श्री नाथ जी

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बंदौं हरि-पद पंकज पावन।
विधि हर-सुर-रिषि-मुनिजन-बंदित, सुमिरत सब अघ-ओघ-नसावन।।

जे पद-पद्म-पराग परसि पुनि गोतम-तिय भइ भावनि भामिनि।
जे पद-पद्म-पराग परसि सुरसरि-जल अघ धोवत दिन-जामिनी।।

जे पद-पद्म भूमि-लक्ष्मी-उर-मंदिर सुचि नित रहत बिराजित।
जे पद-पद्म प्रेम-रस-पूरित ब्रज-जुबतिन-उरोज रह राजित।।

जे पद-पद्म भक्त-संतनि के हियँ अति सुख सौं बसत निरंतर।
जे पद-पद्म बसहु लोलुप के धन-जिमि नित मेरे उर-अंतर।। (पद रत्नाकर)

अर्थात्–मैं भगवान के परम पवित्र चरण-कमलों की वंदना करता हूँ जिनकी ब्रह्मा, शिव, देव, ऋषि, मुनि आदि वंदना करते रहते हैं और जिनका ध्यान करने मात्र से सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। जिन चरण-कमलों के स्पर्श मात्र से गौतमऋषि की पत्नी अहिल्या पत्थर की शिला से सुन्दर स्त्री बन गई। जिन चरण-कमलों से निकली गंगा का जल (गंगाजी विष्णुजी के पैर के अँगूठे से निकली हैं अत: उन्हें विष्णुपदी भी कहते हैं) दिन-रात लोगों के पापों को धोता रहता है। ये चरण-कमल भूदेवी (भूमि) और श्रीदेवी (लक्ष्मी) के हृदय-मंदिर में हमेशा विराजित हैं। ये चरण-कमल सदैव प्रेम-रस से परिपूरित गोपांगनाओं के वक्ष:स्थल में बसते हैं। भक्तों और संतों के हृदय में बसकर ये चरण-कमल सदैव उनको सुख प्रदान करते हैं। जिस प्रकार धनलोलुप मनुष्य के मन में सदैव धन बसता है वैसे ही हे प्रभु ! मेरे मन में सदैव आपके चरण-कमल का वास हो।

भगवान के चरण-चिह्नों का परिचय

पद्मपुराण के अनुसार–भगवान के चरणों में कमल, वज्र, अंकुश, चक्र, गदा, यव तथा ध्वजा आदि के चिह्न अंकित हैं। भगवान अपने दाहिने पैर के अँगूठे की जड़ में भक्तों को संसार-बंधन से मुक्त करने के लिए चक्र का चिह्न धारण करते हैं। मध्यमा अँगुली के मध्यभाग में भगवान श्रीकृष्ण ने अत्यन्त सुन्दर कमल का चिह्न धारण कर रखा है; उसका उद्देश्य है–ध्यान करने वाले भक्तों के चित्तरूपी भ्रमर को लुभाना। कमल के नीचे वे ध्वज का चिह्न धारण करते हैं, जो मानो समस्त अनर्थों को परास्त करके फहराने वाली ध्वजा है। कनिष्ठिका अँगुली की जड़ में वज्र का चिह्न है, जो भक्तों की पापराशि को विदीर्ण करने वाला है। पैरों के पार्श्व-भाग में बीच की ओर अंकुश का चिह्न है, जो भक्तों के चित्तरूपी हाथी का दमन करने वाला है। भगवान श्रीकृष्ण अपने अंगूठे के पर्व में भोग-सम्पत्ति के प्रतीक रूप यव (जौ) का चिह्न धारण करते हैं तथा मूल-भाग में गदा की रेखा है, जो मनुष्यों के पापरूपी पर्वत को चूर्ण कर देने वाली है। इतना ही नहीं वे अजन्मा भगवान सम्पूर्ण विद्याओं को प्रकाशित करने के लिए पद्म आदि चिह्नों को भी धारण करते हैं। दाहिने पैर में जो चिह्न हैं, उन्हीं चिह्नों को प्रभु अपने बाये पैर में भी धारण करते हैं। भगवान श्रीकृष्ण के चरण-कमलों का ध्यान सदैव करते रहना चाहिए।

