कृष्णाय वासुदेवाय गोविन्दाय नमो नम:।
सच्चिदानन्दरूपाय निष्कलाय नमो नम:।।
गीता-वक्ता कृष्णजी, गीता-श्रोता पार्थ।
गीता-कर्ता व्यासजी, दिखलाया परमार्थ।।
दिखलाया परमार्थ, तत्त्व समझाया झीना।
भक्तिमार्ग दु:साध्य, साध्य सीधा कर दीना।।
भोला ! भज श्रीकृष्ण, भजा उनको सो जीता।
कृष्ण तजे मर जाय, यही उपदेशत गीता।।

कुरुक्षेत्र में भगवान श्रीकृष्ण के मुखारविन्द से निकली हुई वाणी ‘श्रीमद्भगवद्गीता’

जनमानस में ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ का लोकप्रिय नाम ‘गीता’ है। भगवान के विभूतिरूप मार्घशीर्षमास में भगवान की प्रिय तिथि शुक्लपक्ष की एकादशी (मोक्षदा एकादशी) को धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में साक्षात् भगवान श्रीकृष्ण के मुखारविन्द से निकली हुई वाणी ‘गीता’ है जो उन्होंने अर्जुन को निमित्त बनाकर कही है।

इसके संकलनकर्ता व्यासजी हैं। भगवान श्रीकृष्ण के उपदेश का जो अंश पद्य में था, उसे व्यासजी ने ज्यों-का-त्यों रख दिया। कुछ अंश जो भगवान ने गद्य में कहा था, उसे व्यासजी ने श्लोकबद्ध कर दिया। अर्जुन, संजय और धृतराष्ट्र के वचनों को भी व्यासजी ने श्लोकबद्ध कर दिया। सात सौ श्लोकों के ग्रन्थ को व्यासजी ने अठारह अध्यायों में विभक्त कर दिया जो महाभारत के भीष्मपर्व में हैं। गीता किसी देश, काल, धर्म, सम्प्रदाय या जातिविशेष के लिए नहीं है अपितु सम्पूर्ण मानव-जाति के लिए है।

जीवन जीने की कला सिखाने वाली ब्रह्मविद्या गीता

अलौकिक ग्रन्थ ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ में भगवान श्रीकृष्ण ने मानव-जीवन की क्षणभंगुरता को ध्यान में रखकर मानव के कल्याण के लिए जीवन जीने की कला से सम्बधित सुन्दर शिक्षाओं का उपदेश किया है। संसार में किस प्रकार रहा जाए, इस सम्बध में गीता की कुछ शिक्षाएं इस प्रकार हैं–

गीता हमें सिखाती है कि विभिन्न परिस्थितियों में मनुष्य का क्या कर्त्तव्य है? अपने कर्त्तव्य-कर्म को पहचानने के बाद व्यक्ति को पूरे दृढ़ संकल्प से सफलता-असफलता, हानि-लाभ, सुख-दु:ख की चिन्ता किए बिना अपने कर्त्तव्यों का निर्वहन करना चाहिए। ईश्वर पर दृढ़ विश्वास रखते हुए  मनुष्य को अपनी हर परिस्थिति का डटकर सामना करना चाहिए; परिस्थितियों से भागना नहीं चाहिए। (२।३)

परिवर्तन ही संसार का नियम है। संसार के जितने भी सम्बन्ध हैं, वे सब-के-सब बिछुड़ने वाले हैं। जिसे तुम मृत्यु समझते हो, वही तो जीवन है। न यह शरीर तुम्हारा है, न तुम शरीर के हो। यह शरीर अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी और आकाश से बना है और इसी में मिल जाएगा। जिस प्रकार मनुष्य अपने पुराने वस्त्रों को त्यागकर नए वस्त्र धारण करता है, उसी प्रकार जीवात्मा पुराने शरीर को त्यागकर नए शरीर को धारण करती है। (२।२२)

अत: गीता सिखाती है कि मनुष्य को संसार के साथ अनासक्ति और परमात्मा के साथ नित्य सम्बन्ध रखना चाहिए।

