ब्रजवासी बल्लभ सदा मेरे जीवन प्रान।
इन्हें न कबहूँ बिसारिहौं मोहि नंदबाबा की आन।।

व्रज के कण-कण में व्याप्त श्रीकृष्ण

व्रज वह दिव्यभूमि है जिसकी गोद में परब्रह्म सगुण-साकार रूप में व्यक्त हुआ। ‘व्रज’ जिसके दो अक्षरों में छिपा है–कन्हैया का शैशव, बिहारी का विहार, गोपीनाथ की लीलाएं और रसिक रंगीले का रास-रंग। व्रज के कण-कण में कृष्ण व्याप्त हैं। जड-चैतन्य–चाहे वह गिरिगोवर्धन हो, कृष्णप्रिया यमुना हो, कदम्ब के पेड़, करील की कुंजें, यमुना पुलिन व व्रजरज–सभी में श्रीकृष्ण प्रेम उमड़ता दिखायी देता है। यहां के पत्ते-पत्ते से श्रीराधा-कृष्ण का निर्मल प्रेम व रसिक भक्तों की भक्ति का मकरन्द बहता रहता है। इस व्रज में भगवान श्रीकृष्ण ने ऐश्वर्य और माधुर्यपूर्ण अनेक लीलाएं कीं। तभी तो श्रीकृष्ण मथुरा व द्वारका में भी व्रज को नहीं भूलते और अपने सखा उद्धव से कहते हैं–

ऊधो मोहिं ब्रज बिसरत नाहीं।
बृंदाबन-गोकुल-सुधि आवति, सघन तृननि की छाँहीं।।
सुन ऊधौ! मोहि नैक न बिसरत वे ब्रजबासी लोग।
हम उनकों कछु भली न कीनी, निस-दिन दियौ बियोग।।
जदपि यहाँ बसुदेव-देवकी, सकल राजसुख-भोग।
तद्यपि मनहिं बसत बंसीबट, ब्रज जमुना-संयोग।।
वे उत रहत प्रेम-अवलंबन, इतते पठयो जोग।
‘सूर’ उसाँस छांड़ि, भरि लोचन, बढ़ो बिरह-जुर-सोग।।

भगवान श्रीकृष्ण को केवल प्रेम ही प्रिय

श्रीकृष्ण मथुरा के राजा हैं। प्रिय सखा श्रीउद्धवजी की निजसेवा है। उद्धव भक्तों में श्रेष्ठ और श्रीकृष्ण के अति प्रिय हैं। मथुरा में सर्वत्र ऐश्वर्य है। अनेक दास-दासियां हैं, छप्पन-भोग हैं; सब प्रकार का सुख है। परन्तु परमात्मा प्रेमाधीन हैं। वे प्रेम के अतिरिक्त अन्य साधनों से न रीझते हैं और न ही रह पाते हैं। श्रीकृष्ण व्रजवासियों का प्रेम भूल नहीं पाए हैं। नंदनन्दन अपने हृदय में व्रज के लिए कितना गम्भीर प्रेम, कितनी विरह वेदना छिपाये हुए मथुरा में निवास करते हैं, व्रज के लिए श्रीकृष्ण की तड़पन और श्रीकृष्ण के लिए व्रजवासियों की तड़पन–इन्हीं भावों का चित्रण इस ब्लॉग में किया गया है।

ब्रज की सुरत मोहिं बहु आवै।
जसुमति मैया कर-कमलन की माखन-रोटी भावै।।
बूढ़े बाबा नंद मोहि लै ललराते निज गोद।
हौं चढ़ि तौंद नाचतौ, तब वे भरि जाते अति मोद।।
बालपने के सखा ग्वाल-बालक सब भोरे-भारे।
सब तजि जिन मोहि कहँ सुख दीन्हौं, कैसे जायँ बिसारे।।
ब्रज-जुबतिन की प्रीति-रीति की कहौं कहा मैं बात।
लोक-बेद की तज मरजादा, मो हित नित ललचात।।
मेरे नयननि की पुतरी वे जीवन की आधार।
सुधि आवत ही प्रिय गोपिन की, बही नयन जल-धार।।
आराधिका नित्य आराध्या राधा को लै नाम।
चुप रहि गए, बोल नहिं पाए, परे धरनि, हिय थाम।।(भाई हनुमानप्रसादजी पोद्दार)

