भगवान की प्रत्येक लीला रहस्यों से भरी होती है। वे कब कौन-सा काम किस हेतु करेंगे, इसे कोई नहीं जानता। उनकी लीला का हेतु होता है, अपने भक्तों को आनन्द देना और उन्हें भवबन्धन से मुक्त करना। भगवान के वरदान से यशोदाजी को ऐसा दुर्लभ प्रसाद मिला कि वे भगवान श्रीकृष्ण को रस्सी से ऊखल में बाँध सकीं। यह यशोदाजी की भक्ति का ही प्रताप है कि जो परमात्मा प्रकृति के तीनों गुणों से न बंध सके, वे माता के बंधन में आ गए। भगवान जीवों के कल्याण के लिए बन्धन भी स्वीकार करते हैं।

गोपियों ने कहा–नन्दरानी ! तुम्हारा यह नन्हा-सा बालक हमारे घरों में जाकर बर्तन-भांडे फोड़ा करता है, हम कभी कुछ नहीं कहतीं। आज एक बर्तन के फूट जाने के कारण तुमने इसे छड़ी से डराया-धमकाया है और बाँध दिया है। तुम निर्दयी हो गयी हो। गोपियों के इस प्रकार कहने पर यशोदाजी कुछ नहीं बोलीं। गोपियों ने देखा कि यशोदाजी आज उनकी अनुनय-विनय पर ध्यान ही नहीं देतीं तो वे खीझकर अपने घरों को चली गयीं। गोपों के साथ नन्दबाबा इन्द्रयाग (इन्द्र की पूजा) में लगे थे और बलरामजी व अन्य  बड़े गोपबालक भी यज्ञ देखने चले गये थे। कुछ छोटे गोपबालक थे पर वे मां के वात्सल्यमय हाथों द्वारा लगाई गयीं गांठों को खोलने में असमर्थ थे। वे सब सोच रहे थे कि कन्हैया को हमारे लिए बंधना पड़ा है। अत: आज वे अपने घर नहीं गये। यशोदामाता कन्हैया को बांधकर दही मथने चली गयीं। आज उन्हीं को पूरा घर सम्भालना था। यशोदाजी दधि-मंथन तो कर रहीं थीं पर उनका मन श्रीकृष्ण में ही लगा हुआ था। वे मन-ही-मन सोच रही थीं कि ‘कन्हैया को बांधकर मैंने अच्छा नहीं किया, पर क्या करूं; इसे तो चोरी की आदत पड़ गयी है, उसे तो छुड़ाना ही होगा।’

इधर श्रीकृष्ण की दृष्टि नन्दमहल के प्रांगण के पार्श्व में लगे ऊंचे-ऊंचे, एक में सटे दोनों अर्जुन के वृक्षों पर पड़ी। दामोदर भगवान ने सोचा कि–’आज मैं बैलगाड़ी की लीला करुंगा। मैं बैल बनूंगा और ऊखल गाड़ी बनेगा। इस ऊखल को मैं बैलगाड़ी की तरह खींचूंगा।’  श्रीकृष्ण ने जोर लगाकर ऊखल गिरा लिया और हाथ तथा घुटनों के बल खींचते, कमर में रस्सी (दाम) से बंधे ये दामोदर चलने लगे उन्हीं यमलार्जुन वृक्षों की ओर।

यमलार्जुन वृक्षों के पूर्वजन्म की कथा

ये भगवान के भक्त यक्षराज कुबेर के पुत्र थे। इनका नाम नलकूबर और मणिग्रीव था। ये रूद्र भगवान के अनुचर (सेवक) थे। इनके पास धन, सौंदर्य व ऐश्वर्य की पूर्णता थी अर्थात् सम्पत्ति और शक्ति की पराकाष्ठा। इसलिए इनको बड़ा घमण्ड हो गया। इन्हें धन व ऐश्वर्य बिना मेहनत के अपने पिता से मिला था। बिना मेहनत से प्राप्त धन मनुष्य की बुद्धि भ्रष्ट कर देता है। सामान्यत: धनी पुरुषों में धन के अभिमान के साथ स्त्री-संग, जुआखोरी व मदिरापान आदि दोष भी आ जाते हैं। देवर्षि नारद के शापवश ये दोनों वृक्षयोनि को प्राप्त हुए और नंदमहल के प्रांगण के पार्श्व में एक ही साथ अर्जुन के वृक्ष बने इसलिए इन्हें ‘यमलार्जुन’ कहते हैं।

