था, पर हमें नहीं है। फिर हम क्या करें? हम किस प्रकाश का सहारा लेकर इस संसाररूपी बीहड़ जंगल की यात्रा करें। जहां पग-पग पर बाधाएं आती हैं, जीवन में निरन्तर भय और शोक का साम्राज्य बना रहता है और माया के भारी प्रलोभन फंसाने को तैयार खड़े रहते हैं।  मनुष्य की बुद्धि स्वयंप्रकाश नहीं है। वह तेज:स्वरूप परब्रह्म परमात्मा के प्रकाश से प्रकाशित होती है। हमारी यह बुद्धि जितनी शुद्ध होगी उतना ही स्वच्छ और शुद्ध प्रकाश परमात्मा से ग्रहण करेगी।

श्रुतियां कहतीं हैं कि परमात्मा अग्राह्य है अर्थात् पकड़ में नहीं आ सकता। अत: ऐसा कौन-सा उपाय है जिससे परमात्मा हमारी पकड़ में आ सके? ऋषियों ने अपने तपोबल से, भक्तों ने अपनी अगाध भक्ति से और योगियों ने समाधि द्वारा ऐसा अमोघ उपाय खोज निकाला है, जिसके द्वारा परमात्मा पकड़ में आ सकता है और वह उपाय है–’भगवन्नाम जप।’  नाम में भगवान ने अपनी समस्त शक्ति और प्रकाश रख दिया है। नाम के प्रकाश में हम निर्भय होकर इस संसार की यात्रा कर सकते हैं।

रटते जो हरिनाम हैं, नहिं पड़ते भवधार।
जो भूले हरिनाम को, डूबत हैं मझधार।।
डूबत हैं मझधार जगत् में आते-जाते।
कबहुं न पाते चैन, दु:ख भी नाना पाते।।
गावत कृष्णानन्द, संत-श्रुति संतत कहते।
रे मन! तजि अभिमान हरि-हरि क्यों नहीं रटते।।

श्रीमद्भगवद्गीता के दशम् स्कन्ध में भगवान ने स्वयं कहा है–‘यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि।’ सब यज्ञों में ‘जपयज्ञ’ मैं ही हूँ। अत: भगवन्नाम जपयज्ञ से तो साक्षात् भगवान से ही अपनी जिह्वा का स्पर्श हो रहा है। मनुष्य शरीर में असंख्य रोएं हैं। नाम लेते समय हम ऐसा अनुभव करें कि प्रत्येक रोम से भगवन्नाम की ध्वनि निकल रही है। ऐसा भाव होने पर आगे जाकर यह अनुभव होगा कि पूरा शरीर भगवन्नाममय हो रहा है।

भगवान श्रीकृष्ण के मथुरा-गमन के पश्चात् यशोदाजी खिन्न तथा अनमनी-सी रहा करतीं थीं। माता यशोदा श्रीराधाजी से कहती हैं–’इस समय मुझे भक्त्यात्मक ज्ञान का उपदेश दो।’ श्रीराधाजी ने कहा–’पांच प्रकार के ज्ञानों में भक्त्यात्मक ज्ञान सर्वोत्तम है। भक्त के संग से भक्तिरूपी वृक्ष का अंकुर बढ़ता है। आप अपने ऐश्वर्यशाली पुत्र का, जो साक्षात् परमात्मा और ईश्वर है, उनका उत्तम भक्ति के साथ भजन करो। उनके राम, नारायण, अनन्त, मुकुन्द, मधुसूदन, कृष्ण, केशव, कंसारि, हरि, वैकुण्ठ और वामन–इन ग्यारह नामों के उच्चारण करने मात्र से मनुष्य कोटि जन्मों के पापों से मुक्त हो जाता है।’

ब्रह्मवैवर्तपुराण (श्रीकृष्णजन्मखण्ड, १११।१८-२१) में श्रीराधा द्वारा की गई ‘राम’ नाम की व्याख्या इस प्रकार है–‘रा’ शब्द विश्ववाचक है और ‘म’ शब्द ईश्वरवाचक, इसलिए जो लोकों का ईश्वर है, वह ‘राम’ कहा जाता है। वह रमा के साथ रमण करता है, अतएव विद्वान उसे ‘राम’ कहते हैं। ‘रा’ लक्ष्मीवाचक है और ‘म’ ईश्वरवाचक है, इसलिए मनीषीगण लक्ष्मीपति को ‘राम’ कहते हैं।

