महालक्ष्मी का कलावतार हैं ‘दक्षिणा’

देवी ‘दक्षिणा’ महालक्ष्मीजी के दाहिने कन्धे (अंश) से प्रकट हुई हैं इसलिए दक्षिणा कहलाती हैं। ये कमला (लक्ष्मी) की कलावतार व भगवान विष्णु की शक्तिस्वरूपा हैं। दक्षिणा को शुभा, शुद्धिदा, शुद्धिरूपा व सुशीला–इन नामों से भी जाना जाता है। ये उपासक को सभी यज्ञों, सत्कर्मों का फल प्रदान करती हैं।

गोलोकबिहारी श्रीकृष्ण और दक्षिणा का सम्बन्ध

गोलोक में भगवान श्रीकृष्ण को अत्यन्त प्रिय सुशीला नाम की एक गोपी थी जो विद्या, रूप, गुण व आचार में लक्ष्मी के समान थी। वह श्रीराधा की प्रधान सखी थी। भगवान श्रीकृष्ण का उससे विशेष स्नेह था। श्रीराधाजी को यह बात पसन्द न थी और उन्होंने भगवान की लीला को समझे बिना ही सुशीला को गोलोक से बाहर कर दिया।

गोलोक से च्युत हो जाने पर सुशीला कठिन तप करने लगी और उस कठिन तप के प्रभाव से वे विष्णुप्रिया महालक्ष्मी के शरीर में प्रवेश कर गयीं। भगवान की लीला से देवताओं को यज्ञ का फल मिलना बंद हो गया। घबराए हुए सभी देवता ब्रह्माजी के पास गए। ब्रह्माजी ने भगवान विष्णु का ध्यान किया। भगवान विष्णु ने अपनी प्रिया महालक्ष्मी के विग्रह से एक अलौकिक देवी ‘मर्त्यलक्ष्मी’ को प्रकट कर उसको दक्षिणा’ नाम दिया और ब्रह्माजी को सौंप दिया।

यज्ञपुरुष, दक्षिणा और फल

ब्रह्माजी ने यज्ञपुरुष के साथ दक्षिणा का विवाह कर दिया। देवी दक्षिणा के ‘फल’ नाम का पुत्र हुआ। इस प्रकार भगवान यज्ञ अपनी पत्नी दक्षिणा व पुत्र फल से सम्पन्न होने पर कर्मों का फल प्रदान करने लगे। इससे देवताओं को यज्ञ का फल मिलने लगा। इसीलिए शास्त्रों में दक्षिणा के बिना यज्ञ करने का निषेध है। दक्षिणा की कृपा के बिना प्राणियों के सभी कर्म निष्फल हो जाते हैं। ब्रह्मा, विष्णु, महेश व अन्य देवता भी दक्षिणाहीन कर्मों का फल देने में असमर्थ रहते हैं।

दक्षिणाहीन कर्म हो जाता है निष्फल

बिना दक्षिणा के किया गया सत्कर्म राजा बलि के पेट में चला जाता है। पूर्वकाल में राजा बलि ने तीन पग भूमि के रूप में त्रिलोकी का अपना राज्य जब भगवान वामन को दान कर दिया तब भगवान वामन ने बलि के भोजन (आहार) के लिए दक्षिणाहीन कर्म उसे अर्पण कर दिया। श्रद्धाहीन व्यक्तियों द्वारा श्राद्ध में दी गयी वस्तु को भी बलि भोजन रूप में ग्रहण करते हैं।

कर्म की समाप्ति पर तुरन्त देनी चाहिए दक्षिणा

मनुष्य को सत्कर्म करने के बाद तुरन्त दक्षिणा देनी चाहिए तभी कर्म का तत्काल फल प्राप्त होता है। यदि जानबूझकर या अज्ञान से धार्मिक कार्य समाप्त हो जाने पर ब्राह्मण को दक्षिणा नहीं दी जाती, तो दक्षिणा की संख्या बढ़ती जाती है, साथ ही सारा कर्म भी निष्फल हो जाता है। संकल्प की हुई दक्षिणा न देने से (ब्राह्मण के अधिकार का धन रखने से) मनुष्य रोगी व दरिद्र हो जाता है व उससे लक्ष्मी, देवता व पितर तीनों ही रुष्ट हो जाते हैं।