देवर्षि नारद के शाप देने का कारण

देवर्षि नारद के शाप देने के दो कारण थे–एक तो वे इन पर अनुग्रह (उनके मद का नाश) करना चाहते थे और दूसरे, इन्हें श्रीकृष्ण की प्राप्ति हो जाये।

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एक दिन ये दोनों नलकूबर और मणिग्रीव मन्दाकिनी के तट पर कैलाश के रमणीय उपवन में सुरापान करके नंगे होकर गंगाजी में स्त्रियों के साथ जलक्रीड़ा कर रहे थे। मदोन्मत्त होकर वे दोनों स्रियों के साथ उसी प्रकार विहार कर रहे थे जैसे हाथियों का जोड़ा हथिनियों के साथ जलक्रीडा कर रहा हो। संयोगवश देवर्षि नारद भी अपनी देवदत्त वीणा पर विभिन्न रागिनियों को छेड़ते हुए श्रीमुख से हरिगुणगान करते हुए उसी उपवन में विचरण कर रहे थे। उपवन की शोभा जहां देवर्षि के मन में भक्ति के अमृतरस का संचार कर रही थी, वहीं कुबेरपुत्रों की भोगवासना और आसुरीभाव को और बढ़ा रही थी। एक ही वस्तु एक ही समय में अलग-अलग लोगों के लिए अमृत और विष का काम कर रही थी। ये यक्षपुत्र भगवान शंकर के इस परम पावन तपोवन को भ्रष्ट करते हुए निरंकुश विहार कर रहे थे। अप्सराएं विवस्त्रा (वस्त्रहीन) थीं और ये भी दिगम्बर थे। संयोग से ठीक उसी स्थान से देवर्षि नारद निकले। नारदजी को देखकर स्रियों ने तो लज्जित होकर वस्त्र पहन लिए; किन्तु ये दोनों वैसे ही खड़े रह गये। नारदजी को कष्ट हुआ। कैसा सुन्दर स्वरूप प्राप्त हुआ है, फिर भी ये उसका कैसा दुरुपयोग कर रहे हैं। मानव-देह श्रीकृष्ण की सेवा के लिए है। यह शरीर भगवान का है।

इस शरीर पर किसका अधिकार है? यह शरीर क्या पिता का है, माता का है, या माता को भी पैदा करने वाले नाना का है, या अपना स्वयं का है?

पिता कहते हैं कि ‘मेरे वीर्य से यह उत्पन्न हुआ है, इसलिए इस शरीर पर मेरा अधिकार है।’ मां कहती है कि ‘मेरे गर्भ से यह उत्पन्न हुआ है, इसलिए यह मेरा है।’ पत्नी कहती है कि ‘इसके लिए मैं अपने माता-पिता को छोड़कर आयी हूँ,  इससे मेरी शादी हुई है, मैं इसकी अर्धांगिनी हूँ, अतएव इस पर मेरा अधिकार है।’ अग्नि कहती है कि ‘यदि शरीर पर माता-पिता-पत्नी का अधिकार होता तो प्राण निकलने के बाद वे इसे घर में क्यों नहीं रखते? इस शरीर पर मेरा अधिकार होने के कारण श्मशान लाकर लोग इसे मुझे अर्पण करते हैं, इसलिए इस पर मेरा अधिकार है।’ सियार-कुत्ते कहते हैं कि ‘जहां अग्नि-संस्कार नहीं होता, वहां यह शरीर हमको खाने को मिल जाता है, इसलिए यह शरीर हमारा है।’

