मूर्ति में क्यों बसते हैं भगवान ?

यह सत्य है, हैं आप मुझमें और मैं हूँ आपमें,
जल में भरी ज्यों भाप है, वह भी भरा है भाव में।
हम आप दोनों एक हैं, हैं भिन्नता कहिये कहां,
जिसमें नहीं हैं आप ऐसा तत्त्व त्रिभुवन में कहां?।। (पं नन्दकिशोरजी शुक्ल)

भक्तों की उपासना के लिए मूर्ति में बसते हैं भगवान

अन्तर्यामी रूप से भगवान सबके हृदय में हर समय विद्यमान रहते हैं। सिद्ध, योगी आदि समाधि में भगवान के अन्तर्यामी रूप का दर्शन कर सकते हैं परन्तु सभी लोग इस रूप में भगवान के दर्शन का आनन्द नहीं ले पाते हैं। भक्त अपने इष्ट का दर्शन कैसे करें? इसलिए भक्तों को दर्शन देने के लिए भगवान ने अर्चावतार धारण किया जो भगवान का सभी के लिए सबसे सुलभ रूप है।

अर्चा का अर्थ है पूजा उपासना; इसके लिए होने वाले अवतार का नाम है अर्चावतार। मूर्तियों का ही दूसरा नाम अर्चावतार है। घर में, मन्दिरों में, तीर्थस्थानों पर, गोवर्धन आदि पर्वतों पर प्रतिष्ठित भगवान की मूर्तियां अर्चावतार कहलाती हैं।

श्रीएकनाथजी ने कहा है—‘मी तेचि माझी प्रतिमा। तेथें नाहीं आन धर्मा।। अर्थात्—मैं जो हूँ, वही मेरी प्रतिमा है, प्रतिमा में कोई अन्य धर्म नहीं है।

चार प्रकार के अर्चावतार

—भगवान की कुछ मूर्तियां स्वयं प्रकट होती हैं, ये ‘स्वयंव्यक्त’, ‘स्वयंभू’ या ‘स्वत:सम्भूत’ कहलाती हैं। स्वत:सम्भूत मूर्तियां यों ही नहीं मिल जाती; ये उपासकों के लिए ही प्रादुर्भूत होती हैं। अत: इनकी उपासना शीघ्र ही सिद्ध हो जाती है। जहां ये प्रकट होती हैं, वे स्थान तीर्थस्थल हो जाते हैं।
—कुछ मूर्तियां देवताओं द्वारा प्रतिष्ठित की गयी होती हैं, वे ‘दैव’ मूर्तियां कहलाती हैं।
—कुछ मूर्तियां सिद्धों द्वारा स्थापित की गयी होती हैं, वे ‘सैद्ध’ मूर्तियां कहलाती हैं।
—अधिकांशत: मूर्तियां भक्तों, मनुष्यों द्वारा स्थापित होती हैं, वे ‘मानुष’ कहलाती हैं।

मूर्ति कैसे भगवान हो जाती है या भगवान कैसे प्रतिमा में उपस्थित हो जाते हैं?

ब्रह्म भले ही निर्गुण हो पर उपासना के लिए वह सगुण हो जाता है और वह आकार विशेष ग्रहण करता है। जैसे भगवान विष्णु सर्वव्यापक हैं फिर भी उनकी उपलब्धि (संनिधि) शालग्रामजी में होती है। यदि शालिग्रामजी पर एकटक दृष्टि रखकर प्राण की गति के साथ ॐ का जप और भगवान का ध्यान किया जाए तो उपासक इसी में भगवान की झांकी पा सकते हैं।

हयशीर्षसंहिता में कहा गया है—‘उपासक के तप से, अत्यधिक पूजन से और इष्ट से प्रतिमा की एकरूपता से मूर्ति में भगवान उपस्थित हो जाते हैं।’

भगवान रामानुज ने कहा है कि ‘भक्तिरूप आराधना भगवान को प्रत्यक्ष कर देती है।’

व्रज में अनेक स्थल हैं जहां उपासकों ने अपनी उपासना के बल से भगवान को स्वयं प्रकट किया है। परम उपासक श्रीकल्याणदेवजी ने अपनी उपासना के बल से श्रीबलदाऊजी को, स्वामी हरिदासजी ने श्रीबांकेबिहारीजी को और श्रीगोपालभट्टजी ने श्रीराधारमणजी को प्रकट किया। और न जाने ऐसे कितने उदाहरण हैं।

जब भक्त अपनी भक्ति की शक्ति से भगवान को प्रकट करना चाहते हैं, भगवान की मूर्ति उसी समय भगवान हो जाती है। उसमें ज्ञान, शक्ति, बल, ऐश्वर्य, वीर्य और तेज आदि भगवत्ता के छहों गुण विद्यमान हो जाते हैं। भक्त उसे मूर्ति नहीं देखता बल्कि उसे अपना भगवान मानता है। मीराबाई के लिए द्वारकाधीश की निरी जड़ मूर्ति नहीं थी, स्वयं चिन्मय भगवान थे। मीरा की इच्छामात्र से उन्होंने उसे अपने में लीन कर लिया।