निर्लिप्तता

मनुष्य को संसार में कमल, रबर की गेंद या एक मुसाफिर की तरह रहना चाहिए। जैसे कमल का पत्ता जल में रहता है, पर वह जल से भीगता नहीं, जल उसके ऊपर मोती की तरह लुढ़कता रहता है। इसी तरह रबर की गेंद फुदकती रहती है, पर कहीं पर भी चिपकती नहीं, परन्तु मिट्टी का लोंदा जहां रखो वहीं चिपक जाता है। इसी तरह मनुष्य को ममता का त्यागकर संसार में एक मुसाफिर बनकर रहना चाहिए जहां कुछ समय रहकर उसे वापिस अपने शाश्वत घर को लौट जाना है। इस भावना से रहने पर हम संसार में कहीं पर भी फंसेंगे नहीं। यही संसार में रहने की कला है।

मनुष्य का निर्माण भाग्य नहीं कर्म करता है

मनुष्य योनि कर्मयोनि है। गीता का संदेश है कि हमारी हर बात कर्म पर ही टिकी है। हमारा सुख, शांति, भाग्य, योनि (चौरासी लाख योनियों में से कौन-सी योनि मिलेगी) और मोक्ष सभी कुछ कर्म पर ही निर्भर है। इसलिए मनुष्य को प्रत्येक कर्म अत्यन्त सावधानी के साथ सोच-समझकर करना चाहिए। क्योंकि मनुष्य का निर्माण भाग्य नहीं, उसकी कर्मशक्ति करती है।

सारा संसार कर्ममय है, निष्क्रियता साक्षात् मृत्यु है। काम की पूर्णता में ही जीव को आनन्द मिलता है।

उत्साह के साथ कर्म करो, कर्म करना मनुष्य का कर्त्तव्य है पर यह कर्म निष्काम भाव से होना चाहिए।

मनुष्य अपने कर्मों द्वारा भगवान की पूजा करके मुक्ति को प्राप्त कर सकता है। अज्ञानी मनुष्य फल की आसक्ति से कार्य करते हैं; ज्ञानी मनुष्य लोकहित की इच्छा से आसक्ति रहित होकर कार्य करते हैं। (३।२५)

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्माणि।। (२।४७)

कर्म करने में ही मनुष्य का अधिकार है, कर्मफल में कभी नहीं। कर्मफल परमात्मा के हाथ में है।

मनुष्य को यही सोचना चाहिए कि परमात्मा सबके हृदय में विराजमान हैं, और वे हमसे जैसा करवा रहे हैं, हम कर रहे हैं। गीता का संदेश है कि आसक्ति त्यागकर तथा सफलता-असफलता की चिंता छोड़कर अपने कर्तव्य-कर्मों का पालन करो। (२।४८)

मनुष्य समस्त कर्मों को भगवान को अर्पण कर दे तो संसार में सुख भी मिलेगा और परमात्मा की प्राप्ति भी हो जाएगी।

यत्करोषि यदश्र्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्।। (९।२७)

अर्थात्–‘हे कुन्तीपुत्र! तू जो कुछ करता है, जो कुछ खाता है, जो कुछ यज्ञ करता है, जो कुछ दान देता है और जो कुछ तप करता है, वह सब मेरे अर्पण कर दे।’

मनुष्य को निषिद्ध कर्मों (चोरी, झूठ, छल, कपट, हिंसा आदि) का त्याग कर देना चाहिए।

भय, लोभ, क्रोध आदि नकारात्मक दुर्गुणों का त्याग

परमात्मा की प्राप्ति और सुखी व स्वस्थ जीवन के लिए गीता मनुष्य को नकारात्मक दुर्गुणों से दूर रहकर कर्मठ, उत्साहवान और प्रसन्नचित्त रहने की शिक्षा देती है–

क्यों व्यर्थ चिन्ता करते हो? किससे व्यर्थ डरते हो? कौन तुम्हें मार सकता है? आत्मा न पैदा होती है, न मरती है। आत्मा स्थिर है। आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकते, अग्नि जला नहीं सकती, जल गीला नहीं कर सकता और वायु सुखा नहीं सकती। (२।२३)

गीता का संदेश है कि मनुष्य को त्याग की भावना के साथ इस संसार को भोगना चाहिए। लोभ की प्रवृत्ति पतन कराती है। करुणा व सत्यपथ को अपनाओ। पवित्रता से रहो। अपने आहार-विहार को शुद्ध, पवित्र और परिमित रखो। किसी भी प्राणी के प्रति वैरभाव नहीं रखना चाहिए क्योंकि संसार में जड़-चेतन जितने भी प्राणी हैं सबमें परमात्मा का निवास है।

