नटवर नागर जगत उजागर अद्भुत खेल रचाया।
नाच रहे हो तुम या तुमने जग को नाच नचाया।।
नर्तक नाच नाचते देखे भूमि वसन, बांसन पर।
तुम वह नर्तकराज हो नाचे आज सांप के फन पर।।
सभ्य जगत को नृत्यकला का यह महत्त्व दिखलाया।
नाच रहे हो तुम या तुमने जग को नाच नचाया।।
अब तक कहलाते थे मोहन वन वन धेनु चरैया।
अब से कहलाओगे मोहन घर घर नाग नथैया।।
‘राधेश्याम’ समझ सकता है कौन तुम्हारी माया।
नाच रहे हो तुम या तुमने जग को नाच नचाया।।

भगवान श्रीकृष्ण गन्धर्व-वेद के चारों अंगों–संगीत, वाद्य, नृत्य और अभिनय में निपुण थे। भगवान श्रीकृष्ण की नृत्यकला में निपुणता अद्भुत थी। भगवान शिव का नृत्य ‘ताण्डव’ और पार्वतीजी का नृत्य ‘लास्य’ कहलाता है परन्तु भगवान श्रीकृष्ण का रासमण्डल का नृत्य सबसे निराला है। क्रोध में उन्मत्त, भीषण विषधर कालियनाग के भयानक फनों पर नृत्य करना तो उनकी नृत्यकला की पराकाष्ठा है। श्रीकृष्ण के नागनृत्य में उनकी शरीरसाधना, चरणविन्यास, विचित्र मनोयोग और अनुपम सौन्दर्य का अद्भुत मेल है। इसके अलावा नंदमहल में श्रीकृष्ण की बालसुलभ क्रीड़ाओं में और गोपियों से थोड़ी-सी छाछ या माखन के लिए नाचने में भी उनकी अद्वितीय नृत्यकला देखने को मिलती है।

नंदमहल में बालकृष्ण का नृत्य

आंगन स्याम नचावहीं जसुमति नँदरानी।
तारी दै दै गावहीं मधुरी मृदु बानी।।

व्रजरानी यशोदा ताली बजाते हुए मधुर स्वर में गाकर कन्हैया को नंदमहल के आंगन में नचातीं जिससे श्रीकृष्ण के कमर की किंकणी और नूपुरों की स्वरलहरियों से सारा प्रांगण सदैव गुंजायमान रहता था। प्रात:काल होते ही व्रजसुन्दरियां नंदमहल के प्रांगण में एकत्र हो जातीं और श्रीकृष्ण से मनुहार करतीं–

‘व्रजनन्दन! तुम अपनी बालचेष्टाओं से हमारे मन को चुरा लेते हो। हम सब तुम पर बलिहार जाती हैं। तू नाच दे! नाच दे! यह ले–थेई थेई थेई तत्त थेई।’ इस प्रकार व्रजसुन्दरियां ताल देने लगतीं और बालकृष्ण नाचने लगते। व्रजरानी अपने कन्हैया का अस्पष्ट गायन और गोपियों की ताल के साथ नृत्य देखकर अपना कार्य करना भूल जातीं और विस्मित हुई न जाने कितने समय के लिए खड़ी रह जातीं। नंदबाबा भी अपने पुत्र के मनोहर नृत्य को देखने की आशा से आते परन्तु उन्हें देखकर कन्हैया सकुचा जाते। माता यशोदा अपने पुत्र को गोद में उठाकर बारम्बार उनके कपोलों को चूमतीं और उन्हें नंदबाबा को नृत्य दिखाने के लिए प्रोत्साहित करतीं–

बलि बलि जाउँ मधुर सुर गावहु।
अब कि बार मेरे कुँवर कन्हैया, नंदहि नाचि दिखावहु।।

माता का प्रेम भरा प्रोत्साहन पाकर श्रीकृष्ण करताली देते हुए नूपुर की रुनझुन-रुनझुन ताल पर नाचने लगते और नंदबाबा अपलक नेत्रों में उस छवि को भरे हुए कुछ समय के लिए सब कुछ भूल जाते और उनका मन उस नूपुरध्वनि के साथ नाचने लगता।

नंदरानी दधि-मंथन करते समय श्यामसुन्दर से कहतीं–’मोहन जरा नाच के तो दिखा, मैं तुझे ताजा माखन (नवनीत) दूंगी’–‘जननि कहत नाचौ तुम, दैहौं नवनीत मोहन’ और श्रीकृष्ण रुनझुन-रुनझुन नूपुरों की ध्वनि पर नाचने लगते–’नाचत त्रैलोकनाथ माखन के काजै।’

सारे व्रज में श्रीकृष्ण के नृत्य की चर्चा होने लगी। दल-की-दल व्रजगोपिकाएं श्रीकृष्ण का नृत्य देखने नंदभवन में आने लगीं। आनन्द के अवतार श्रीकृष्ण भी अपने मधुर नृत्यरस का सारे व्रजवासियों में मुक्तहस्त से वितरण करते थे।