ब्रह्मवैवर्तपुराण (श्रीकृष्णजन्मखण्ड, १११।५७-५८) में श्रीराधा द्वारा की गई ‘कृष्ण’ नाम की व्याख्या इस प्रकार है–‘कृष्ण’ ऐसा मंगल नाम है जिसकी वाणी में वर्तमान रहता है, उसके करोड़ों महापातक तुरन्त ही भस्म हो जाते हैं। भक्तों के कोटि जन्मों के पापों और क्लेशों में ‘कृषि’ का तथा उनके नाश में ‘ण’ का प्रयोग होता है, इसी कारण वे ‘कृष्ण कहे जाते हैं। ‘कृष्ण’ नाम सभी नामों से परे है। जो मनुष्य ‘कृष्ण-कृष्ण’ कहते हुए नित्य उनका स्मरण करता है; उसका उसी प्रकार नरक से उद्धार हो जाता है, जैसे कमल जल का भेदन करके ऊपर निकल आता है।

भगवन्नाम से भगवान का भक्त के वश में होना

यदि भगवान श्रीकृष्ण को पाना हो तो ‘श्रीराधा’ नाम निरन्तर जपना होगा। भगवान श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं–’चाहे जो खरीद ले मुझको, मुझे सुनाकर राधा नाम।’  एक ओर श्रीराधा ‘कृष्ण-कृष्ण’ कहती रहती हैं तो दूसरी ओर श्रीकृष्ण ‘राधे-राधे’ की रट लगाये रहते हैं।

महाभारत में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं–’द्रुपदकुमारी कृष्णा ने कौरवसभा में वस्त्र खींचे जाते समय जो मुझ द्वारकानिवासी (दूरवासी) श्रीकृष्ण को ‘गोविन्द’ कहकर पुकारा था, उसका यह ऋण मुझपर बहुत बढ़ गया है। यह हृदय से कभी दूर नहीं होता।’

–‘अर्जुन! जो मेरे नामों का गान करके मेरे निकट नाचने लगता है, उसने मुझे खरीद लिया है–यह मैं तुमसे सच्ची बात कहता हूँ।’

–‘जो मेरे नामों का गान करके मेरे समीप प्रेम से रो उठते हैं, उनका मैं खरीदा हुआ गुलाम हूँ; यह जनार्दन दूसरे किसी के हाथ नहीं बिका है।’

कलियुग में ‘गोविन्द’ नाम का कीर्तन करने से मनुष्य के समस्त शारीरिक, मानसिक व वाचिक पाप नष्ट हो जाते हैं। जैसे आग बुझा देने के लिए जल और अन्धकार को नष्ट कर देने के लिए सूर्योदय समर्थ है, उसी प्रकार कलियुग की पापराशि का शमन करने के लिए ‘श्रीहरि’ का नाम-कीर्तन समर्थ है।

कृष्ण नाम रसना रटत सोई धन्य कलि में,
ताके पद पंकज के रेणु की बलि में।
सोई सुकृत सोई पुनीत, सोई कुलवन्ता,
जाको निसिवासर रहे कृष्ण नाम चिन्ता।।
जोग, यज्ञ, तीरथ, व्रत, कृष्ण नाव माहीं।
बिना कृष्ण नाम, कलि उद्धार और नाहीं।।
सब सुख को सार, कृष्ण कबहुं ना बिसरिये।
कृष्ण नाम ले ले भव सागर को तरिये।।
श्रीगोवर्धन धरन प्रभु, परम मंगल कारी,
उद्धरे जन, सूरदास ताकी बलिहारी।।

यदि जगत् का परम मंगल करने वाला श्रीकृष्ण-नाम कण्ठ के सिंहासन को स्वीकार कर लेता है तो यमपुरी का स्वामी उस कृष्णभक्त के सामने क्या है? अथवा यमराज के दूतों की क्या हस्ती है?