पुष्टिमार्ग के आराध्य श्रीनाथजी के चरण-कमल

पुष्टिमार्ग के प्रवर्तक श्रीमद्वल्लभाचार्यजी ने आज्ञा की है कि मन की चंचलता का विनाश भगवद्चरणारविन्दों के सेवन से ही संभव है। जो ठाकुरजी की सेवा प्रेमपूर्वक करते हैं उनके मन की चंचलता मिट जाती है और पापों का क्षय होता है। भगवान के चरण-कमलों के प्रताप से ही उनके सेवकों का मन भटकता नहीं है। ब्रह्मादिदेव जिनके चरणारविंद में सदा प्रणाम करते हैं और चरणरज की कामना करते हैं ऐसे श्रीनाथजी के चरण-कमल भक्तों के मनोरथ पूर्ण करते हैं।

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श्रीहरिरायजी (महाप्रभुजी) इन चरण-चिह्नों का भाव इस प्रकार समझाते हैं–

श्रीनाथजी का दायां चरण–श्रीनाथजी के दायें चरण में ध्वज, अंकुश, कमल, वज्र, स्वस्तिक, अष्टकोण, जव, ऊर्ध्वरेखा व कलश का चिह्न है। इन चिह्नों का भाव इस प्रकार है–

ध्वज : ध्वजाजी की जो शरण में आते हैं उन्हें अभयदान प्राप्त होता है।
अंकुश : भक्तों के मन के वशीकरण हेतु ही अंकुश आकार की रेखा भगवान के चरणारविन्द में है।
कमल : कमल का चिंतन करने से हृदय शुद्ध और सात्विक होता है। मन में सेवाभाव प्रकट होता है। आधिभौतिक, आध्यात्मिक और आधिदैविक–तीनों तरह के तापों का निवारण होता है।
वज्र : भक्तों के पाप और दु:ख नष्ट करता है।
स्वस्तिक : भगवान भक्तों के दु:ख दूर कर शुभ फल प्रदान करते हैं।
अष्टकोण : भगवान शरणागत भक्तों को अष्टसिद्धि और संपत्ति प्रदान करते हैं।
जव (जौ, यव) :  जव अन्न का राजा है। जो भगवान की शरण में आता है उसे कभी अन्न की कमी नहीं रहती है। जौ (यव) का ध्यान करने से कीर्ति बढ़ती है।
ऊर्ध्वरेखा : भगवान हमेशा भक्तों का विकास करते हैं, वह कभी पराजित नहीं होता।
कलश : कलश के ध्यान से भक्त का हृदय सदैव भक्तिरस से भरा रहता है।

श्रीनाथजी का बायां चरण–श्रीनाथजी के बायें चरण में अंकित चिह्न हैं–
गोपद : गोमाता में सारे तीर्थ निवास करते हैं, इसलिए श्रीनाथजी के चरणों की शरण में आने वाले को सभी तीर्थों का फल प्राप्त होता है।
जांबु : इस चिह्न का ध्यान अलौकिक और लौकिक संपत्ति देता है।
मीन : मानव का मन मछली जैसा चंचल है। चंचल मन को प्रभु चरणों में स्थिर करने का चिह्न है।
धनुष: मानव को नम्र और विवेकी बनाता है।
त्रिकोण : मनुष्य के त्रिदोष–काम, क्रोध और लोभ को दूर कर भक्त के मन को निर्मल करता है।
अर्धचन्द्र : शिवजी इस चिह्न को मस्तक पर धारण करते हैं।
आकाश : जैसे आकाश सर्वव्यापक है उसी तरह भगवान अनंत है।

भगवान के चरण-कमल बड़े ही दुर्लभ हैं और सेवा के लिए उनकी प्राप्ति होना और भी कठिन है। लक्ष्मीजी भगवान के चरण-कमलों को ही भजती हैं अत: नवधा भक्ति में ‘पाद सेवन’ भक्ति लक्ष्मीजी को सिद्ध है।