नहीं किसी से दोस्ती, नहीं किसी से वैर।
नहीं किसी के सिरधणी, नहीं किसी की बैर।।

प्रसन्नचित्त रहने से सम्पूर्ण दु:खों का नाश हो जाता है। (२।६५)
ईर्ष्या का सदैव त्याग करो। (४।२२)।
जो राग-द्वेष नहीं करता उसको भगवान ने अपना प्यारा भक्त बताया है (१२।१७)।

स्वार्थरहित सेवा या लोकोपकार का महत्त्व

हमें जो कुछ मिला है, वह सृष्टि से मिला है, इसलिए उसको सृष्टि की सेवा में ही लगा देना चाहिए।

गीता में निष्कामभाव की बड़ी महिमा है। मनुष्य के द्वारा जितनी ज्यादा सेवा होगी, वह उतना ही अधिक श्रेष्ठ हो जाएगा। संसार से कुछ चाहना अपने-आपको पराधीन बनाना है। संसार में देने के लिए ही रहना है, लेने के लिए नहीं। क्योंकि लेने की इच्छा का नाम ही बंधन है, पराधीनता है। सेवा करते रहने से मनुष्य संसार से ऊपर उठ जाता है, यही मुक्ति है।

गीता का संदेश है कि एकान्त में भगवान के ध्यान करने से ज्यादा निस्वार्थभाव से किया गया लोकोपकार ज्यादा श्रेष्ठ है। (१२।१२)

‘दूसरों के लिए कल्याण-कार्यों को करने वाले मनुष्य की कभी दुर्गति नहीं होती।’ (६।४०)

‘जो मनुष्य प्राणिमात्र के हित में रत रहते हैं, वे मेरे को ही प्राप्त होते हैं।’ (१२।४)

‘मनुष्य को जो वस्तुएं मिली हैं, वह सबकी सेवा के लिए हैं। जो अकेला उसका उपभोग करता है, उसको चोर कहा गया है।’ (३।१२)

गीता सिखाती है चिन्ता, शोक और उद्वेग दूर करने का रामबाण उपाय

जो हुआ वह अच्छा हुआ, जो हो रहा है, वह अच्छा हो रहा है। जो होगा, वह भी अच्छा ही होगा। भूत का पश्चाताप न करो। भविष्य की चिन्ता न करो। वर्तमान में जियो।

तुम्हारा क्या गया, जो तुम रोते हो? तुम क्या लाए थे, जो तुमने खो दिया? तुमने क्या पैदा किया, जो नाश हो गया। न तुम कुछ लेकर आए, जो लिया यहीं (भगवान) से लिया, जो दिया यहीं पर दिया। खाली हाथ आए, खाली हाथ चले जाओगे। फिर भी मनुष्य वस्तुओं और प्राणियों में ‘मैं’ और ‘मेरेपन’ का भाव रखता है। मनुष्य सभी को अपने मन-मुताबिक नहीं बना सकते, जितने दिन चाहें साथ में रह नहीं सकते, न किसी का स्वभाव बदल सकते न ही रंगरूप। तब ये सब ‘मेरे’ और ‘मेरी चीजें’ कैसे उसकी हुईं।

जो आज तुम्हारा है, कल किसी और का था, परसों किसी और का होगा। तुम इसे अपना समझकर प्रसन्न हो रहे हो। बस यही प्रसन्नता ही तुम्हारे दु:खों का कारण है। अत: मनुष्य को मानना चाहिए कि ये संसार, घर, धन, परिवार सब भगवान का है और हम भगवान का ही काम करते हैं। सब चीजें भगवान की मानने से वे प्रसादरूप हो जाएंगी। ऐसा भाव रहने से चिन्ता, भय आदि कुछ नहीं रहेगा।

यह संसार एक रंगमंच है। जहां सभी को खेलना (अपना कर्त्तव्य कर्म करना) है। खेल की चीजों को ‘अपना’ मान लेने से ही अशान्ति आ जाती है। अपनापन छोड़ा और शान्ति मिली। (२।७१)

आज के युग की सबसे बड़ी बीमारी चिन्ता का समाधान बताते हुए भगवान कहते हैं–

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:।। (१८।६६)

अर्थात्–‘तू सम्पूर्ण धर्मों के आश्रयों को छोड़कर केवल एक मेरी शरण में आ जा। मैं तुझे समस्त पापों से मुक्त कर दूंगा, तू चिन्ता मत कर।’ (१८।६६)

