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करमाबाई की खिचड़ी

Bal Krishna playing flute

थाली भरके लाई खिचड़ो, ऊपर घी की बांट की।
जीमो म्हारा श्याम धणी, जिमावे बेटी जाट की।।
बाबो म्हारो गाँव गयो छ:, ना जाने कद आवे लो।
बाबा कै भरोसै सांवरा, भूखो ही रह जावे लो।।
आज जिमाऊँ तने खिचड़ो, काल राबड़ी छाछ की।
बार-बार मंदिर नै जड़ती, बार-बार पट खोलती।
जीमै कयां कोनी सांवरा, करड़ी-करड़ी बोलती।।
तूं जीमै जद मैं जीमूं, मानूं न कोई लाट की।

पड़दो भूल गई रे सांवरिया, पड़दो फेर लगायो जी।
धाबळिया कै ओलै, श्याम खीचड़ो खायो जी।।
भोळा भगतां सूं सांवरा, अतरी कांई आंट जी।

भक्त हो तो करमा जैसी, सांवरियो घर आयो जी।
भाई लोहाकर, हरख-हरख जस गायो जी।।
सांचो प्रेम प्रभु में हो तो, मुरती बोलै काठ की।

जीमो म्हारा श्याम धणी, जिमावे बेटी जाट की।। (श्रीसोहनलोहाकार)

निर्गुण निराकार ब्रह्म प्रेम-बन्धन में बंधकर सगुण साकार होकर भक्तों के साथ कई प्रकार के खेल खेलते रहते हैं। भगवान सर्वत्र व्यापक हैं, कण-कण में उनकी स्थिति है, किन्तु वे प्रेम से ही प्रकट होते हैं–

हरि ब्यापक सर्वत्र समाना।
प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना।।

इस कथा का सम्बन्ध राजस्थान से है, इसलिए इसमें राजस्थानी भजन हिन्दी भावार्थ सहित दिए गए हैं।

राजस्थान की कृष्णभक्त करमाबाई

राजस्थान की कृष्णभक्त करमाबाईराजस्थान के नागौर जिले की मकराना तहसील में एक गांव है–कालवा। इस गांव में एक जाट किसान जीवनराम डूडी के घर १६१५ में एक कन्या का जन्म हुआ। भगवान की बहुत मन्नतें मांगने के बाद इसका जन्म हुआ था, इसलिए नाम रखा करमा। कृष्णभक्त पिता ने घर पर नन्हें ‘मदनगोपाल’ का मन्दिर बना रखा था, जहां वे प्रतिदिन अपने आराध्य की विधिवत् पूजा-अर्चना कर उन्हें भोग लगाया करते थे। भगवान को भोग लगाने के बाद ही वे प्रसादी ग्रहण करते थे। एक बार करमा के पिता गृहमन्दिर की पूजा-सेवा का भार करमा को सौंपकर तीर्थयात्रा पर चले गए। पिता के जाने के बाद करमाबाई ने बड़े वात्सल्यभाव से अपने गोपाल के लिए सुबह-सवेरे ही बाजरे का खीचड़ा (खिचड़ी) का भोग बनाया और गोपाल के सामने खिचड़ी की थाली रखकर भोग लगाने का आग्रह करने लगी–’हे प्रभु, भूख लगे तब भोग लगा लेना, तब तक मैं घर के और काम कर लेती हूं।’

इसके बाद वह काम में जुट गई। बीच-बीच में वह थाली देखने आती लेकिन भगवान ने खिचड़ी नहीं खायी। थाली वैसी ही रखी हुई थी जैसी करमा कुछ देर पहले छोड़कर गई थी। काफी देर होने के बाद भी जब भगवान ने भोग नहीं लगाया तो उसे चिंता हुई। क्या खिचड़ी में घी की कमी रह गई या थोड़ा और मीठा होना चाहिए था? उसने और गुड़ व घी मिलाया और वहीं बैठ गई। लेकिन भगवान ने फिर भी नहीं खाया। तब उसने कहा–’हे प्रभु आप भोग लगा लीजिए। आपको जिमाने की जिम्मेदारी बाबा मुझे देकर गए हैं; इसलिए आपके भोग लगाने के बाद ही मैं खाना खाऊंगी।’ लेकिन भगवान नहीं आए। करमा उनसे बार-बार आग्रह करने लगी–