श्रीराधा के चरण-कमल की वंदना में प्रस्तुत एक पद

राधा-चरन की हूँ सरन।
छत्र, चक्र राजत, सफल मनसा करन।।

ऊर्ध्वरेखा, जव, धुजा दुति, सकल सोभा धरन।
बामपद गद शक्ति, कुंडल, मीन सुबरन बरन।।

अष्टकोण सुबेदिका, रथ प्रेम आनँद भरन।
कमलपद के आसरे नित रहत राधारमन।।

काम दु:ख संताप भंजन, बिरह-सागर तरन।
कलित कोमल सुभग सीतल, हरत जिय की जरन।।

जयति जय नव-नागरी-पद सकल भव भय हरन।
जुगलप्यारी नैन निरमल, होत लख नख किरन।।

अर्थात् मैं श्रीराधारानी के चरणों की शरण लेता हूँ, जिनके चरण-कमलों में छत्र, चक्र, ऊर्ध्वरेखा, जव, ध्वजा, गदा, शक्ति, कुंडल, मछली, स्वर्ण, अष्टकोण, सुबेदिका, रथ आदि के चिह्न हैं। जिनके दर्शन मात्र से मनुष्यों के सारे मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं, मन आनन्दित रहता है, काम-क्रोधादि सारे संताप दूर हो जाते हैं। श्रीराधा के चरण इतने कोमल व सुखदायक हैं कि सांसारिक तापों से जलते हुए हृदय को शीतलता प्रदान करते हैं। श्रीराधा के ऐसे चरणों में प्रणाम है, जो कि दर्शन मात्र से भवाटवी के भय से भक्त को मुक्त कर देते हैं।

व्यासजी कहते हैं–श्रीराधाजी के चरण इतने शीतल और सुख देने वाले हैं कि श्रीश्यामसुन्दर इनको अपने वक्षस्थल पर धारण करते हैं। इन चरणों की शीतलता प्रेम-काम के ताप को शांत कर देती है। इन चरणारविन्द के नखचन्द्र से छिटकने वाली छटा कोटि-कोटि चन्द्रमा की चांदनी को मंद करती है। यथा–

प्यारी जू के चरणारविन्द शीतल सुखदाई।
कोटि चन्द मन्द करत नख-विधु जुन्हाई।।

वैष्णवाचार्यों में श्रीरामानुजाचार्यजी का विशिष्ट स्थान है। वे भगवान श्रीसंकर्षण के अवतार माने जाते हैं। वे लिखते हैं–

पितरं मातरं दारान् पुत्रान् बन्धून् सखीन् गुरून्।
रत्नानि धनधान्यानि क्षेत्राणि च गृहाणि च।।

सर्वंधर्मांश्च संत्यज्य सर्वंकामांश्च साक्षरान्।
लोकविक्रान्तचरणौ शरणं तेऽव्रजं विभो।। (शरणागतिगद्यम्)

अर्थात्–हे प्रभो ! मैं पिता, माता, स्त्री, पुत्र, बन्धु, मित्र, गुरु, रत्नराशि, धन-धान्य, खेत, घर, सारे धर्म और अविनाशी मोक्षपदसहित सम्पूर्ण कामनाओं को त्यागकर समस्त ब्रह्माण्ड का आक्रान्त करने वाले आपके दोनों चरणों की शरण में आया हूँ।

भगवान श्रीकृष्ण के चरण-कमल की महिमा

सूरदासजी ने भगवान श्रीकृष्ण के चरण-कमल की महिमा का गान करते हुए लिखा है–

बंदौ चरन सरोज तिहारे।
सुन्दरश्याम कमलदललोचन,
ललित त्रिभंगी प्राणन पियारे।।

जे पद-पदुम सदा शिव के धन,
सिंधु-सुता उर ते नहिं टारे।
जे पद-पदुम परसि जलपावन,
सुरसरि-दरस कटत अघ भारे।।

जे पद-पदुम परसि रिषि-पत्नी,
बलि-मृग-ब्याध पतित बहु तारे।
जे पद-पदुम तात-रिस-आछत,
मन-बच-क्रम प्रहलाद सँभारि।।