इस तरह सभी इस शरीर पर अपना-अपना अधिकार बताते हैं किन्तु भगवान कहते हैं कि ‘यह शरीर किसी का नहीं है। मैंने इसे जीव को अपना उद्धार करने के लिए दिया है। यह शरीर मेरा है।’ जीव जब अनेक योनियों में भटकते-भटकते थक जाता है, तब भगवान दया करके उसे मनुष्य-योनि देते हैं। जो पुरुष इस मानव शरीर को पाकर भी भगवान के चरणों का आश्रय नहीं लेता, वह अपने-आप को धोखा दे रहा है। श्रीरामचरितमानस में लिखा है–

आकर चारि लच्छ चौरासी।
जोनि भ्रमत यह जिव अविनासी।।

कबहुँक करि करुना नर देही।
देत ईस बिनु हेतु सनेही।।

यह शरीर एक साधारण-सी वस्तु है। प्रकृति से पैदा होता है और उसी में समा जाता है। इसलिए जो दुष्ट श्रीमद से अंधे हो रहे हैं, उनकी आंखों में ज्योति डालने के लिए दरिद्रता ही सबसे बड़ा अंजन है क्योंकि दरिद्र में घमंड और हेकड़ी नहीं होती, उसकी इन्द्रियां भी अधिक विषय नहीं भोगना चाहतीं। वह सब तरह के मदों से बचा रहता है। दैववश उसे जो कष्ट उठाना पड़ता है, वह उसके लिए एक बहुत बड़ी तपस्या होती है।

मदान्ध नलकूबर और मणिग्रीव के पतन पर देवर्षि को दया आ गयी। ‘ओह ! कहां तो ये लोकपाल के पुत्र और कहां इनकी यह दशा ! इतना अध:पतन !’ इन मदोन्मत्त और श्रीमद से अंधे हो रहे स्री-लम्पट यक्षों का अज्ञानजनित मद मैं चूर-चूर कर दूंगा। इनको इस बात का भी पता नहीं है कि ये बिल्कुल वस्त्रहीन हैं। इन पर अनुग्रह करके उन्होंने शाप दे दिया–’तुम दोनों धन, पद तथा शक्ति के मद में अंधे होकर वृक्ष से खड़े हो, अत: वृक्ष हो जाओ। वृक्षयोनि में जाने पर भी मेरी कृपा से इन्हें भगवान की स्मृति बनी रहेगी। देवताओं के सौ वर्ष के पश्चात् जब गोलोकबिहारी श्रीकृष्ण अवतार लेंगे, तब उनके चरणारविन्द का स्पर्श पाकर तुम्हारी वृक्षयोनि से और अज्ञान से भी मुक्ति होगी। तुम्हें पुन: देवशरीर और भगवद्भक्ति की प्राप्ति होगी।’

सुत राजराज ! नहिं कीन्ह लाज।
व्रजभूमि सोइ द्रुम होहु दोउ।।

करुना-सुऐन, सुख-संत दैन।
करिहै जु घात, तब होहु पात।।

प्रभु कौं निहारि, उर भक्ति धारि।
फिरि जाहु गेह, धरि दिव्य देह।।

मदान्ध को रास्ते पर लाने के लिए उन्हें निष्क्रिय बना देना ही एक उपाय है। मनुष्य को भोग इस प्रकार नहीं भोगने चाहिए कि शरीर रोगी हो जाय। भोग इन्द्रियों को रोगी करने के लिए नहीं हैं, अपितु इन्द्रियों को स्वस्थ रखने के लिए हैं। जो शक्ति व सम्पत्ति का दुरुपयोग करता है, वह दूसरे जन्म में वृक्ष बन जाता है। भगवान वृक्षों को सर्दी, गर्मी, बरसात सहने की तपश्चर्या कराते हैं।

शाप सुनकर नलकूबर और मणिग्रीव की बेहोशी दूर हो गयी। वे पश्चात्ताप से भरे हुए नारदजी की शरण में आए। तब उन्होंने कृपा करके उन्हें गोकुल में वृक्ष की योनि दी। ऐसा कहकर देवर्षि नारद भगवान नर-नारायण के आश्रम चले गये।