भगवान की शरण में जाने का अर्थ है–श्रद्धापूर्वक निष्कामभाव से भगवान की आज्ञा का पालन करना, उनके गुण व स्वरूप का चिन्तन करना एवं हमारे कर्मों के अनुसार जो सुख-दु:ख आदि प्राप्त हों उनमें सम रहना। अपने आपको भगवान के अर्पित करो। यह सबसे उत्तम सहारा है। जो इस सहारे को जानता है, वह भय, चिन्ता और शोक से सदैव मुक्त है।

गीता में भगवान ने मनुष्य को चिन्तामुक्त रहने के लिए कितना सारे आश्वासन दिये हैं–

‘तू मेरे परायण होकर सम्पूर्ण कर्मों को मेरे अर्पण कर दे तो तू मेरी कृपा से सम्पूर्ण विघ्न-बाधाओं को तर जाएगा।’ (१८।५७-५८)

‘मेरे परायण हुए जो भक्त सम्पूर्ण कर्मों को मुझे अर्पण करके अनन्यभाव से मेरा भजन करते हैं, उनका मैं स्वयं संसार-सागर से उद्धार करने वाला बन जाता हूँ।’

‘मुझे भजकर लोग स्वर्ग तक की कामना करते हैं; मैं उन्हें देता हूँ। अर्थात् सब कुछ परमात्मा से सुलभ है।’ (९।२०)

हर परिस्थिति में प्रसन्न, संतोषी और सहनशील बने रहना

संसार में सुख भी आता है और दु:ख भी; क्योंकि सुख-दु:ख, अनुकूलता-प्रतिकूलता संसार का स्वरूप है। परन्तु हमें न सुख का भोग करना चाहिए न दु:ख का। भगवान का कहना है कि सुख-दु:ख तो आने-जाने वाले और अनित्य हैं। उनको तुम सहन करो। जिसका मन समभाव में स्थित है, उन्होंने जीवित अवस्था में ही सम्पूर्ण संसार जीत लिया; क्योंकि समता आने से सब दोष चले जाते हैं।

गीता कहती है कि ये दो तरह-तरह की परिस्थितियां आ रही हैं, उनके साथ मिलो मत, उनमें प्रसन्न-अप्रसन्न मत होओ; वरन् उनका सदुपयोग करो। हमें मिलने वाली वस्तु, परिस्थिति आदि दूसरे व्यक्ति के अधीन नहीं है वरन् प्रारब्ध के अधीन है। प्रारब्ध के अनुसार जो वस्तु, परिस्थिति हमें मिलने वाली है, वह न चाहने पर भी मिलेगी। प्रतिकूल परिस्थिति भी अपने-आप आती है, उसी प्रकार अनुकूल परिस्थिति भी अपने-आप आएगी। इसलिए मनुष्य को केवल निष्कामभाव से अपना कर्त्तव्य करना चाहिए।

प्रारब्ध पहले रचा, पीछे रचा शरीर।
तुलसी चिन्ता क्यों करे, भज ले श्रीरघुबीर।।

गीता में परमात्मा को प्राप्त करने के लिए मनुष्य में समता का होना एक आवश्यक लक्षण बताया गया है–

‘जो शत्रु-मित्र में और मान-अपमान में सम है तथा सर्दी-गर्मी और सुख-दु:खादि द्वन्द्वों में सम है और आसक्ति से रहित है वह भक्त है।’ (१२।१८)

‘जो निरन्तर आत्मभाव में स्थित, दु:ख-सुख को समान समझने वाला, मिट्टी, पत्थर और स्वर्ण में समान भाव वाला, ज्ञानी, प्रिय तथा अप्रिय को एक-सा मानने वाला और अपनी निन्दा-स्तुति में भी समान भाव वाला है, वही गुणातीत है।’ (१४।२४)

इसलिए मनुष्य को अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थिति में हर्ष और शोक नहीं करना चाहिए। सुख-दुख में सम रहना ही गीता का संदेश है।

वासुदेव: सर्वम्

गीता का संदेश है कि संसार परमात्मा का स्वरूप है–वासुदेव: सर्वम् (७।११) और संसार दु:खालयशाश्वतम् (८।१५) भी है। अर्थात् जो संसार की वस्तु, व्यक्ति या कार्यों से सुख लेना चाहता है उसके लिए संसार भयंकर दु:ख देने वाला है परन्तु जो अपनी वस्तु या कार्यों से संसार की सेवा करता है, उसके लिए संसार परमात्मा का स्वरूप है।