जे पदपद्म रमत वृन्दावन,
अहिसुर धरि अगणित रिपु मारे।
जे पदपद्म परसि ब्रजभामिनी,
सर्वस दे सुत सदन बिसारे।।

जे पदपद्म रमत पाण्डव-दल,
दूत भये सब काज सँवारे।
‘सूरदास’ तेई पदपंकज,
त्रिविध ताप-दु:ख हरन हमारे।।

अर्थात्–हे श्यामसुन्दर ! हे कमललोचन ! हे त्रिभंगी ( पैर टेड़ा कर खड़े होने वाले) ! हे प्राणप्रिय ! मैं आपके चरण-कमलों की वंदना करता हूँ।  आपके चरण-कमल शिवजी के धन हैं। लक्ष्मीजी जिन्हें सदैव अपने हृदय में धारण करती हैं। इन चरण-कमलों के जल के पान से सारे पाप कट जाते हैं। इन्हीं चरण-कमलों से आपने ऋषिपत्नी अहिल्या, राजा बलि, अजामिल आदि का उद्धार किया।  मन, वचन और कर्म से आपके चरण-कमलों को भजने वाले प्रहलाद की उसके पिता के कोप से रक्षा की। इन्हीं चरण-कमलों ने वृन्दावन में विहार करते हुए राक्षसों का संहार किया। इन्हीं चरण-कमलों के लिए गोपियों ने अपने घर, पुत्र आदि बिसार दिए। पांडवों के लिए इन्हीं चरण-कमलों ने दूत का कार्य किया। सूरदासजी भगवान श्रीकृष्ण से प्रार्थना करते हैं कि वही चरण-कमल हमारे त्रिविध तापों को दूर करें।

भगवान के चरणरज की ऐसी महिमा है कि यदि इस मानव शरीर में त्रिभुवन के स्वामी भगवान गोविन्द के चरणारविन्दों की धूलि लिपटी हो तो इसमें अगरू, चंदन या अन्य कोई सुगन्ध लगाने की जरूरत नहीं, भगवान के भक्तों की कीर्तिरूपी सुगन्ध तो स्वयं ही सर्वत्र फैल जाती है।

श्रीमद्भागवत में भगवान श्रीकृष्ण की पटरानियां द्रौपदी से कहती हैं–

‘हे साध्वि ! हमें पृथ्वी के साम्राज्य, इन्द्र के राज्य अथवा इन दोनों के भोग, अणिमा आदि ऐश्वर्य, ब्रह्मा के पद, मोक्ष या वैकुण्ठ की भी इच्छा नहीं है। हम तो केवल यही चाहती हैं कि प्रियतम श्रीकृष्ण की कमल-कुचकुंकुम की सुगन्ध से युक्त चरणधूलि को ही सदा अपने मस्तकों पर लगाती रहें।’

मुक्ति तो ऐसे भक्तों के चरणों पर लोटा करती है। श्रीकृष्णचरणस्पर्श से अजगर की योनि से छूटा हुआ सुदर्शन नामक विद्याधर श्रीकृष्ण की स्तुति करता हुआ कहता है कि–’हे अच्युत ! मैं आपके दर्शन मात्र से ब्राह्मणों के शाप से मुक्त हो गया, यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। जो पुरुष आपके नामों का उच्चारण करता है, वह अपने आपको और समस्त श्रोताओं को भी तुरंत पवित्र कर देता है। फिर मुझे तो आपने स्वयं अपने चरणकमलों से स्पर्श किया है। तब भला मेरी मुक्ति में क्या संदेह हो सकता है ?’

गोपियां गोपीगीत में कहती हैं–

प्रणतकामदं पद्मजार्चितं धरणिमण्डनं ध्येयमापदि।
चरणपंकजं शन्तमं च ते रमण न: स्तनेष्वर्पयाधिहन्।। (श्रीमद्भागवत)

अर्थात्–
‘हे रमण ! तुम्हारे चरणारविन्द प्रणतजनों की कामना पूरी करने वाले हैं, लक्ष्मीजी के द्वारा सदा सेवित हैं, पृथ्वी के आभूषण हैं, विपत्तिकाल में ध्यान करने से कल्याण करने वाले हैं; हे प्रियतम ! उन परम कल्याणमय सुशीतल चरणों को हमारे तप्त हृदय पर स्थापित कीजिए।’