व्रज की स्मृतियों से विह्वल श्रीकृष्ण

कई दिन बीत गए पर मथुराधीश श्रीकृष्ण ने भोजन नहीं किया। संध्या होते ही महल की अटारी (झरोखे) पर बैठकर गोकुल का स्मरण करते हैं। वृन्दावन की ओर टकटकी लगाकर प्रेमाश्रु बहा रहे हैं। कन्हैया के प्रिय सखा उद्धवजी से रहा नहीं गया। उन्होंने कन्हैया से कहा–’मैंने आपको मथुरा में कभी आनन्दित होते नहीं देखा। मैं अपने हरसम्भव प्रयास से आपकी सेवा करता हूँ। दास-दासियां हैं। आप मथुराधीश हैं। सभी आपका सम्मान करते हैं, आपको वन्दन करते हैं। छप्पन प्रकार के भोग समर्पित करते हैं, फिर भी आप भोजन ग्रहण नहीं करते। आप दु:खी व उदास रहते हैं। आपका यह दु:ख मुझसे देखा नहीं जाता।’

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श्रीकृष्ण ने कहा–’उद्धव मैं दु:खी हूँ क्योंकि मैं वृन्दावन की उस प्रेमभूमि को छोड़कर आया हूँ, जहां मेरा हृदय बसता है। मथुरा में सब मुझे मथुरानाथ तो कहते हैं पर ‘लाला’, ‘नीलमणि’, ‘कनुआ’, ‘कन्हैया’ कहकर प्रेम से गोद में कोई नहीं बिठाता। मथुरा में सभी मुझे वन्दन करते हैं, सम्मान देते हैं, पर कोई मेरे साथ बात नहीं करता, तुम्हारे सिवाय यह पूछने वाला कोई नहीं है कि मैं दु:खी क्यों हूँ?’

‘गोकुल छोड़ मथुरा आने पर मेरा खाना छूट गया है। मथुरा में मेरे लिए छप्पन-भोग तो बनता है पर दरवाजा बन्द कर कहते हैं–भोजन अरोगिए। मैं ऐसे नहीं खाता। मुझे कोई प्रेम से न मनाये, मनुहार न करे तब तक मैं खाता नहीं हूँ। हजार बार मनुहार करने पर मैं एक ग्रास खाता हूँ। व्रज में मां यशोदा मुझे हजार बार मनाती और तब खिलाती थी। मां यशोदा का प्रेम मुझे मथुरा में मिलता नहीं। मैं न खाऊं तब तक मेरी मां खाती नहीं। मथुरा में मैं छप्पन-भोग केवल निहारता हूँ, खाता नहीं हूँ। यह कृष्ण भोग का नहीं, प्रेम का भूखा है। इसीलिए मैं दु:खी रहता हूँ। मुझसे व्रज भूलता नहीं।’

ऊधो मोहिं ब्रज बिसरत नाहीं

जो भगवान के लिए तड़पता है, भगवान भी उसके लिए तड़पते हैं। भगवान श्रीकृष्ण मथुरा के राजमहल में  व्रज के चिन्तन में लीन हैं–मेरे पिता नन्दराज बड़े दयालु हैं उनका मन मुझमें ही लगा रहता है। मेरे बिना वे खेद और विषाद में डूबे रहते हैं। मेरी मां आंगन में बैठकर मेरी प्रतीक्षा करती होगी। मथुरा से आने वाले रास्ते पर टकटकी लगाकर मेरी राह देखकर रोती होगी। मेरी यशोदामाता शीघ्र ही अपने पास बुलाने के लिए मेरा स्मरण करती होगी। मैंने उनसे कहा था–

मैया तू उदास मत होना।।
चार दिना रहि मथुरा आहों, तू पलभर मत रोना।
यह गिरिराज नंदवन बृजवन, मोसों तजे न जावें।।
बालसखा गौ पंख पखेरु, सब मिलकर दुहरावें।
कितनो मोह बँध्यो इन सबसों, जानत तुम्हीं कहो ना।।
मेरो स्वाद माई तू जाने, नीर क्षीर कहँ पैहों।
माखन मिश्री उत कहँ मिलिहै, मैं भूखो सो जैहों।।
तोरे अश्रु अमोलक मोती, ये मोती मत खोना।
मैया तू उदास मत होना।। (डॉ. बी. पी. दुबे)