भगवन्नाम कामतरु

भगवन्नाम कामतरु है। उससे आप जो चाहेंगे, वह प्राप्त होगा। ऐसा कोई कार्य नहीं जो भगवान के नाम के आश्रय लेने पर न हो। ऐसा कोई पदार्थ या स्थिति नहीं, जिसे नाम का आश्रय दिला न सके। इसलिए नाम का आश्रय लेकर किसी सांसारिक कामना का पोषण न करके संसार के आवागमन से मुक्ति (भगवान के चरणकमलों की प्राप्ति) ही लक्ष्य होना चाहिए। भगवन्नाम मनुष्य का पथ-प्रदर्शक, प्रकाश-स्तम्भ, अपार शक्ति-सम्पन्न और भवसागर से पार उतारने वाला है। नाम की महिमा अपरम्पार है। संतों, पुराणों व उपनिषदों ने भगवान्नाम के अमित प्रभाव का गान किया है।

पुरानन को पार नहिं बेदन को अंत नहिं,
बानी तो अपार कहाँ-कहाँ चित्त दीजिए।
लाखन की एक कहूँ, कहूँ एक करोड़न की,
सबही को सार एक रामनाम लीजिए।।

इस नाम जप में न उम्र की बाधा है न योग्यता की, न देश की बाधा है न काल की, न वर्ण की बाधा है, न जाति की, न धर्म की बाधा है न पुण्य की, न स्त्री की बाधा है, न पुरुष की। न इसमें किसी प्रकार की मेहनत है, न खर्च ही है। बालक से लेकर वृद्ध, पृथ्वी के एक कोने से लेकर दूसरे कोने तक बिना किसी बाधा के नाम जप किया जा सकता है। यदि जीवन में नाम-पथ पर चल पड़ें तो कल्याण-ही-कल्याण है अन्यथा केवल पाठ करना तो शुक जैसी स्थिति है, किन्तु यदि पाठ तन्मयता से किया जाए तो वह ‘शुक’ से ‘शुकदेव’ बना देता है।

विभिन्न कार्यों को करते समय भगवान के विभिन्न नामों का स्मरण

यों तो प्रभु के अनन्त नाम हैं परन्तु उनका एक नाम है–’अनामी’। सचमुच उनका कोई एक नाम नहीं है, इसलिए जिस नाम से आप पुकारेंगे, उसी नाम से वह बोल उठेगें क्योंकि वह अंतस्तल की परा वाणी के भी प्रकाशक हैं। पुराणों में मनुष्य को विभिन्न कार्यों को करते समय भगवान के अलग-अलग नाम-स्मरण करने के लिए कहा गया है, जैसे–

–सोकर उठते ही ‘विष्णु’ का स्मरण करें–उत्तिष्ठन् कीर्तयेद् विष्णुम्।

–निद्राकाल में मनुष्य ‘माधव’‘पद्मनाभ’ का स्मरण करे–प्रस्वपन् माधवं नर:।

–स्नान, देवार्चन, हवन, प्रणाम तथा प्रदक्षिणा करते समय मनुष्य को ‘वासुदेव’ नाम का जप करना चाहिए–कीर्तयेद् भगवन्नाम वासुदेवेति तत्पर:।

–भोजन करते समय ‘गोविन्द’‘जनार्दन’ का स्मरण करें–भोजने चैव गोविन्दं।

–औषधि-सेवन करते समय ‘अच्युत’, ‘अमृत’‘विष्णु’ नामों का जप करना चाहिए।

–संतान की प्राप्ति के लिए भक्तिपूर्वक ‘जगत्पति’ (जगदीश या जगन्नाथ) की स्तुति करने वाला कभी दु:खी नहीं होता–जगत्पतिमपत्यार्थं स्तुवन् भक्त्या न सीदति।

–विद्यार्थी को प्रतिदिन ‘पुरुषोत्तम’ नाम का स्मरण करना चाहिए।

–सभी प्रकार की नेत्र बाधाओं में नित्य-निरन्तर ‘केशव’ तथा ‘पुण्डरीकाक्ष’ नामों का जप करना चाहिए।