शाप देने के बाद देवर्षि नारद भगवान नर-नारायण के आश्रम क्यों गये, इसके भी कई कारण बताये गये हैं–नारदजी ने सोचा कि मैंने नलकूबर और मणिग्रीव को शाप देते समय कह तो दिया कि तुमको भगवान मिलेंगे किन्तु यदि कहीं भगवान न मिले तो क्या होगा? इसलिए चलो उनको मनायें। दूसरे, शाप और वरदान देने से पुण्य क्षीण हो जाते हैं अत: पुन: तपसंचय के लिये नारदजी भगवान नर-नारायण के आश्रम गये। तृतीय, नारदजी ने सोचा कि मैंने यक्षपुत्रों पर जो अनुग्रह (भगवान श्रीकृष्ण द्वारा वृक्षयोनि से मुक्ति) किया है, वह बिना तपस्या के पूर्ण नहीं हो सकता। चौथा कारण यह है कि अपने आराध्य नारायण को अपनी शाप देने की बात बताने को वे नर-नारायण आश्रम गये।

इधर नारदजी नारायणाश्रम पहुंचे और उधर नलकूबर और मणिग्रीव यमलार्जुन बने उस नंदमहल के प्रांगण के पार्श्व में खड़े हैं और अपनी शाखाओं व पत्तों को हिला-हिलाकर बड़ी आतुरता से श्रीकृष्ण का आह्वान कर रहे हैं। भगवान अपनी बात भले ही झूठी कर दें, लेकिन अपने भक्त की बात कभी झूठी नहीं करते। भगवान जैसा भक्तवत्सल और भक्त-परतन्त्र तो और कोई है ही नहीं। वे स्वयं कहते हैं–’अहं भक्तपराधीन:।’

देवर्षि नारद का शाप–शाप था या आशीर्वाद?

संतों का शाप या क्रोध सदैव आशीर्वादस्वरूप होता है, पता नहीं क्यों इसे शाप कहा जाता है। नलकूबर और मणिग्रीव को गोकुल में वृक्षों का जन्म मिला और भगवान का सांनिध्य। जिस भूमि में ब्रह्माजी कोई तृण होने का वरदान चाहते हैं, उद्धव जैसे भक्त वृन्दावन में श्रीकृष्ण का सांनिध्य प्राप्त करने के लिए लतावल्लरी, पेड़-पौधे, औषधि या जड़ी-बूटी बनने की याचना करते हैं ताकि व्रजांगनाओं की चरणधूलि निरन्तर सेवन करने के लिए मिलती रहेगी। इसलिए वहां का वृक्ष बनने का शाप क्यों शाप है?  वह तो आज आशीर्वाद में बदल गया। उनकी तपस्या अब पूरी हो गयी। आज श्रीकृष्ण को देवर्षि नारद की वाणी सत्य करनी हैं और ये दोनों भी भगवान के प्रिय भक्त कुबेर के पुत्र हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने सोचा–’देवर्षि नारद मेरे प्रियतम भक्त हैं। उन्होंने जिस प्रकार इन वृक्ष बने हुए कुबेरपुत्रों के उद्धार की बात अपने मुख से कह दी है, ठीक उसी प्रकार मैं इनका उद्धार करूंगा, इन्हें वृक्षयोनि से मुक्त कर पुन: देव शरीर देकर अपनी भक्ति भी दे दूंगा।’