थोड़ो आरोगोजी मदन गोपाल करमांबाई रे खीचड़ले।।
प्रभुजी थाँरो प्रेम पुजारी; गयो तीरथा न्हाण।
जातो जातो दे गयो म्हांने; सेवा री भोलाण।
जब मैं आई थरि मंदिरिये में चाल।।
मैं हूँ दीन अनाथणीजी, नहिं जाणू पूजा फन्द।
नयो नवादो झेलियो ओ, धंधो गोकुलचन्द।
तूँ ही राखणियूँ भगतां री बाजीभाल।।
नहिं कर जानूँ षटरस भोजन खाटासूँ अनुराग।
रूखो-सूखो राम-खीचड़ो, ग्वाँर फली रो साग।
मीठो दही ल्याई बाटकिये में घाल।।
थोड़ो आरोगोजी मदन गोपाल करमांबाई रे खीचड़ले।। (श्रीमोतीलाल)

हे प्रभु! मुझे षटरस व्यंजन बनाने नहीं आते, न ही मुझे पूजा-पाठ की विधि पता है। मुझे ये नई जिम्मेदारी अभी मिली है। तुम्हें मेरे हाथ से बना यह रूखा-सूखा खीचड़ा और ग्वार की फली की सब्जी खानी होगी, साथ में मैं मीठा दही भी लाई हूँ। बाबा को आने में कई दिन लग जाएंगे। तुम जीम (खा) लो, वरना मैं भी भूखी ही रह जाऊंगी।

करमा का खिचड़ी खाने आए ‘गोपाल’

दोपहर बीत गई, शाम होने लगी थी, लेकिन करमा ने कुछ भी नहीं खाया। आखिरकार भगवान श्रीकृष्ण को करमा की जिद देखकर आना ही पड़ा और बोले–’करमा, तुमने पर्दा तो किया ही नहीं! ऐसे भोग कैसे लगाऊं?’ यह सुनकर करमा ने अपनी ओढऩी की ओट की और उसी की छाया में श्रीकृष्ण ने खीचड़े का भोग लगाया। थाली पूरी खाली हो गई। करमा बोली–’भगवान इतनी-सी बात थी तो पहले बता देते। खुद भी भूखे रहे और मुझे भी भूखी रखा।’ इसके बाद करमा ने भोजन किया।

परमात्मा प्रेम के आधीन हैं

ईश्वर प्रेम के विवश हैं। प्रेमवश वह कुछ भी कर सकते हैं। कहीं भी सहज ही प्रकट हो सकते हैं। क्योंकि ‘सबसे ऊंची प्रेम सगाई।’ करमा नित्य खिचड़ी बनाती और प्रेम की डोर से खिंचे सुन्दर-सलोने गोपाल आकर करमा की गोद में बैठ जाते और बड़े प्यार से करमा की बनायी खिचड़ी को अरोगते। करमा सुबह उठते ही सबसे पहले खिचड़ी बनाने रख देती क्योंकि उसका भाव था कि उसके गोपाल को सुबह-सवेरे ही भूख लग जाती है। अपने गोपाल को खिचड़ी का भोग लगाने के बाद ही वह निश्चिन्त होकर स्नान आदि करती थी। करमाबाई को सदैव चिन्ता रहती थी कि बालगोपाल के भोजन में कहीं देर न हो जाए। इसी कारण वे किसी भी विधि-विधान के पचड़े में न पड़कर अत्यन्त प्रेम से सवेरे ही खिचड़ी तैयार कर लेतीं।

आराध्य को कोई कष्ट हो, भक्त के लिए यह सहनीय नहीं है। भगवान व्यक्ति के हृदय के भाव देखते हैं, और उसी पर रीझते भी हैं–’रीझत राम जानि जन जी की।’

पिता तीर्थयात्रा से जब घर लौटे तो करमाबाई ने उन्हें गोपाल के पहले दिन के नखरे सुनाए कि कैसे पहले दिन गोपाल ने भोग नहीं अरोगा पर अब तो वह चुपचाप गोद में बैठकर खिचड़ी अरोगते हैं। भगवद्भक्त पिता को करमा की प्रेमाभक्ति को समझते देर नहीं लगी। जिस ईश्वर के लिए वे तीर्थयात्रा करने गए थे, जिसे लोग न जाने कहां-कहां ढूंढ़ते हैं, उसे उनकी बेटी ने अपने हाथ से खीचड़ा जिमाया! मन-ही-मन ऐसी पुत्री पाकर वे अपने को धन्य महसूस करने लगे और एक दिन भगवान का दर्शन पाकर इस संसारचक्र से छूट गए।