–जल को पार करते समय भगवान ‘कूर्म’ (कच्छप), ‘वराह’ अथवा ‘मत्स्य’ का स्मरण करना चाहिए–कूर्मं वराहं मत्स्यं वा जलप्रतरणे स्मरेत्।

–कही आग लग गयी हो उसकी शान्ति के लिए ‘भ्राजिष्णु’ इस नाम का लगातार जप करना चाहिए। घर या गांव में आग लग जाने पर ‘जलशायी’ का स्मरण करना चाहिए–अग्निदाहे समुत्पन्ने संस्मरेज्जलशायिनम्।

–अत्यन्त घोर अंधकार में डाकू तथा शत्रुओं की संभावना होने पर मनुष्य को बारम्बार ’नरसिंह’ नाम का स्मरण करना चाहिए।

–‘गरुणध्वज’ नाम के बारम्बार स्मरण से मनुष्य से सर्पविष का प्रभाव दूर हो जाता है।

–युद्ध के लिए जाते समय ‘अपराजित’ नाम का स्मरण करना चाहिए–संग्रामाभिमुखे गच्छन् संस्मरेदपराजितम्।

–सम्पूर्ण अरिष्टों के निवारण के लिए सदा ‘विशोक’ नाम का जप करना चाहिए–अरिष्टेषु ह्यशेषेषु विशोकं च सदा जपेत्।

–बंधन में पड़ा हुआ मनुष्य नित्य ही’ दामोदर’ नाम का जप करे–दामोदरं बन्धगतो नित्यमेव जपेन्नर:।

–भय-नाश के लिए ‘हृषीकेश’ नाम का स्मरण करना चाहिए–हृषीकेशं भयेषु च।

–सब प्रकार के अभ्युदय के लिए ‘श्रीश’’श्रीपति’ नाम का बार-बार उच्चारण करना चाहिए–श्रीशं सर्वाभ्युदयिके कर्मण्याशु प्रकीर्तयेत्।

–धन-धान्यादि की स्थापना के समय मनुष्य को श्रद्धापूर्वक ‘अनन्त’‘अच्युत’ इन नामों का स्मरण करना चाहिए।

–परदेश जाते समय या परदेश में रहते समय कल्याण चाहने वाले व्यक्ति को ‘चक्री’ (चक्रपाणि), ‘गदी’ (गदाधर), ‘शांर्गी’ (शांर्गधर) तथा ‘खंगी’ (खंगधर)–इन नामों का स्मरण करना चाहिए।

–मांगलिक कार्यों में मंगलकारी ‘श्रीविष्णु’ का स्मरण करें–मंगल्यं मंगले विष्णुं मंगल्येषु च कीर्तयेत्।

–युद्ध के समय युद्धार्थी मनुष्य ‘बलभद्र’ का स्मरण करे–बलभद्रं तु युद्धार्थी।

–खेती के आरम्भ में किसान ‘हलायुध’ का स्मरण करे–कृष्यारम्भे हलायुधम्।

–व्यापार करने वाले वैश्य ‘उत्तारण’ का चिन्तन करें व अभ्युदय की इच्छा रखने वाला ‘राम’ का स्मरण करे–उत्तारणं वणिज्यार्थी राममभ्युदये नृप।

–अभीष्ट कामना की सिद्धि के लिए ‘काम’, ‘कामप्रद’, ‘कान्त’, ‘कामपाल’, ‘हरि’, ‘आनन्द’ और ‘माधव’–इन नामों का जप करना चाहिए–काम: कामप्रद: कान्त: कामपालस्तथा हरि:। आनन्दो माधवश्चैव कामसंसिद्धये जपेत्।।

–शत्रुओं पर विजय पाने की इच्छा वाले लोगों को ‘राम’, ‘परशुराम’, ‘नृसिंह’, ‘विष्णु’ तथा ‘विक्रम’ इन भगवन्नामों का जप करना चाहिए।

