Shri Krishna

कृष्ण नाम के दो अक्षर में क्या जानें क्या बल है!
नामोच्चारण से ही मन का धुल जाता सब मल है।।
गद्गद् होता कण्ठ, नयन से स्त्रावित होता जल है।
पुलकित होता हृदय ध्यान आता प्रभु का पल-पल है।।
यही चाह है नाथ! नाम-जप का तार न टूटे।
सब छूटे तो छूटे पर प्रभु का ध्यान कभी न छूटे।।

भगवान का नाम कितना पवित्र है, उसमें कितनी शान्ति भरी है, कैसी शक्ति है, यह कोई नहीं बतला सकता; क्योंकि अथाह की थाह कौन ले सकता है! इस कलिकाल में तमोगुण का प्रकोप इतना अधिक बढ़ गया है कि सत् की टिमटिमाहट भी नहीं दिखायी देती है। तमोगुण की वृद्धि से मनुष्य अति महत्वाकांक्षी होकर राग-द्वेष, कलह एवं संघर्ष के भीषण दलदल में फंस गया है, उसकी आत्मा जर्जरित हो चुकी है और मन भ्रम, संशय व विकलता से विषाक्त हो गया है। मन की इस चंचलता, विकलता और विषाक्ता को दूर करने के लिए श्रीकृष्ण नाम का गुणगान ही सबसे सरल साधन है। बार-बार की कृष्ण नाम की पुकार मनुष्य की दिव्यशक्ति को जगा देती है और मन की पाशविक-चेतना दिव्य-चेतना में परिवर्तित हो जाती है।

नाम द्वारा जब भगवान स्वयं हृदय में प्रकट होते हैं तब दु:ख, भय आदि किस बात का? भगवान स्वयं कहते हैं–‘अरे भक्त! तुझे कोई भय नहीं, तू केवल नाम ले। मैं भय का भय, भीषण का भीषण, सब क्लेशों को दूर करने वाला तथा सदा तेरी विपत्तियों का नाश करने वाला हूँ। तू डर नहीं। कलियुग में मैं नामरूप में आया हूँ। नाम ले। तेरा सब भार मैंने ले लिया है। मैं हूँ तेरा, अरे, मैं हूँ तेरा।’ (महात्मा श्रीसीतारामदास ओंकारनाथ)

मन व चित्त की स्वच्छता व शान्ति की अद्भुत औषधि : श्रीकृष्ण-नाम

जिस प्रकार सूर्य अंधकार को, आंधी बादल को, मिसरी जीभ की कटुता को दूर कर देती है; उसी प्रकार भगवन्नाम-जप से श्रीकृष्ण साधक के हृदय में प्रवेश कर उसके मन में स्थित काम-क्रोध आदि सारे संतापों, पापों व मलिनताओं को दूर कर हृदय को शान्त और निर्मल बना देते है।

श्रीचैतन्यमहाप्रभु अपने ‘शिक्षाष्टक’ में कहते हैं–‘श्रीकृष्ण के नाम और गुणों का कीर्तन चित्तरूपी दर्पण को साफ कर देता है, और आत्मा को शान्ति और आनन्द की धारा में स्नान करा देता है।’

अब मन कृष्ण कृष्ण कहि लीजे।
कृष्ण कृष्ण कहि कहिके जग में साधु समागम कीजै।।
कृष्ण नाम की माला लैके कृष्ण नाम चित दीजे।
कृष्ण नाम अमृत रस रसना तृषावंत हो पीजे।।
कृष्ण नाम है सार जगत में कृष्ण हेतु तन छीजे।
‘रूपकुंवरि’ धरि ध्यान कृष्ण को कृष्ण कृष्ण कहि लीजे।।

महर्षि वेदव्यास भी पीड़ित हुए मानसिक अशान्ति से

भगवान शंकर के आशीर्वाद से महर्षि पाराशर के यहां स्वयं भगवान पुत्ररूप में अवतीर्ण हुए–‘व्यासो नारायण: साक्षात्’ अर्थात् वेदव्यासजी साक्षात् नारायण के कलावतार हैं। कृष्ण वर्ण होने से उनका नाम ‘कृष्ण’ और यमुना के द्वीप में जन्म लेने के कारण ‘द्वैपायन’–’श्रीकृष्णद्वैपायन’ हुआ। लोगों को आलसी, अल्पायु और मन्दबुद्धि व पापों में लिप्त देखकर उन्होंने वेदों का विभाजन किया इसलिए वेदव्यास कहलाए। स्त्री, शूद्र आदि वेदों से वंचित न रहें, इसलिए ‘महाभारत’ की रचना की। अठारह पुराणों और उपपुराणों की रचना करके कथाओं द्वारा वेदों को समझाने की चेष्टा की। इस प्रकार कर्म, उपासना व ज्ञान का विस्तार करने के लिए जो कुछ करना था, सब किया।

संसार को माता की आज्ञा का महत्त्व समझाया

जन्म लेते ही उन्होंने अपनी मां सत्यवती से वन में जाकर तपस्या करने की इच्छा प्रकट की और वचन दिया कि तुम्हारे स्मरण करते ही मैं आ जाया करुंगा। लोककल्याण के लिए संसार के सामने उन्होंने तपस्या का आदर्श रखा। माता की आज्ञा का क्या महत्त्व है, यह समझाने के लिए अपनी माता के आदेश से केवल दृष्टि के द्वारा धृतराष्ट्र, पाण्डु और विदुर जैसे महापुरुषों को जन्म दिया।