इधर श्रीकृष्ण के सखाओं की दशा भी बड़ी विचित्र हो रही थी। वे अपने प्रिय सखा को माता के बन्धन से मुक्त करने के लिए अत्यन्त व्याकुल थे। वे बार-बार जाकर देखते कि माता क्या कर रही है, फिर वे अपने मित्र का बंधन खोलने में लग जाते। पर गांठ खुलना तो दूर, उनसे गांठ हिली तक नहीं। वे नहीं जानते कि माता ने गांठ लगाते समय अपने हृदय के अनन्त वात्सल्य की सारी स्निग्धता उसमें भर दी है। इसीलिए माता के द्वारा लगायी गयी यह गांठ कोई खोलने में समर्थ नहीं है।  संसार के समस्त प्राणियों का भवबंधन संकल्पमात्र से खोल देने की सामर्थ्य रखने वाले श्रीकृष्ण में आज वह शक्ति नहीं कि वे यशोदामाता द्वारा लगाये गये बंधन को खोल सकें। सखामण्डली उदास होकर श्रीकृष्ण के मुखचन्द्र की ओर देखने लगती है।

भगवान श्रीकृष्ण बंधन में बंधकर उन कुबेरपुत्रों के उद्धार के लिए आ पहुंचे। उनकी गाड़ीलीला अब पूरी हो गयी और मोक्षलीला प्रारम्भ हो गयी। वे वृक्षों की ओर ऊखल खींचते चले जा रहे हैं और उन अर्जुन वृक्षों के पास जा पहुंचते हैं। श्रीकृष्ण को निकट आया देखकर उन यमलार्जुन की क्या दशा हुई, इसे कौन बता सकता है? वृक्षों में भी संवेदन-शक्ति होती है फिर इन्हें तो पूर्व के देवजीवन से लेकर अब तक की समस्त स्मृति है। सौ देव-वर्षों की लम्बी प्रतीक्षा के बाद अपने उद्धार का क्षण उपस्थित देखकर और स्वयं भगवान श्रीकृष्ण को अपने इतने निकट पाकर उनके हृदय में क्या-क्या भाव उमड़ रहे थे–इसे वे ही जानते हैं अथवा अन्तर्यामी श्रीकृष्ण ही जानते है। अखण्ड ब्रह्माण्डनायक भगवान श्रीकृष्ण को दामोदर बने देखकर वह यमलार्जुन अपनी शाखाओं व पत्रों सहित चंचल हो उठे और जोर-जोर से हिलकर नाचने लगे।

भगवान दामोदर ने सोचा–अब बिलम्ब का समय नहीं है, कहीं यशोदामाता न आ जाएं और वे दोनों वृक्षों के बीच में घुस गये। वृक्षों के बीच में जाने का आशय है कि भगवान जिसके अन्तर्देश में प्रवेश करते हैं उसके जीवन में क्लेश, जड़ता नहीं रहती। दोनों वृक्षों के बीच से श्रीकृष्ण तो निकल गये, किन्तु ऊखल तिरछा होकर अटक गया। (ऊखल तो खल था ही, खल का स्वभाव ही है टेढ़ा होना। परन्तु उसमें एक गुण यह है कि वह भगवान के साथ एक गुण (रस्सी) से बंध गया था और भगवान के पीछे-पीछे जा रहा था इसलिए उसमें भी यमलार्जुन जैसे जड़ वृक्षों और दुष्टों का उद्धार करने का सामर्थ्य आ जाता है।)

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दामोदर श्रीकृष्ण अपनी कटि से बंधे ऊखल को तनिक अपनी ओर खींच लेते हैं। बस, अब जो खींचा उन सर्वेश्वर ने तो दोनों वृक्षों की पृथ्वी में धंसी जड़ें उखड़ गयीं और पेड़ों के तने, शाखाएं, छोटी-छोटी डालियां और एक-एक पत्ता कांप उठा। देखते-ही-देखते वे बड़ा भारी शब्द करते हुए भूमि पर गिर पड़े। वे विशालकाय वृक्ष इस तरह गिरे कि न तो किसी गोपबालक को, न ही किसी गो-गोवत्स को और न ही नन्दमहल के किसी भाग को कोई क्षति पहुंची। किन्तु इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं; क्योंकि अब तो ये यमलार्जुन श्रीकृष्ण के चरणारविन्द का स्पर्श होने से उनके निजजन बन गये हैं, उनमें भक्तों के समस्त गुणों का समावेश हो गया है; अत: यह सम्भव नहीं कि वे अपने किसी कार्य से किसी को जरा-सा भी कष्ट दें। जहां वे वृक्ष थे वहां एक परम उज्जवल ज्योति चमक उठी और दो तेजोमय दिव्य वस्त्र एवं आभूषणों से भूषित सिद्धपुरुष वृक्षों से निकले–ठीक उसी तरह जैसे काष्ठ से अग्नि प्रकट हुई हो। ये दोनों और कोई नहीं बल्कि नलकूबर और मणिग्रीव हैं। उन दोनों ने दामोदर श्रीकृष्ण की परिक्रमा करके उनके पैर छुए।