सब जग ईश्वर रूप है, भलो बुरो नहिं कोय।
जैसी जाकी भावना, तैसो ही फल होय।।

मनुष्य अपनी भावना के अनुसार ही संसार को सुखालय या दु:खालय मानता है। इसलिए तेरा-मेरा, अपना-पराया, छोटा-बड़ा मन से मिटा दो। फिर सब तुम्हारा है, तुम सबके हो।

सुखी मानव जीवन के लिए शिष्टाचार और सदाचार बहुत महत्वपूर्ण हैं

गीता में मानव जीवन में शिष्टाचार और सदाचार का महत्व दर्शाया गया है। पवित्र हृदय वाला मनुष्य ही शान्ति प्राप्त करता है। विनम्रता, दीनता और वाणी की मिठास का मानव जीवन में बहुत महत्त्व है। अर्जुन के चरित्र में शिष्टाचार और सदाचार के गुण दर्शाकर सभी मनुष्यों को उनका अनुसरण करने की शिक्षा दी गयी है। (गीता २।७)

भगवान के प्रति पूर्ण शरणागति ही जीवनयुद्ध में विजय का आधार

भगवान का एक स्वभाव है कि जिसका भगवान के सिवाय कोई दूसरा सहारा नहीं है, वह भगवान को बहुत प्यारा लगता है। मनुष्य को एकमात्र भगवान का भरोसा करना चाहिए। उन्हीं को अपना भर्ता, त्राता और उद्धर्ता समझना चाहिए।

जो मनुष्य संसार से विमुख होकर भगवान के सिवाय कुछ भी नहीं चाहता है, उसके उद्धार की सम्पूर्ण जिम्मेदारी भगवान पर ही आ जाती है। इसलिए भगवान स्वयं उसके योगक्षेम का वहन करते हैं–

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।। (९।२२)

सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तुनिरामया:

यदि हम सुख चाहते हैं तो दूसरों को भी सुख पहुंचाना हमारा कर्त्तव्य है। मनुष्य को सबकी सेवा करने का भाव और सबको सुख पहुंचाने का भाव रखना चाहिए। सेवा करने से पुराना ऋण उतर जाएगा और सेवा लेने की इच्छा न रहने से नया ऋण नहीं चढ़ेगा और मनुष्य मुक्त हो जाएगा। सबको देने के बाद जो शेष बचता है वह ‘यज्ञशेष’ कहलाता है। गीता कहती है–

‘यज्ञशेष ग्रहण करने वाले मनुष्य समस्त पापों से मुक्त हो जाते है।’ (३।१३)

मनुष्य में ऐसा उदारभाव त्याग से आता है। इसलिए गीता में त्याग की बड़ी महिमा बतलाई गयी है। त्याग से तत्काल शान्ति मिलती है। (१२।१२)।

गीता का आखिरी (७००वां) श्लोक है–

‘यत्र योगेश्वर: कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धर:।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम्।। (१८।७८)

अर्थात्–जिस प्रकार जहां सूर्य रहता है, वहीं प्रकाश रहता है; उसी प्रकार जहां योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन रहते हैं वहीं सम्पूर्ण शोभा, ऐश्वर्य और धर्म रहते हैं। विजय उसी की होती है जिस पक्ष में धर्म रहता है।

अत: हमारी जीवनचर्या धर्मानुकूल होनी चाहिए। मन में कृष्ण का ध्यान, मुख में कृष्ण नाम और कर्मों को कृष्णार्पण करते चलें तो जीवन सचमुच कृष्णमय हो जाएगा। भगवान ने स्वयं कहा है–

‘मुझमें मन लगा दो, मुझमें ही बुद्धि लगा दो। ऐसा करने से मुझमें ही निवास करोगे अर्थात् मुझको ही प्राप्त होओगे, इसमें कुछ संशय नहीं है।’ (१२।८)

‘तू सुखरहित और क्षणभंगुर इस मनुष्य शरीर को प्राप्त होकर निरन्तर मेरा ही भजन कर।’  (९।३३)

संसार में जीवन जीने की कला एक विद्या है। यदि हम उस विद्या को अच्छी तरह जान जाएं तो हमारा बेड़ा पार है।

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