अलौकिक ज्ञान और शक्तियों से सम्पन्न थे वेदव्यासजी

वेदव्यासजी की कृपा से संजय को दिव्यदृष्टि मिली जिससे वह धृतराष्ट्र के पास बैठे-बैठे ही महाभारत-युद्ध की सब बात देख लेते थे, सुन लेते थे। इसी दिव्यदृष्टि के कारण संजय ने भगवान श्रीकृष्ण के विश्वरूप के दुर्लभ दर्शन किए थे। व्यासजी ने पांडवों के वनवास के समय युधिष्ठिर को ऐसी विद्या प्रदान की, जिसके द्वारा उन्हें देवताओं के दर्शन करने की क्षमता प्राप्त हो गयी। इसके अलावा वेदव्यासजी ने गांधारी व धृतराष्ट्र के शोक को दूर करने के लिए उन्हें उनके मृत कुटुम्बियों के दर्शन कराए।

अठारह पुराणों की रचना करके भी न मिली मन को शान्ति

इतना सब कुछ करने पर भी व्यासजी के मन में यह बात खटकने लगी कि अभी कुछ शेष रह गया है, मेरा कुछ कर्तव्य बाकी है। इससे उनका मन अशान्त रहने लगा। वेदव्यासजी की आत्मा को संतोष नहीं हुआ। एक दिन वे सरस्वती नदी के किनारे बैठकर सोच रहे थे कि भगवत्प्रेम के आचार्य देवर्षि नारद वीणा पर भगवन्नारायण का गान करते हुए आ पहुंचे। वेदव्यासजी को चिन्तित देखकर नारदजी ने कहा–‘महर्षि! तुमने सब कुछ तो कर लिया है, फिर भी अभी अतृप्त से जान पड़ते हो, बड़े आश्चर्य की बात है! तुम्हारे उपदेश से कितनों का कल्याण हुआ है, उनकी तो गिनती ही नहीं की जा सकती, फिर तुम्हारे असन्तोष, अशान्ति का कारण क्या है?’

व्यासजी ने कहा–’देवर्षि! आपसे क्या छिपा है? मुझे ऐसा लगता है कि मेरे लिए अभी कुछ करना बाकी है, परन्तु वह क्या है, इसका पता नहीं चलता। मैं चिन्ता के सागर में डूब रहा हूँ, आप उससे पार जाने के लिए जहाज की भांति आ गए हैं। अब कोई ऐसा उपाय बतलाइए जिससे मुझे आन्तरिक शान्ति प्राप्त हो।’

देवर्षि नारद ने बतलाया मन की शान्ति का उपाय

पुरानन को पार नहिं वेदन को अंत नहिं,
बानी तो अपार कहां-कहां चित्त दीजिए।
लाखन की एक कहूं, कहूं एक करोड़न की,
सबही को सार एक कृष्णनाम लीजिए।।

देवर्षि नारद ने कहा–संसार में लोग तीन पुरुषार्थों–अर्थ, धर्म और काम की प्राप्ति में स्वयं लगे हुए हैं। यदि उन्हें उनकी ओर ही प्रेरित किया जाए तो वे बेचारे संसार में ही भटकते रह जाएंगे। आपने धर्म की व्याख्या की पर भगवान की भक्ति की कमी रह गयी। समस्त ज्ञान, उपासना और कर्म का यही रहस्य है कि भगवान श्रीकृष्ण का गुणगान किया जाए। आप विशुद्ध भगवत्प्रेम का गुणगान करने वाले भागवतपुराण का वर्णन करें, तभी तुम्हें शान्ति मिलेगी।

नारदजी ने कहा कि पूर्वजन्म में मैं एक दासीपुत्र था। सत्संग के प्रभाव से मेरी भगवान में रुचि हो गयी। भगवान ने मुझपर कृपा करके दर्शन दिए। इस जन्म में मैं ब्रह्मा का पुत्र हुआ हूँ और अब उनकी लीला, नाम और गुणों का इस भगवान द्वारा दी गयी वीणा पर गान करता हुआ घूमता रहता हूँ। मुझ पर भगवान की इतनी कृपा है कि मैं जब भी उनका स्मरण करता हूँ, तब वे आकर प्रकट हो जाते हैं। तुम भी उन्हीं के गुण गाओ, तुम्हें शान्ति मिलेगी। तुम्हें तो क्या, तुम्हारे बहाने उस भागवतपुराण से त्रिलोकी को शान्ति मिलेगी। यही तुम्हारी अशान्ति को दूर करने का उपाय है।’

महर्षि वेदव्यास ने की श्रीमद्भागवत की रचना

महर्षि वेदव्यास ने परमहंससंहिता श्रीमद्भागवत की रचना की। यह वैष्णवों का वेद है। श्रीमद्भागवत के प्रत्येक स्कन्ध में भगवन्नाम-संकीर्तन की महिमा भरी हुई है। अब तो व्यासजी निरन्तर श्रीकृष्णनाम रूपी अमृत में छके रहते और श्रीकृष्णनामामृत से उनके हृदय की दग्धता, असंतोष व अपूर्णता समाप्त हो गयी। श्रीकृष्ण के नाम और रूप में मन रम गया तो सारे जंजाल स्वयं मिट गए-

‘सुमरौ गोपाल लाल, सुन्दर अति रूप-जाल,
मिटिहैं जंजाल सकल, निरखत संग गोप-बाल।। (छीतस्वामी)

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