गोपियां चाहती हैं कि श्रीकृष्ण के चरण-कमल हमारे हृदय को स्पर्श करें; उन्हें इससे अपार सुख भी मिलता है और वे यह भी जानती हैं कि इससे प्रियतम श्रीकृष्ण को भी महान सुख होता है। लेकिन गोपियां इस विचार से व्यथित हैं कि श्रीकृष्ण के कोमल चरणतल में हमारे कठोर वक्षों से आघात न लग जाए क्योंकि श्रीकृष्ण के चरण कमल से भी अधिक कोमल हैं। उन्हीं चरणों से तुम रात्रि के समय घोर जंगल में छिपे-छिपे भटक रहे हो ! क्या कंकड़, पत्थर आदि की चोट लगने से उनमें पीड़ा नहीं होती? हमें तो इसकी संभावनामात्र से चक्कर आ रहा है। हम अचेत होती जा रही हैं। श्रीकृष्ण ! श्यामसुन्दर ! प्राणनाथ ! हमारा जीवन तुम्हारे लिए है, हम तुम्हारे लिए ही जी रहीं हैं, हम तुम्हारीं हैं।

युगलगीत में गोपियां आपस में कह रही हैं–’अरी वीर ! श्रीकृष्ण के चरण-कमलों में ध्वजा, वज्र, कमल, अंकुश आदि के विचित्र और सुन्दर चिह्न हैं। जब ब्रजभूमि गौओं के खुर से खुद जाती है, तब वे अपने सुकुमार चरणों से उसकी पीड़ा मिटाते हुए गजराज के समान मन्दगति से आते हैं और बांसुरी भी बजाते रहते हैं। हम उस समय इतनी मुग्ध हो जाती हैं कि हिल-डुल भी नहीं सकतीं, मानो हम जड़ वृक्ष हों ! हमें तो इस बात का भी पता नहीं चलता कि हमारा जूड़ा खुल गया है या बँधा है, हमारे शरीर पर का वस्त्र उतर गया है या है।’

मोहन ! राखु पद-रज तरै।
सुर-सुरेन्द्र-बिधि-पद नहिं चहियै, डारहु मुकुति परै।
जग-सुख के सब साज सँभारहु, इनतें दुख न टरै।।

सुख-दुख, लाभ-हानि जगकी सम, नैकौ मन न जरै।
बिनु बिराम छवि-धाम निरखि, तन-मन नित प्रेम गरै।। (पद रत्नाकर)

अर्थात् हे मोहन ! मुझे अपनी चरण-रज में पड़ा रहने दो। मुझे स्वर्ग के देवताओं, इन्द्र आदि का पद नहीं चाहिए, मैं मुक्ति (मोक्ष) भी नहीं चाहता। संसार में सुखों के जो आकर्षण हैं उनसे दु:ख दूर नहीं होता। सांसारिक सुख-दु:ख, लाभ-हानि से मेरा मन जरा भी परेशान नहीं है। मैं तो यही चाहता हूँ कि लगातार तुम्हारी रूप-माधुरी को देखता रहूँ, और मेरे तन-मन में तुम्हारा प्रेम बढ़ता रहे।

सूरदासजी कहते हैं–

भरोसो दृढ़ इन चरनन केरो।
श्री वल्लभ नख-चन्द्र छटा बिनु,
सब जग मांझ अँधेरो।

साधन और नहीं जा कलि में,
जासो होत निवेरो।  

सूर कहा कहें द्विविध आँधरो,
बिना मोल को चेरो।।

सूरदासजी कहते हैं कि हे वल्लभ ! केवल आपके ही चरणों पर पूरा भरोसा है, आपके चरण-नख की छटा के बिना सारा संसार अंधकारमय है। इन चरणों का आश्रय ही कलिकाल से पार जाने का साधन हैं।

कमल और श्रीकृष्ण

एक विद्वान श्रीमुकुन्दजी गोस्वामी ने कमल को सम्बोधित करते हुए एक बहुत ही सुन्दर कविता लिखी है–