पिता के गोलोक गमन के बाद करमाबाई अकेली रह गयी। अपने गोपाललाल को लेकर वह तीर्थयात्रा करती हुई जगन्नाथपुरी में आ गयी। सुबह उठते ही गोपाल की खिचड़ी बना कर भोग लगाना फिर स्नान आदि के बाद संतों की सेवा करना और मन्दिर की प्रसादी लेना–यह उसकी नित्य की दिनचर्या थी।

प्रेमभक्ति का मूल ‘भाव’ है

एक बार जगन्नाथपुरी में एक साधु ने  करमाबाई को समझाया कि वह स्नान करने के बाद ही भगवान के भोग के लिए खिचड़ी बनाया करे। साधु की बात मान कर करमाबाई ने स्नान करके खिचड़ी बनायी तो भोग लगाने में देर हो गयी और गोपाल को भोग समय पर नहीं मिल पाया। करमाबाई का हृदय रो उठा कि मेरा प्यारा गोपाल भूख से छटपटा रहा होगा। जिनके मन, हृदय व आंखों में भगवान की छवि बस जाती है, उनमें अन्य बातों–पवित्रता-अपवित्रता के लिए स्थान ही कहां रह जाता है!

करमाबाई ने दु:खी मन से गोपाल को खिचड़ी खिलायी। इसी समय मन्दिर में अनेक स्वादिष्ट पकवान निवेदित करने के लिए पुजारी ने प्रभु का आवाहन किया। प्रभु जूठे मुंह ही वहां चले गए। पुजारी ने देखा कि उस दिन भगवान के मुखारविन्द पर खिचड़ी लगी हुई है। भगवद्भक्त पुजारी समझ गया कि आज कुछ तो नई बात हुई है। उसने अत्यन्त कातर स्वर में भगवान से असली बात जानने की प्रार्थना की।

भगवान ने पुजारी से कहा–’नित्य प्रात:काल मैं करमाबाई के पास खिचड़ी खाने जाता हूँ। उसकी खिचड़ी मुझे बहुत प्रिय लगती है। परन्तु आज एक साधु ने जाकर उन्हें स्नान करने के बाद खिचड़ी बनाने को कहा, इसलिए खिचड़ी बनने में देर हो गयी। इससे मुझे बहुत भूख का कष्ट सहन करना पड़ा। इधर मन्दिर में भोग का समय होने पर मुझे शीघ्रता में जूठे मुंह आना पड़ा।’

भगवान की आज्ञा सुनकर पुजारी ने साधु को सारी बात बता दी। साधु घबराया हुआ करमाबाई के पास पहुंचा और बोला–’आप पहले की तरह प्रतिदिन सबेरे ही खिचड़ी बनाकर प्रभु को निवेदन कर दिया करें। आपके लिए किसी नियम की आवश्यकता नहीं है।’ करमाबाई उसी तरह प्रतिदिन सवेरे भगवान के लिए खिचड़ी बनाती रहीं और भगवान उनकी गोद में बैठकर नित्य खिचड़ी अरोगते रहे। यह क्रम कई वर्षों तक चला।

जब भगवान रोए करमाबाई की खिचड़ी के लिए

एक दिन करमाबाई परमात्मा के आनन्दमय धाम में चली गयीं। उस दिन भगवान बहुत रोए। श्रीजगन्नाथजी के श्रीविग्रह के नयनों से अविरल अश्रुप्रवाह होने लगा। रात्रि में राजा के स्वप्न में प्रभु बोले–’आज माँ इस लोक से विदा हो गई। अब मुझे कौन खिचड़ी खिलाएगा?’

करमाबाई अपने गोपाल को अपने हृदयचक्षु (मन की आंखों) से भोग लगाते देखती थी। परमेश्वर गोपाल के रूप में करमाबाई की खिचड़ी का भोग लगाता था। पर उसके गोलोक जाने के बाद अब रो-रोकर उससे खिचड़ी मांगता है। करमाबाई के पंचतत्त्व शरीर से एक दिव्य-ज्योति निकलकर उसके आराध्य के चरणों में विलीन हो गयी। आज उसकी कुटिया खाली पड़ी है, पर उसमें है एक प्यारी-सी, नन्हीं-सी, भोली-सी गोपाल की मूर्ति। लोगों ने कई दिनों तक उस मूर्ति से रोने की आवाज को सुना था–‘मैया री! मैं भूखा हूँ, मुझे खिचड़ी दे।’