–स्वेच्छा या परइच्छावश किसी निर्जन स्थान में पहुंचने पर, आंधी-तूफान, अग्नि (दावानल), अगाध जलराशि में फंसने पर जब प्राण संकट में हों तो बुद्धिमान मनुष्य को ‘वासुदेव’ नाम का जप करना चाहिए।

–समस्त व्यवहारों में सदा मनुष्य ‘अजित’, ‘अधिप’, ‘सर्व’ तथा ‘सर्वेश्वर’–इन नामों का स्मरण करे।

–हर समय मानव  ‘मधुसूदन’ का चिन्तन करें।

आर्ता विषण्णा: शिथिलाश्च भीता,
घोरेषु च व्याघ्रादिषु वर्तमाना:।
संकीर्त्य नारायण शब्दमात्रं,
विमुक्तदु:खा: सुखिनो भवन्ति।। (पाण्डव-गीता)

श्रीमद्भागवत (३।९।१५) में ब्रह्माजी कहते हैं–’जो लोग प्राण जाते समय आपके अवतार, गुण और कर्मों को बताने वाले देवकीनन्दन, भक्तवत्सल, गोवर्धनधारी आदि नामों का विवश होकर भी उच्चारण करते हैं, वे अनेक जन्मों के पापों से अमृत ब्रह्मपद को प्राप्त करते हैं।’

श्रीमद्भागवत (१२।१२।४६) के अनुसार–’जो मनुष्य गिरते-पड़ते, फिसलते, दु:ख भोगते अथवा छींकते समय विवशता से भी ऊंचे स्वर से बोल उठता है–‘हरये नम:’–वह सब पापों से मुक्त हो जाता है।’

गीता (९।३४) में भगवान अपने तक पहुंचने का सरल-से-सरल मार्ग सबके लिए बतलाते हैं–’तुम्हारा मन निरन्तर मुझमें लगा रहे, तुम निरन्तर श्रद्धासहित मुझको भजते रहो–मन, वाणी और शरीर द्वारा मेरे परायण हो जाओ, मेरी पूजा-अर्चा करो, मेरे शरण होकर मुझे नमस्कार करो। इस प्रकार मेरे शरण होकर–अपने को मेरे साथ युक्त करके तुम मुझको अवश्य प्राप्त कर लोगे।’

जीव के अंत समय का सच्चा साथी यही भगवन्नाम है। वही दु:ख में डूबे हुए लोगों के लिए सुख का स्थान है। भगवन्नाम माया की अंधेरी भूलभुलैया में दिव्य ज्योतिरूप बनकर सच्चा मार्ग दिखलाने वाला है। विष-से भरे संसार में वह अमृत है; मधुर से भी अत्यन्त मधुर है। जिसने एक बार उसका स्वाद ले लिया उसे फिर अन्य सारे स्वाद रसहीन और तुच्छ लगने लगते हैं। भवसागर से डूबते हुए प्राणी के लिए वह नौका है। मुमुक्ष (मोक्ष चाहने वाले) के लिए वह सच्चा मित्र है, मनुष्य को परमात्मा से मिलाने वाला सच्चा गुरु है, अंत:करण की मलिन वासनाओं के नाश के लिए दिव्य औषधि है। वह भक्तों का दिव्य भूषण है, ऋषियों का परम धन है। एक नामप्रेमी संत ने कहा है–

जिनको रुचि हो सो करे बेशक प्राणायाम।
यहाँ तो प्राण पुकारते घड़ी-घड़ी घनश्याम।।
जिनको भावे सो करो, निराकार का गान।
यहाँ तो मन में रम रही राम-नाम की तान।।
जिनको रुचता हो करे निराकार का ध्यान।
यहां तो कढ़ती ही नहीं मन से हरि मुस्कान।।

3 COMMENTS

  1. Dhanya ho gaya ye gyan pakar kripya aise hi bhakti may gyan ko prasarit karne ki kripa karein please let me know more mistry of krishna katha

    • धन्यवाद! आगे भी हमारा इसी तरह के लेख प्रकाशित करने का प्रयास रहेगा।

      Sent from my iPad

      >

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here