निकसे उभय पुरुष दोउ बीर, पहिरें अद्भुत भूषन चीर।
जैसें दारू मध्य तैं आगि, निर्मल जोति उठति है जागि।
नंद-सुवन के पाइन परे, अंजुलि जोरि स्तुति अनुसरे।

उन्होंने निर्मल मन से हाथ जोड़कर ऊखल से रस्सी में बंधे पुराणपुरुष दामोदर की स्तुति की–

करुणानिधये तुभ्यं जगन्मंगलशीलिने।
दामोदराय कृष्णाय गोविन्दाय नमो नम:।। (गर्गसंहिता, गोलोकखण्ड)

‘प्रभो ! अाप करुणा की निधि हैं। जगत का मंगल करना आपका स्वभाव है। आप ‘दामोदर’, ‘कृष्ण’ और ‘गोविन्द’ को हमारा बारम्बार नमस्कार है।’

‘प्रभो! आप समस्त लोकों के अभ्युदय के लिए अपनी समस्त शक्तियों के साथ अवतरित हुए हैं। आप समस्त अभिलाषाओं को पूर्ण करने वाले हैं। हम आपके दासानुदास हैं, हमारी प्रार्थना स्वीकार कीजिए। हमारी वाणी आपके मंगलमय गुणों का गान करती रहे। हमारे कान आपकी रसमयी कथा में लगे रहें, हमारे हाथ आपकी सेवा में और मन आपके चरणकमलों में रम जाये। हमारा मस्तक सबके सामने झुका रहे। संत आपके प्रत्यक्ष शरीर हैं, हमारी आंखें उनके दर्शन करती रहें।’

हे करुनानिधि ! करुना कीजै, अपनी भाउ-भगति-रति दीजै।
बानी तुमरे गुन-गन गनै, श्रवन परम पावन जस सुनै।
ये कर अवर कर्म जिमि करैं, प्रभु की परिचर्या अनुसरैं।
मन-अलि चरन-कमल-रस रसौ, चित्र कमल-जग भूलि न बसौ।
हे जगदीस ! जसोदा-नंदन, सीस रहौ नित तुव-पद-बंदन।
तुमरी मूरति भक्त तुम्हारे, नित ही निरखहूँ नैन हमारे।।

इस प्रकार नलकूबर और मणिग्रीव ने प्रत्येक इन्द्रिय के लिए भक्तिरस की याचना की। तब भगवान ने हंसते हुए कहा–’मैं मुक्त रहता हूं तब बंधन में बंधा जीव मेरी स्तुति करता है, परन्तु आज विपरीत स्थिति है। मैं बंधन में बंधा हूं और मुक्त जीव मेरी स्तुति कर रहे हैं। तुम लोगों को संसारचक्र से छुड़ाने वाली मेरी अनन्य भक्ति प्राप्त हो चुकी है। वृक्षयोनि तो तुम्हें मेरी परमाभक्ति की प्राप्ति करा देने के लिए प्राप्त हुई थी, बन्धन के लिए नहीं। मुक्ति तो तुम्हें उस दिन ही मिल चुकी थी, जिस दिन तुम्हें देवर्षि नारद के दर्शन हुए। अत: अब तुम लोग अपने-अपने घर जाओ।’ कुबेरपुत्रों ने ऊखल को आशीर्वाद देते हुए कहा–’ऊखल ! तुम सदा श्रीकृष्ण के गुणों से बंधे रहो।’ फिर ऊखल में बंधे भगवान श्रीकृष्ण की प्रदक्षिणा कर और उनको अपने हृदय में संजोये हुए भगवान श्रीकृष्ण से कहा–’तुम सदा गुणशाली रहना। निर्गुण कभी मत हो जाना क्योंकि गुण तुमसे बंधा रहेगा, रस्सी तुमसे बंधी रहेगी तो हमारे जैसों का उद्धार होता रहेगा।’