ब्रजसर में सरसे सरसिज तुम, हो कृतार्थ सौन्दर्यनिधान।
ब्रज में चलते मंद पवन को, करते तुम सौरभ का दान।।

इससे वनपथ नित्य महकता, तुम जो हो सुगन्धि के स्त्रोत।
ब्रज की सुरभि-सुयश के कारण, शाश्वत सुख में ओतप्रोत।।
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ब्रजसरिताओं की शोभा तुम, ब्रजवन के सौंदर्यनिकेत।
तुम ब्रजेश-उर में माला बन, लहराते रहते सुखसेतु।।

तुम रसकमल सरस अतिशय तुम, दृगानंद, सुषमा के धाम।
जीवनप्राण कमलिनीगण के, रसानन्ददायक अभिराम।।
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लीलाकमल बने हरिकर में, माला बन हरि-उर में राज।
भ्रमरगणों के चिरसहचर तुम मँडराते वे सहित समाज।।
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अहो कमल ! तुम अंग-अंग बन, हरितन पर शोभित अभिराम।
नेत्रकमल, मुखकमल, करकमल, चरणकमल नित छवि के धाम।।

अर्थात्–हे सौंदर्यनिधान ब्रज के सराेवर में खिलने वाले कमल ! तुम धन्य हो। तुम्हारी दी हुई सुगन्ध से ही ब्रज में मंद-सुगन्धित हवा बह रही है। तुम सुगन्ध के भण्डार हो, इसीलिए ब्रज का वनप्रान्त नित्य सुगन्धित रहता है। ब्रज में श्रीकृष्ण के सुयश को सुनकर तुम सदैव सुखी रहते हो। गोपियां भी अपने सौंदर्यवर्धन के लिए तुम्हारा प्रयोग करती हैं, तुम्ही ब्रज के वनों के सौंदर्य हो। श्रीकृष्ण के गले में माला बनकर तुम सुख से लहराते रहते हो। हे कमल तुम अतिशय सरस हो, आँखों को आनंद देने वाले हो और सुन्दरता के धाम हो। आनंदरस से पूर्ण तुम कमलिनियों के जीवनधन हो। भगवान श्रीकृष्ण के हाथ में लीलाकमल बनकर रहते हो और माला बनकर भगवान के हृदय पर राज करते हो। तुम्हारे सखा भंवरे अपने दल-बल के साथ श्रीकृष्ण के आस-पास ही मंडराते रहते हैं। हे कमल तुम धन्य हो ! श्रीकृष्ण के एक-एक अंग की शोभा में तुम्ही हो। सौंदर्य के धाम श्रीकृष्ण के नेत्र भी तुम्ही हो, मुख की शोभा भी तुम्ही हो, हाथों में भी तुम और चरणों की शोभा में भी तुम हो।यानि नेत्र भी कमल, मुख भी कमल, हाथ भी कमल सदृश्य और चरण भी कमल की तरह सुकोमल हैं।

धन्य है कमल ! संसार में अन्य किसी को यह सौभाग्य नहीं मिला जिसकी उपमा श्रीकृष्ण के सभी अंगों से दी जा सके।

नम: पंकजनाभाय नम: पंकजमालिने।
नम: पंकजनेत्राय नमस्ते पंकजाड़्घ्रये।। (श्रीमद्भागवत)

6 COMMENTS

  1. अति सुन्दर रचना। सभी पुराणों में तथा शास्त्रों मै भगवान और गुरु के चरण कमलों की महिमा बखानी गई है। आपके ब्लॉग के माध्यम से अनेक जानकारियां मिली। अब यही प्रयास रहेगा कि भगवान के श्रीचरणों का धयन कर सकूं। धन्यवाद्

  2. Literature on Hindu religious aspects is scarce. Collections in this article are commendable. I have been enlightened on lotus feet of Lord Shri Hari to great extent. Your blogging site is doing a great service to all devotees.

    I have observed that most of your writings are based on lord Shri Krishna. The description of lord Shri Ram is missing in most of the blogs. Saint Tulsidas and Maharishi Valmiki have contributed immensely on lord Shri Ram.

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