अपनी गायों को याद करके श्रीकृष्ण कहते हैं–’मेरी गंगी गाय और अन्य गायों का क्या हाल होगा? वे मथुरा की ओर मुंह करके रँभाती होंगी।’ व्रज के सखा ग्वाल-बाल, गोपांगनाओं, गहवर वन के सघन वन और करील की कुंजों को याद कर श्रीकृष्ण की आंखें भर आतीं। रोज शाम का यही क्रम। मन में दबी हुई व्रज की स्मृति की चिनगारियां फिर भड़क उठती हैं। श्रीकृष्ण अधीर हो उठते हैं–

ग्वालन के संग जैबौ, वन ऐबौ औ चरैबौ गाय,
हेरि तान गैबौ, सोचि नैन फरकत हैं।
ह्यांके गजमोति-माल, वारौं गुंजमालन पै,
कुंज-सुधि आवै, हाय! प्रान धरकत हैं।।
गोबर की गारौ लगै सु तौ मोहि प्यारौ,
नाहिं भावैं महल, जे जटित मरकत हैं।
मंदिर ते ऊंचे, यह मंदिर हैं द्वारिका के,
ब्रज के खिरक मेरे हिये खरकत हैं।।

ग्वालबालों और सुन्दर गायों के संग वन में जाना, वहां तान भरकर गायन करना–इन सबकी स्मृति होते ही मेरी आंखें चंचल हो उठती हैं। व्रज की गुंजामालाओं पर मैं मथुरा के गजमुक्ताओं की मालाओं को न्यौछावर करता हूँ। वहां के कुंजों की याद आने पर मेरे प्राण फड़फड़ाने लगते हैं। रत्नजटित सोने के महलों की जगह गोबर से लिपी-पुती मिट्टी की कुटिया मुझे प्यारी लगती है। इन बड़े-बड़े महलों से भी श्रेष्ठ मुझे व्रज की गायों के लिए बने खिरक (बाड़े) लगते हैं।

जिसके पास जैसा भाव है, उसके लिए भगवान भी वैसे ही हैं। भाव के भूखे भगवान को ऊपर का ढोंग नहीं सुहाता। इधर भगवान अपने बालसखाओं के सानिध्य के लिए व्याकुल हैं और उधर ग्वालबालों की दशा कृष्णवियोग में मरणतुल्य हो गयी है।

श्रीकृष्ण विरह में ग्वालबालों की दशा

श्रीकृष्ण के मथुरागमन के पश्चात् उनके वियोग में ग्वालबालों की दशा अत्यन्त दयनीय है। उनके शरीर दुर्बल हो गए हैं, आँखों में आंसू भरे रहने के कारण नींद नहीं आती, उनका मन और चित्त आलम्बनहीन होकर विचारशून्य व जड़ हो गया है। अपने-आप को भूलकर अपने प्रिय सखा की यादों में खोये वे कभी पृथ्वी पर लोटने लगते हैं, कभी दौड़ते हैं तो कभी अपने-आप से ही न जाने क्या बातें किया करते हैं। एक-एक पल छटपटाहट की उच्चतम सीमा तक पहुंच गया है। सांसों में अकुलाहट समा गई है और उनकी प्रतीक्षा दु:सह हो गई है।

गोपियों के प्राण श्रीकृष्ण और श्रीकृष्ण के प्राण गोपियां

श्रीकृष्ण जब द्वारकाधीश बन गए तब भी वह व्रज को नहीं भूले। श्रीकृष्ण ने व्रजगोपियों और ग्वाल-बालों के साथ अनेक लीलाएं की थीं, उन अमृत क्षणों को वे कैसे भूल सकते हैं। द्वारका में जब श्रीराधा और गोपियों की बात चलती तो श्रीकृष्ण को रोमांच हो आता, आंसू बहने लगते, वाणी गद्गद् हो जाती, कुछ बोल नहीं पाते।

औचक चौंकि उठे हरि बिलखत।
‘हा राधा प्रानेस्वरि! इकलौ छांड़ि मोहि भाजी कित।।
ललिता! अरी बिसाखा! धावौ, रंगमंजरी! धावौ।
मेरी प्रानाधिका राधिका कौं झट लाय मिलावौ’।।
लंबे सांस लेहिं, प्रलपहिं, बिलपहिं, दृग आंसू ढारैं।
रुकमिनि सहमि बहुत समुझावति, तदपि न होस संभारैं।। (भाई हनुमानप्रसादजी पोद्दार)

श्रीकृष्ण की ऐसी दशा देखकर पटरानियों, राजमहिषियों ने आश्चर्यप्रकट किया। मन में बड़ा संदेह करने लगीं–’ऐसा क्या हो गया–ऐसी क्या त्रुटि हममें और ऐसा क्या गुण उन व्रजांगनाओं में। राजराजेश्वर–सब प्रकार के सुखों से सम्पन्न–सभी प्रकार के आराम, क्या कमी है यहां! क्या नहीं है यहां जो वहां था?’