इतना कहकर वे उत्तर दिशा की ओर चले गये। देवर्षि नारद के प्रति उनके मन में असीम कृतज्ञता उमड़ आयी क्योंकि उनकी कृपा से ही वे आज ब्रह्माण्डनायक को इस अभिनव शिशुवेश में देख पा रहे है और उनका रोम-रोम व्रज के कण-कण को धन्य-धन्य कह रहा था–

धन्य-धन्य ऋषि-साप हमारे।
आदि अनादि निगम नहिं जानत, ते हरि प्रगट देह ब्रज धारे।।

धन्य नंद, धनि मातु जसोदा, धनि आँगन खेलत भय बारे।
धन्य स्याम, धनि दाम बँधाए, धनि ऊखल, धनि माखन-प्यारे।।

दीन-बंधु करुना-निधि हौ प्रभु, राखि लेहु, हम सरन तिहारे।
सूर स्याम के चरन सीस धरि, अस्तुति करि निज धाम सिधारे।।

कुछ संतों के अनुसार–भगवान की योगमाया ने सोचा कि जबतक नलकूबर और मणिग्रीव का उद्धार नहीं हो जायेगा और वे अपने लोक नहीं चले जायेंगे तब तक वृक्ष टूटने की ध्वनि को अवरुद्ध कर देना चाहिए। अन्यथा यह ध्वनि यदि गोकुल में पहुंच गयी और गोप-गोपियां आ गये तो नारदजी का अनुग्रह अधूरा रह जायेगा। इसलिए योगमाया ने वृक्ष टूटने की ध्वनि को तब तक गोकुल में नहीं पहुंचने दिया जब तक नलकूबर और मणिग्रीव का उद्धार नहीं हो गया। नलकूबर और मणिग्रीव के आकाश में चले जाने पर जब गोप-गोपियों ने वृक्षों के गिरने का शब्द सुना तो दौड़े। ‘इतने बड़े-बड़े वृक्ष गिरे कैसे?’ न आंधी आयी थी, न बिजली गिरी थी और न वृक्षों की जड़ें खोखली ही हुई थीं। चारों ओर घूम-घूमकर सबने देखा। वहां जो छोटे गोपबालक थे, उन्होंने कहा–’ऊखल टेढ़ा करके वृक्षों को इस कन्हैया ने ही गिराया है। इन वृक्षों से ही दो चमकते पुरुषों को भी निकलते हमने देखा है। यह नन्दनन्दन उनसे न जाने क्या कह रहा था।’ लेकिन किसी ने विश्वास नहीं किया। कुछ को संदेह अवश्य हुआ, पर निश्चय यही हुआ कि यह कोई भारी उत्पात था। नारायण ने ही बच्चे की रक्षा की है। गोपियां कहती हैं–’यह बालक कितना भाग्यशाली है! अनेक राक्षस आए, किन्तु कोई भी इसका बाल-बांका न कर सका। भगवान की कैसी कृपा है।’  नन्दबाबा ने रस्सी से बंधे ऊखल घसीटते अपने लाला को हंसकर खोल दिया और गोद में उठाकर सूंघने लगे। फिर पेड़ से बचने की खुशी में नाचने लगे। नन्दजी ने यशोदाजी को बहुत उलाहना दिया और ब्राह्मणों को सौ गायें दान में दीं।

इस कथा-प्रसंग का यही सार है कि कितनी भी सम्पत्ति और शक्ति हो, बिना भक्ति के सब अधूरा है, रसहीन है।

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