क्या मस्ती है यह हस्ती मिटाने में।
मीरा देखती है गिरधर जहर के प्याले में।।

करमाबाई गोपाल में वात्सल्यभाव रखती थीं और गोपाल ने उन्हें यशोदामाता की तरह मातृभाव से देखा। करमाबाई की कुटिया में मैया की खिचड़ी का स्वाद उस सर्वेश्वर जगन्नाथ को ऐसा लगा कि वह अपनी आप्तकामता को भूलकर रो-रोकर उसको खिचड़ी के लिए पुकारता।

सांचो प्रेम प्रभु में हो तो, मुरती बोलै काठ की।
जीमो म्हारा श्याम धणी, जिमावे बेटी जाट की।। (श्रीसोहनलोहाकार)

एक दिन करमाबाई परमात्मा के आनन्दमय धाम में चली गयीं। उस दिन भगवान बहुत रोए। श्रीजगन्नाथजी के श्रीविग्रह के नयनों से अविरल अश्रुप्रवाह होने लगा। रात्रि में राजा के स्वप्न में प्रभु बोले–’आज माँ इस लोक से विदा हो गई। अब मुझे कौन खिचड़ी खिलाएगा?’

सच्चे भाव से मूर्तिपूजन करने से भगवान प्रकट हो जाते हैं : एक कथा

एक महात्माजी को अपने एक ब्राह्मण शिष्य के घर कई दिनों तक रहना पड़ा। महात्माजी के पास कुछ शालग्रामजी की मूर्तियां थीं। ब्राह्मण की छोटी-सी बच्ची नित्य महात्माजी के पास बैठकर उनको पूजा करते हुए देखती थी। एक दिन उस बच्ची ने महात्माजी से पूछा—‘आप किसकी पूजा करते हैं?’ महात्माजी ने बच्ची को  छोटा समझकर कह दिया कि ‘हम सिलपिले भगवान की पूजा करते हैं।’ बच्ची ने पूछा—‘सिलपिले भगवान की पूजा करने से क्या होता है?’ महात्माजी ने कहा—‘सिलपिले भगवान की पूजा करने से मनचाहा फल प्राप्त होता है।’ बच्ची ने कहा—‘मुझे भी एक सिलपिले भगवान दे दीजिए, मैं भी आपकी तरह पूजा किया करुंगी।’

भगवान के प्रति बच्ची का अनुराग देखकर महात्माजी ने एक शालिग्राम देकर उसे पूजा करने का तरीका बता दिया। वह कन्या सच्ची लगन से नित्य अपने ‘सिलपिले भगवान’ का पूजन करने लगी। अपने इष्टदेव के अनुराग में वह ऐसी रंग गयी कि बिना भोग लगाये वह कुछ खाती-पीती नहीं थी और अपने इष्ट का क्षणभर का वियोग भी उसे असह्य था।

बड़ी होने पर विवाह के समय ससुराल जाते वक्त वह अपने ‘सिलपिले भगवान’ को भी साथ लेती गयी। दुर्भाग्यवश उसे पति ऐसा मिला जिसे भगवान में विश्वास नहीं था। एक दिन पत्नी को पूजा करते देखकर उसके पति ने मूर्ति को उठा लिया और बोला—‘इसे मैं नदी में डाल दूंगा।’ कन्या के बहुत अनुनय-विनय करने पर भी पति ने मूर्ति को नदी में फेंक दिया। उसी समय से कन्या अपने ‘सिलपिले भगवान’ के विरह में दीवानी हो गयी और हर समय यही रट लगाये रहती—‘मेरे सिलपिले भगवन्! मुझ दासी को छोड़कर कहां चले गए, शीघ्र दर्शन दो; आपका वियोग असह्य है।’

एक दिन वह भगवान के विरह में पागल होकर उसी नदी के किनारे पहुंच गयी और ऊंचे स्वर में अपने प्रभु को पुकार कर कहने लगी—‘शीघ्र आकर दर्शन दो, नहीं तो दासी का प्राणान्त होने जा रहा है।’ इस करुण पुकार के साथ ही एक अद्भुत स्वर गूंजा—‘मैं आ रहा हूं।’

उसी समय उस कन्या के समक्ष वही शालिग्रामजी की मूर्ति प्रकट हो गयी। जैसे ही वह शालिग्रामजी को हृदय से लगाने लगी, उस मूर्ति के अंदर से चतुर्भुजरूप में भगवान प्रकट हो गए। भगवान के दिव्य तेज से अन्य सभी लोगों की आंखें बंद हो गयीं। तभी एक दिव्य गरुणध्वज विमान आया और भगवान अपनी उस सच्ची भक्ता को विमान में बिठलाकर वैकुण्ठलोक को चले गए। भगवान से विमुख उसका पति आंखें फाड़ कर देखता रह गया।

मूर्तिपूजा की महिमा

अग्निपुराण में कहा गया है—‘यमराज का यमदूतों को निर्देश है कि वे मूर्ति की पूजा करने वालों को नरक नहीं लायें।

श्रीएकनाथजी का कहना है—कलियुग में मूर्ति (प्रतिमा) पूजा से बढ़कर भक्ति का और कोई साधन नहीं है।

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