guru purnima

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवो महेश्वर:।
गुरु: साक्षात्परं ब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नम:।।
अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम्।
तत्पदं दर्शितं येनं तस्मै श्रीगुरवे नम:।। (श्रीगुरुगीता १४७-१४८)

महादेवजी ने बताई पार्वतीजी को गुरु की महिमा

एक बार पार्वतीजी ने महादेवजी से गुरु की महिमा बताने के लिए कहा। तब महादेवजी ने कहा–

‘गुरु ही ब्रह्मा, गुरु ही विष्णु, गुरु ही शिव और गुरु ही परमब्रह्म है; ऐसे गुरुदेव को नमस्कार है। अखण्ड मण्डलरूप इस चराचर जगत में व्याप्त परमात्मा के चरणकमलों का दर्शन जो कराते हैं; ऐसे गुरुदेव को नमस्कार है।

ध्यानमूलं गुरोर्मूर्ति: पूजामूलं गुरो: पदम्।
मंत्रमूलं गुरोर्वाक्यं मोक्षमूलं गुरो: कृपा।। (श्रीगुरुगीता १६०)

अर्थात्–गुरुमूर्ति का ध्यान ही सब ध्यानों का मूल है, गुरु के चरणकमल की पूजा ही सब पूजाओं का मूल है, गुरुवाक्य ही सब मन्त्रों का मूल है और गुरु की कृपा ही मुक्ति प्राप्त करने का प्रधान साधन है।

‘गुरु’ शब्द का अभिप्राय

  1. जो अज्ञान के अंधकार से बंद मनुष्य के नेत्रों को ज्ञानरूपी सलाई से खोल देता है, वह गुरु है।
  2. जो शिष्य के कानों में ज्ञानरूपी अमृत का सिंचन करता है, वह गुरु है।
  3. जो शिष्य को धर्म, नीति आदि का ज्ञान कराए, वह गुरु है।
  4. जो शिष्य को वेद आदि शास्त्रों के रहस्य को समझाए, वह गुरु है।

गुरुपूजा का अर्थ

गुरुपूजा का अर्थ किसी व्यक्ति का पूजन या आदर नहीं है वरन् उस गुरु की देह में स्थित ज्ञान का आदर है, ब्रह्मज्ञान का पूजन है।

गुरुपूर्णिमा मनाने का कारण

आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा के दिन सभी अपने-अपने गुरु की पूजा विशेष रूप से करते हैं। यह सद्गुरु के पूजन का पर्व है, इसलिए इसे गुरुपूर्णिमा कहते हैं। जिन ऋषियों-गुरुओं ने इस संसार को इतना ज्ञान दिया, उनके प्रति कृतज्ञता दिखाने का, ऋषिऋण चुकाने का और उनका आशीर्वाद पाने का पर्व है गुरुपूर्णिमा। यह श्रद्धा और समर्पण का पर्व है। गुरुपूर्णिमा का पर्व पूरे वर्षभर की पूर्णिमा मनाने के पुण्य का फल तो देता ही है, साथ ही मनुष्य में कृतज्ञता का सद्गुण भी भरता है।

गुरु गोविन्द दोउ खड़े काके लागूं पांय।
बलिहारी गुरु आपने गोविन्द दियो बताय।।

माता-पिता जन्म देने के कारण पूजनीय हैं किन्तु गुरु धर्म और अधर्म का ज्ञान कराने से अधिक पूजनीय हैं। परमेश्वर के रुष्ट हो जाने पर तो गुरु बचाने वाले हैं परन्तु गुरु के अप्रसन्न होने पर कोई भी बचाने वाला नहीं हैं। गुरुदेव की सेवा-पूजा से जीवन जीने की कला के साथ परमात्मा की प्राप्ति का मार्ग भी दिखाई पड़ जाता है।

कवच अभेद विप्र गुरु पूजा।
एहि सम विजय उपाय न दूजा।। (राचमा ६।८०।१०)

अर्थात्–वेदज्ञ ब्राह्मण ही गुरु है, उन गुरुदेव की सेवा करके, उनके आशीर्वाद के अभेद्य कवच से सुरक्षित हुए बिना संसार रूपी युद्ध में विजय प्राप्त करना मुश्किल है।

गुरुपूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा क्यों कहते हैं?

आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा को भगवान वेदव्यास का अवतरण पृथ्वी पर हुआ था इसलिए यह व्यासपूर्णिमा कहलाती है। व्यासजी ऋषि वशिष्ठ के पौत्र व पराशर ऋषि के पुत्र हैं।

व्यासदेवजी गुरुओं के भी गुरु माने जाते हैं। वेदव्यासजी ज्ञान, भक्ति, विद्वत्ता और अथाह कवित्व शक्ति से सम्पन्न थे। इनसे बड़ा कवि मिलना मुश्किल है। उन्होंने ‘ब्रह्मसूत्र’ बनाया, संसार में वेदों का विस्तार करके ज्ञान, उपासना और कर्म की त्रिवेणी बहा दी, इसलिए उनका नाम ‘वेदव्यास’ पड़ा। पांचवा वेद ‘महाभारत’ और श्रीमद्भागवतपुराण की रचना व्यासजी ने की। अठारह पुराणों की रचना करके छोटी-छोटी कहानियों द्वारा वेदों को समझाने की चेष्टा की। संसार में जितने भी धर्मग्रन्थ हैं, चाहे वे किसी भी धर्म या पन्थ के हों, उनमें अगर कोई कल्याणकारी बात लिखी है तो वह भगवान वेदव्यास के शास्त्रों से ली गयी है। इसलिए कहा जाता है–‘व्यासोच्छिष्टं जगत्सर्वम्’ अर्थात् जगत में सबकुछ व्यासजी का ही उच्छिष्ट है।

विलक्षण गुरु समर्थ रामदास के अदम्य साहसी शिष्य छत्रपति शिवाजी

छत्रपति शिवाजी महाराज समर्थ गुरु रामदासस्वामी के शिष्य थे। एक बार सभी शिष्यों के मन में यह बात आयी कि शिवाजी के राजा होने से समर्थ गुरु उन्हें ज्यादा प्यार करते हैं। स्वामी रामदास शिष्यों का भ्रम दूर करने के लिए सबको लेकर जंगल में गए और एक गुफा में जाकर पेटदर्द का बहाना बनाकर लेट गए। शिवाजी ने जब पीड़ा से विकल गुरुदेव को देखा तो पूछा–’महाराज! इसकी क्या दवा है?’

गुरु समर्थ ने कहा–’शिवा! रोग असाध्य है। परन्तु एक दवा काम कर सकती है, पर जाने दो।’

शिवा ने कहा–गुरुदेव दवा बताएं, मैं आपको स्वस्थ किए बिना चैन से नहीं रह सकता।’

गुरुदेव ने कहा–’इसकी दवा है–सिंहनी का दूध और वह भी ताजा निकला हुआ; परन्तु यह मिलना असंभव सा है।’

शिवा ने पास में पड़ा गुरुजी का तुंबा उठाया और गुरुदेव को प्रणाम कर सिंहनी की खोज में चल दिए। कुछ दूर जाने पर उन्हें एक सिंहनी अपने दो शावकों (बच्चों) के साथ दिखायी पड़ी। अपने बच्चों के पास अनजान मनुष्य को देखकर वह शिवा पर टूट पड़ी और उनका गला पकड़ लिया। शूरवीर शिवा ने हाथ जोड़कर सिंहनी से विनती की–’गुरुदेव की दवा के लिए तुम्हारा दूध चाहिए, उसे निकाल लेने दो। गुरुदेव को दूध दे आऊँ, फिर तुम मुझे खा लेना।’ ऐसा कहकर उन्होंने ममता भरे हाथों से सिंहनी की पीठ सहलाई।

मूक प्राणी भी ममता की भाषा समझते हैं। सिंहनी ने शिवा का गला छोड़ा और बिल्ली की तरह शिवा को चाटने लगी। मौका देखकर शिवा ने उसका दूध निचोड़कर तुंबा में भर लिया और सिंहनी पर हाथ फेरते हुए गुरुजी के पास चल दिए।

उधर गुरुजी सभी शिष्यों को आश्चर्य दिखाने के लिए शिवा का पीछा कर रहे थे। शिवा जब सिंहनी का दूध लेकर लौट रहे थे तो रास्ते में गुरुजी को शिष्यों के साथ देखकर शिवा ने पूछा–’गुरुजी, पेटदर्द कैसा है?’

गुरु समर्थ ने शिवा के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा–’आखिर तुम सिंहनी का दूध ले आए। तुम्हारे जैसे शिष्य के होते गुरु की पीड़ा कैसे रह सकती है?’

भारतीय परम्परा में गुरुसेवा से ही भक्ति की सिद्धि हो जाती है। गुरु की सेवा तथा प्रणाम करने से देवताओं की कृपा भी मिलने लगती है।

‘गुरु को राखौ शीश पर सब विधि करै सहाय।’ (सहजोबाई)

कलिकाल में सद्गुरु न मिलने पर भगवान ही सभी के गुरु हैं क्योंकि ‘गुरु’ शब्द से जगद्गुरु परमात्मा ईश्वर का ही बोध होता है; इसलिए कहा गया है–

वसुदेवसुतं देवं कंसचाणूर मर्दनम्।
देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्।।

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