भगवान श्रीकृष्ण उद्धवजी से कहते है–’‘मेरी प्राणवल्लभा श्रीराधा और गोपांगनाएं मेरे वियोग की व्यथा से व्याकुल हैं। उनके मन-प्राण मुझमें ही स्थित हैं, मैं ही उनकी आत्मा हूँ। वे निरन्तर मुझमें ही तन्मय रहती हैं। मेरे लिए उन्होंने अपने लोक-परलोक सब त्याग दिए हैं।’

यह है व्रज का प्रेम, जिसके बन्धन से भगवान कभी छूटना नहीं चाहते। तभी तो भगवान की प्रतिज्ञा को इस प्रकार कहा गया है–’वृंदावनं परित्यज्य पादमेकं न गच्छति।’ (व्रज को छोड़कर एक पग जाना भी मेरे लिए सम्भव नहीं है।) व्रज में आज भी किसी-न-किसी रूप में श्रीकृष्ण का अस्तित्व है।

मां बेटे का लाड़-अनुराग, प्यार-मनुहार

केवल कृष्ण ही व्रज की याद नहीं करते, व्रजवासी भी उनके विरह से व्याकुल हैं। कृष्ण अब मथुरावासी हो गए हैं और देवकीनन्दन बन गए हैं। यशोदाजी को पता चल गया कि वे नहीं, वरन् देवकीजी उनके कन्हैया की जन्मदात्री हैं। यशोदा ने दिल पर पत्थर रख लिया है। परन्तु मां की ममता इसे स्वीकारने के लिए तैयार नहीं। सूरदासजी ने पुत्र-वियोग की व्याकुलता का बड़ा मार्मिक वर्णन किया है–यशोदाजी देवकीजी से सन्देश में कहती हैं कि ठीक है कि वे उनके बेटे की दाई मां रही हैं फिर भी वह कृष्ण का ठीक से ख्याल रखें।

संदेसौ देवकी सौं कहियौ।
हौं तो धाइ तिहारे सुत की, मया करत ही रहियौ।।

उबटन, तेल, गरम जल आदि देखकर भाग जाने वाले कान्हा को मनुहारकर स्नान कराना पड़ता है और सुबह-सुबह ही ताजा माखन-रोटी खिलानी है। उन्हें संदेह हुआ कि लाड़-प्यार में पला उनका मोहन देवकी मां से कुछ कहने-मांगने में संकोच करता होगा। यही कल्पना उन्हें दिन-रात व्यथित किए रहती है।

प्रात होत मेरे लाड़ लड़ैतैं को, माखन-रोटी भावै।।
तेल उबटनौ अरु तातौ जल, ताहि देखि भजि जावै।
जोइ-जोइ मांगत सोइ-सोइ देती क्रम-क्रम करिकैं न्हावै।।
सूर पथिक सुनि मौहिं रैन दिन बढ्यो रहत उर सोच।
मेरो अलक लडैतो मोहन ह्वै है करत सकोच।।

नन्दबाबा का अनुपम श्रीकृष्णप्रेम

नन्दबाबा जब कन्हैया को मथुरा पहुंचाकर वापिस व्रज में आए तो यशोदाजी से उनसे पूछा कि आप जीवित ही आ गए। नन्दबाबा ने कहा–’मेरे प्राण निकलने ही वाले थे कि इतने में ही कन्हैया मेरी गोद में आकर बैठ गया और कहने लगा–’बाबा! मैं फिर व्रज आऊंगा। मेरे लिए माखन-मिश्री तैयार रखना।’

तब मैंने सोचा–‘यदि कन्हैया कभी व्रज में आया और यह सुना कि बाबा संसार छोड़कर चले गए हैं तो उसको कितना दु:ख होगा। अत: उसे जरा भी दु:ख न हो, मुझे चाहे जीवनभर क्यों न रोना पड़े, इसलिए मैंने अपने प्राणों को जाने नहीं दिया।’

धन्य है व्रज, जिसने परमात्मा श्रीकृष्ण का सांनिध्य पाया। वाह रे व्रज के भाग्य! जिसके लिए स्वयं परमब्रह्म परमात्मा आंसू बहाएं, उसकी महत्ता का वर्णन कौन कर सकता है?

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