करमाबाई की कुटिया में मैया की खिचड़ी का स्वाद उस सर्वेश्वर जगन्नाथ को ऐसा लगा कि वह अपनी आप्तकामता को भूलकर रो-रोकर उसको खिचड़ी के लिए पुकारता।

‘छपन भोग तैं पहिल खीच करमा कौ भावै’

राजा ने सभी संतों व विद्वानों की राय ली और आदेश दिया कि प्रभु को माता की कमी महसूस न होने दी जाएगी। प्रभु जगन्नाथजी की प्रसन्नता हेतु राजा ने श्रीमंदिर प्रांगण में ही करमाबाई का एक सुन्दर मंदिर बनवा दिया। करमाबाई की इस अनन्य प्रेमभक्ति की याद में आज भी जगन्नाथपुरी के मन्दिर में प्रातःकाल भोर में सर्वप्रथम खिचड़ी का थाल करमाबाई के मंदिर में धरा जाता है तत्पश्चात करमाबाई के भाव से छप्पन-भोग से पहले भगवान का खिचड़ी का ही भोग लगता है; क्योंकि भगवान को सब व्यंजनों में सबसे अधिक स्वादिष्ट खिचड़ी लगी है।

शायद इस प्रसंग पर विश्वास करना मुश्किल हो पर इसके द्वारा भगवान अपने भक्तों को यही बताना चाहते हैं कि उस सर्वज्ञ, सर्वान्तर्यामी और सर्वशक्तिमान प्रेममय प्रभु को तो प्रेम की भाषा ही समझ में आती है तथा वह प्रेम से ही रीझता है। परमात्मा प्रेम के भूखे हैं। भगवान तन नहीं मन देखते हैं। प्रेम में पागल बने बिना वे मिल नहीं सकते। जिन भक्तों के रोम-रोम में भगवान का प्रेम बहता है, उन्हीं की वात्सल्यमयी गोद में आकर प्रभु बैठते हैं। प्रेमियों को सुख देने और उनके साथ प्रेममयी लीलाएं करने में उनको आनन्द मिलता है।

मक्का मदीना द्वारका बद्री और केदार।
बिना प्रेम सब झूठ है कहे मलूक बिचार।।
तोहि मोहिं नाते अनेक मानिए जो भावे

भगवत्प्रेम का ऐसा सुन्दर स्वरूप जो करमाबाई ने प्रस्तुत किया, वह किसी के भी हृदय में प्रेमभक्ति का संचार करने में सक्षम हैं। करमाबाई गोपाल में वात्सल्यभाव रखती थीं और गोपाल ने उन्हें यशोदामाता की तरह मातृभाव से देखा। गोपाल को सम्बन्ध निभाना बहुत अच्छा आता है। वह कभी किसी सम्बन्ध को अस्वीकार नहीं करता बशर्ते हमारी तरफ से शिथिलता नहीं होनी चाहिए।

संसार में ऐसे अनूठे भगवत्प्रेम का उदाहरण दुर्लभ है। यह भगवान और भक्त की अनोखी लीला है। धन्य हैं ऐसे भगवान और उससे भी अधिक धन्य हैं उनके प्रेमी भक्त। संसार में भगवान से अधिक कोई भी प्रिय नहीं है। इसलिए कन्हैया को अपना कुछ बना लें, उनसे प्रेम करें, सम्बन्ध जोड़ें, पर वह सम्बन्ध सच्चा होना चाहिए। फिर देखिए जीवन में चिन्ता, भय, लोभ, मोह आदि कहां पलायन कर जायेंगे?

झूठा यह संसार है, झूठा इसका प्यार है।
केवल सच्चा नाम तेरा, हे मेरे करतार है।।

7 COMMENTS

  1. प्रभु श्याम सुंदर के प्रति करमा बाई का वात्सल्य भाव तथा उसी अनुरूप श्याम सुंदर का मीरा को मातृ भाव से मानना , वाह गजब का भाव ।
    पढ़कर मन आनंदित हो गया ।।

  2. इस पोस्ट को पसन्द करने के लिए आप सब का धन्यवाद!

  3. भगवान को जो जिस भाव से भजता है, भगवान भी उसे उसी भाव से मिलते हैं

    • Bahaut sunder bhakt katha…Thakurji se yahi pray h ki humey bhi aisi bhakti de….Radhey Radhey…🙏🙏🌷🙏🙏

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