श्रीकृष्ण का यह लीलामृत, जो नाग, गंधर्व और किन्नरों के लिए भी दुर्लभ है, उसे गोबर पाथने वाली व्रजबालाएं दोनों हाथों से भर-भरकर पान कर रहीं थीं। श्रीकृष्ण का नृत्य देखकर मोर नंदमहल के प्रांगण में आ जाते। कोई गोपी मोर पकड़ कर श्रीकृष्ण के सामने खड़ा कर देती और कहती–‘देख नीलमणि! यह मयूर का नृत्य देख। कितना सुन्दर नृत्य है! तू भी इसकी तरह नाच तो सही।’

गोपी की इच्छा पूर्ण करने के लिए श्रीकृष्ण अपनी दोनों भुजाओं को पीठ की ओर ले जाकर फैला देते, कमर झुकाकर मोर की तरह गरदन उठा लेते और रुनझुन-रुनझुन ध्वनि करते हुए व्रजबालाओं की परिक्रमा करने लगते। गोपियों के आनन्द का पार नहीं रहता। नंदमहल का प्रांगण खुशी से गूंज उठता और गोपियां श्रीकृष्ण को अपने वक्ष:स्थल से लगा लेतीं। इस प्रकार श्रीकृष्ण के नृत्य को देखना, उनके गायन को सुनना और बालसुलभ क्रीडाओं को देखना ही व्रजगोपियों की दिनचर्या बन गयी थी।

श्रीकृष्ण का कालियानाग के फणों पर नृत्य (नाग-नृत्य)

संसार में जितनी भी कलाएं हैं, उन सबके आदिगुरु श्रीकृष्ण हैं। नाग-नृत्य अर्थात् नाग के सिर पर नृत्य करने की कला भी भगवान श्रीकृष्ण ने ही प्रकट की। इससे पहले किसी ने ऐसा नृत्य नहीं किया था। इसलिए श्रीकृष्ण का यह एक नृत्यरूप है। भगवान श्रीकृष्ण के इस नृत्यरूप का एक मन्त्र भी है–

कालियस्य फणामध्ये दिव्यं नृत्यं करोति तं।
नमामि देवकीपुत्रं नृत्यराजानमच्युतम्।।

कालियनाग के एक सौ एक फन और मुख थे और उन मुखों में भीषण विष के कुण्ड जल रहे थे। कालिय के फन अभिमान में ऊपर उठे हुए थे और वह उनका समस्त विष श्रीकृष्ण पर उंडेलकर उन्हें भस्म कर देना चाहता था। परन्तु अनन्त बलशाली करुणावरुणालय भगवान श्रीकृष्ण अपने चरणकमलों के स्पर्श से उसे विनम्र बनाने के लिए उसके विशाल फनों पर उछलकर चढ़ गए, मानो वे (नारायण रूप में) अपनी शेषशय्या पर सोने के लिए चढ़े हों–’सौहैं नंद-सुवन तहँ ऐसें, सेस उपर नाराइन जैसें।’

कालिय के मस्तक की मणियों के प्रकाश से भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमलों की लालिमा और भी अधिक अरुण लग रही थी। सुन्दर नटवर वेष में श्रीकृष्ण ने बिना किसी वाद्ययन्त्र और ताल के कालिय के फनों पर स्वयं के मधुर कण्ठ से निकले ‘थैया तथ-तथ, थैया थै-थै, थैया तथ’ पर आनन्दित होकर नृत्य करना आरम्भ कर दिया।

क्रीडत कल कुँमर कान्ह कालिय बदन पर।
चढ़े चलत ठुमुक-ठुमुक, चमकत कुंडल बर।।
कर कंकन, भुजाबंद, कंठहार मनहर।
नयन सुबिसाल, भाल दमकत सुचि तमहर।। (पद-रत्नाकर)

कालिय के फनों पर नृत्य करते हुए श्रीकृष्ण का अद्भुत सौंदर्य सभी के मन को हरने वाला था। ठुमुक-ठुमुक कर नाचते हुए श्रीकृष्ण के विशाल नेत्रकमल, चमकते हुए मकराकृति कुंडल, हाथों में कंकन, भुजाओं में बाजूबंद, सुन्दर कंठहार और दमकता हुआ भाल सभी के मन के संताप दूर कर देने वाला था।

आकाश में स्थित गन्धर्व, सिद्ध, सुर, चारण आदि कहने लगे–‘ओह! बिना वाद्य के ही अपने मुख से निकले ‘थै-थै’ शब्द की ताल पर ही प्रभु नृत्य कर रहे हैं; फिर हम लोग किस समय की बाट देख रहे हैं।’