शास्त्रों में दक्षिणा के बहुत ही अनूठे उदाहरण देखने को मिलते हैं |

भगवान श्रीकृष्ण ने मृत गुरुपुत्र को वापिस जीवित लाकर दी गुरुदक्षिणा

श्रीकृष्ण और बलराम दोनों भाईयों ने गुरु सान्दीपनि के आश्रम में रहकर 64 दिनों के अल्पसमय में सम्पूर्ण शास्त्रों की शिक्षा प्राप्त की। शिक्षा पूरी करने के पश्चात श्रीकृष्ण और बलराम ने गुरु सान्दीपनि से गुरुदक्षिणा माँगने की प्रार्थना की। अगस्त्यमुनि की तरह अनेक विद्याओं के समुद्र को एक ही सांस में सोख लेने की श्रीकृष्ण की अद्भुत शक्ति देखकर गुरुजी भी ताड़ गए और उन्होंने कसकर गुरु दक्षिणा मांगने का विचार किया। ऋषि ने अपनी पत्नी को कुछ मांगने को कहा। गुरुपत्नी ने श्रीकृष्ण से गुरुदक्षिणा के रूप में अकालमृत्यु को प्राप्त हुए अपने पुत्र को वापिस ला देने की बात कही।

सारी सृष्टि के रचयिता विष्णुरूपी भगवान श्रीकृष्ण अपनी गुरुमाता के दुःख को कैसे देख सकते थे? उन्होंने गुरुपुत्र को पुनर्जीवन का वरदान दिया। दोनों भाई प्रभासक्षेत्र में गये। उन्हें पता चला कि शंखासुर नामक राक्षस गुरुपुत्र को ले गया है, जो समुद्र के नीचे पवित्र शंख में रहता है, जिसे ‘पांचजन्य’ कहते हैं। दोनों भाइयों ने राक्षस का वध कर ‘पांचजन्य’ में चारों ओर ऋषिपुत्र को खोजा। ऋषिपुत्र को उसमें न पाकर वे शंख लेकर यम के पास पहुँचे और उसे बजाने लगे।
यम ने दोनों भ्राताओं की पूजा करते हुए कहा–’हे सर्वव्यापी भगवान, अपनी लीला के कारण आप मानवस्वरूप में हैं। मैं आप दोनों के लिए क्या कर सकता हूँ?’

श्रीकृष्ण ने यमराज से कहा–’मेरे गुरुपुत्र को मुझे सौंप दीजिये, जो अपने कर्मों के कारण यहाँ लाया गया था।’ इस प्रकार श्रीकृष्ण ने अपने गुरु को उनका जीवित पुत्र सौंपा और अपनी गुरुदक्षिणा पूर्ण की।

एकलव्य की द्रोणाचार्य को अनूठी गुरुदक्षिणा

गुरु द्रोणाचार्य ने एकलव्य से गुरुदक्षिणा में दाहिने हाथ का अंगूठा मांगा। दाहिने हाथ का अंगूठा न रहे तो बाण चलाया ही कैसे जा सकता है? एकलव्य की वर्षों की अभिलाषा, परिश्रम व अभ्यास–सब व्यर्थ हुआ जा रहा था, किंतु एकलव्य के मुख पर खेद की एक रेखा तक नहीं आयी। उस वीर गुरुभक्त बालक ने बायें हाथ में छुरा लिया और तुरंत अपने दाहिने हाथ का अंगूठा काटकर गुरुदेव के सामने धर दिया।
भरे कण्ठ से द्रोणाचार्य ने कहा–’पुत्र! सृष्टि में धनुर्विद्या के अनेकों महान ज्ञाता हुए हैं और होंगे, किंतु मैं आशीर्वाद देता हूँ कि तुम्हारे इस भव्य त्याग और गुरुभक्ति का यश सदा अमर रहेगा।’

प्राचीन भारत में गुरु और शिष्य का ऐसा पवित्र और समर्पित रिश्ता था।

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