अब तो कहना ही क्या! आनन्दमग्न होकर गन्धर्वों ने वाद्य उठाए और त्रिभुवन के स्वामी श्रीकृष्ण की ताल और लय में अपनी ताल और लय मिलाकर मधुर संगीत छेड़ दिया। अप्सराएं भी गाने लगीं। स्वर्ग में चारणगण मृदंग, पणव, आनक आदि विभिन्न वाद्ययन्त्र बजाकर श्रीकृष्ण के चरणविन्यास से ताल देने लगे। देवतागण, देववधुएं और अप्सराएं मधुर गीत गाते हुए आकाश से मन्दार और पारिजात के पुष्प श्रीकृष्ण के चरणों में बरसाने लगे। ऋषिगण स्तुतिपाठ करने लगे। सभी अपना सर्वस्व समर्पितकर श्रीकृष्ण की सेवा में उपस्थित हो गए–

करि अस्तुति, सुरसिद्ध गन, सुमन बरषि हरखाइ।
नचत सु काली के फननि, कृष्ण देखि सुख पाइ।।

मनोहर नट-वेष धारण किए भगवान श्रीकृष्ण और भी उत्साह में भरकर नृत्य करने लगे। श्रीकृष्ण को भस्म करने के लिए कालिय जिस फन को उठाता, उसी पर श्रीकृष्ण अत्यन्त तीव्र नृत्यगति से चरणप्रहार कर देते। उस समय भगवान श्रीकृष्ण के चरणों पर जो कालिय के खून की बूंदें पड़तीं थी, उससे ऐसा लगता था मानो रक्त-पुष्पों से उनकी पूजा की जा रही हो।

इस प्रकार एक ओर तो वे नटराज की भांति ताण्डव का रस ले रहे थे और दूसरी ओर दुष्ट कालिय का दर्प दमन कर रहे थे। देखते-ही-देखते उनके नृत्य की गति इतनी तीव्र हो गयी कि गन्धर्व और चारणों की ताल और गायन की कला कुण्ठित होने लगी; उनमें ऐसा कौशल कहां जो श्रीकृष्ण के उद्दाम नृत्यगति के साथ अपनी ताल व तान मिला सकें। नृत्य एक शास्त्र है, उसके कुछ निर्धारित नियम होते हैं। ताल, गीत और नृत्य में सही मेल होना जरुरी है।

तलवार की धार पर, सूत पर तथा अग्नि में भी कुशल कलाकार नृत्य कर लेते हैं; पर यहां सौ फन वाले सर्प के फनों पर नृत्य हो रहा था। भगवान शंकर तो ताण्डव करते हैं, किन्तु श्रीव्रजराज आज विचित्रताण्डव कर रहे हैं। उनका प्रत्येक चरण सर्प के उस फन पर पड़ता, जिसे कालिय उठाना चाहता था। उनकी गीली अलकें (बाल) सूखने लगे और कमर में भीगकर चिपकी काछनी (धोती) थोड़ी-थोड़ी उड़ने लगी और दोनों हाथ उठाए नाच रहे हैं व्रजराज कन्हाई। बेचारा कालिय–इस धमाचौकड़ी से मरणासन्न हो गया। नागपत्नियों की अपने पति को प्राणदान देने की याचना करने पर श्रीकृष्ण ने अपना उद्दाम नृत्य बंद कर दिया।

कियौ सिंगार बिबिध बिधि अनुपम कालिय कीघरिनी मिलि सारी।
मधुर रूप-सुंदरता पर सब त्रिभुवन की सुन्दरता वारी।।

भगवान की ऐसी नाग-नृत्यपरायण बंकिम झांकी का दर्शन और कहीं नहीं देखने को मिलता इसलिए देवगण उनके चरणकमलों में पुष्प अर्पित करते नहीं थक रहे हैं। जिसमें कालियनाग जैसे विषधर सर्प के फनों पर नाचने की सामर्थ्य हो वह कितना अद्भुतकर्मी होगा। श्रीकृष्ण-चरित्र में सबसे बड़ी विचित्रता यही है कि जो वंशी का मधुरनाद रासलीला में सुनायी पड़ता है, वही कालियनाग के फनों पर नृत्य करते समय पाया जाता है, जबकि दोनों अवस्थाओं में कितना अन्तर है!

वेणुर्मधुरो रेणुर्मधुर: पाणिर्मधुर: पादौ मधुरौ।
नृत्यं मधुरं सख्यं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम्।।

अर्थ–आपकी बांसुरी मधुर है, आपके लगाये हुए पुष्प मधुर हैं, आपके हाथ (करकमल) मधुर हैं, आपके चरण मधुर हैं, आपका नृत्य मधुर है, आपकी मित्रता मधुर है, मधुरता के ईश्वर हे श्रीकृष्ण! आपका सब कुछ मधुर है।

इस पोस्ट का शेष भाग ‘नृत्यकला के आदिगुरु भगवान श्रीकृष्ण (II)’ में दिया जाएगा।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here