कासी के बसैया परकासी के दिवैया नाथ,
भंग के छनैया अरु गंग के धरैया तुम।
बेस के अमंगल औ जंगल के बासी प्रभु,
तौहू महामंगल हौ मंगल करैया तुम।।

कल्याणकारी शिव

शिव, शम्भु और शंकर–इन तीनों का अर्थ है–कल्याण करने वाला, मंगलमय और परम शान्त। भगवान शिव और उनका नाम संसार के समस्त मंगलों का मूल है। सारे ब्रह्माण्ड में शिव ही सबसे अधिक सुख-शान्ति देने वाले हैं। उनकी सभी लीलाओं में संसार का कल्याण और मंगल ही छिपा होता है। विश्वजननी महामाया उनकी अर्धांगिनी हैं। यह सम्पूर्ण संसार भगवान शिव और उनकी शक्ति शिवा का ही लीलाविलास है; क्योंकि कोई भी कार्य शक्ति के बिना नहीं हो सकता। भगवान सदाशिव का शिवत्व यानि लोकमंगलरूप यही है कि वे संसार का दु:ख दूर करने के लिए स्वयं दु:ख स्वीकार कर लेते हैं, क्योंकि वे भक्तप्रिय और भक्तिप्रिय हैं।

महादेव देवों के अधिपति फणिपति-भूषण अति साजै।
दीप्त ललाट लाल दोउ लोचन उर आनत ही दुख भाजै।।
परम प्रसिद्ध पुनीत पुरातन महिमा त्रिभुवन विस्तारी।
भोलेनाथ भक्त-दुखगंजन भवभंजन शुभ सुखकारी।।

ब्रह्माजी का शुम्भ-निशुम्भ को वरदान

शुम्भ-निशुम्भ दो असुर भाइयों ने तप द्वारा ब्रह्माजी को प्रसन्नकर अमर होने का वरदान मांगा। ब्रह्माजी ने वरदान देते हुए कहा–’यदि तुम पार्वती के अंश से उत्पन्न अयोनिजा कन्या, जिसे किसी पुरुष ने स्पर्श न किया हो, के प्रति कामभाव से पीड़ित होओगे तो वह तुम्हारा वध कर देगी।’

वरदान प्राप्त होने पर दोनों दैत्य निरंकुश हो गए। दैत्यों के उत्पात से तंग आकर ब्रह्माजी ने शिवजी से प्रार्थना की–’इन दोनों शुम्भ-निशुम्भ दैत्यों का वध तभी हो सकता है, जब आप किसी प्रकार जगदम्बा पार्वती को रुष्ट करें। आप एकान्त में पार्वतीजी के रूप-रंग की निन्दा करके उन्हें क्रोध दिलाइए।’

आशुतोष शिव तो हैं ही भोलानाथ। जगत के कल्याण के लिए उन्होंने यह लीला करना भी स्वीकार कर लिया।

देव बड़े, दाता बड़े, शंकर बड़े भोरे।
किये दूर दु:ख सबन के, जिन्ह जिन्ह नें कर जोरे।।

भूतभावन शिव का पार्वतीजी से परिहास

जगदम्बा को रुष्ट करने के अभिप्राय से शिवजी ने परिहास (मजाक) में पार्वतीजी से कहा–‘कृशांगी पार्वती! तुम मेरे कर्पूरगौर शरीर के समक्ष बैठने पर चन्दनवृक्ष से लिपटी काली नागिन जैसी दिखती हो। तुम कृष्णपक्ष में अंधकारपूर्ण रात्रि की तरह मेरी दृष्टि को दूषित कर रही हो।’

भगवान चन्द्रमौलि के इस प्रकार कहने पर पार्वतीजी के नेत्र क्रोध से लाल हो उठे। वे मुख टेढ़ा कर बोलीं–’चन्द्रभूषण! व्यक्ति को अपने द्वारा की गयी मूर्खता का परिणाम भोगना पड़ता है। मुझे नहीं मालूम था कि मेरी दीर्घकालीन कठिन तपस्या का यह परिणाम होगा। न तो मैं कुटिल हूँ और न ही विषम। आपने मुझे ‘कृष्णा’ कहा, तो आप भी ‘महाकाल’ नाम से जाने जाते हैं। कोई स्त्री कितनी ही सुन्दर क्यों न हो, यदि पति का उस पर अनुराग नहीं हुआ तो अन्य समस्त गुणों के साथ उसका जन्म लेना व्यर्थ है। इसलिए आपने जिस वर्ण (रंग) की निन्दा की है, या तो उस वर्ण को त्यागकर अब मैं दूसरा वर्ण ग्रहण करुंगी; अन्यथा मैं यह शरीर त्याग दूंगी।’

पार्वतीजी के इस निर्णय को सुनकर भगवान चन्द्रशेखर स्तम्भित रह गये और बोले–’मैंने मनोविनोद के लिए यह बात कही है। यदि तुम परिहास सहन करने की क्षमता नहीं रखती हो, तो मैं भविष्य में सतर्क रहूंगा। तुम्हें यह पता है कि अपने पिता दक्ष के यज्ञ में जब तुमने यज्ञकुंड में आत्मदाह कर लिया था तब मैं कितना दु:खी हुआ था। इसलिए अब देह त्यागने की बात मत करो। तुम इस जगत की माता हो और मैं पिता; फिर तुम पर मेरा प्रेम न होना कैसे सम्भव हो सकता है?’

भगवान चन्द्रशेखर के वचनों से भी पार्वतीजी का क्रोध शान्त नहीं हुआ क्योंकि शिवजी के व्यंग्यबाणों ने उनके मर्मस्थल को वेध दिया था। शिवजी को तो संसार के कल्याण के लिए पार्वतीजी को क्रोधित करना था। अत: त्रिपुरारि शिव ने पार्वतीजी के क्रोध को और बढ़ाने के लिए कहा–

’पार्वती! तुम अपने पिता हिमाचल की तरह पत्थर-दिल प्रतीत होती हो। तुम्हारी चाल में भी पहाड़ी मार्गों की तरह कुटिलता है। ये सब गुण तुम्हारे शरीर में हिमाचल से ही आए प्रतीत होते हैं।’

शिवजी के इन वचनों ने पार्वतीजी की क्रोधाग्नि में घी का काम किया। उनके होंठ फड़कने लगे, शरीर कांपने लगा और वे आवेश में बोली–

’भगवन्! अब बहुत हो चुका। आप स्वयं हैं पंचमुख, पिता चतुर्मुख, पुत्र को छ:मुख बना दिया। दूसरे पुत्र के सिर पर हाथी का सिर रख दिया। स्वयं हैं भस्मांगधारी, श्मशानविहारी, दिगम्बर–बहुत हुआ तो बाघ या हाथी की खाल पहन ली, नहीं तो बर्फीले पहाड़ों पर नंग-धड़ंग ही घूम रहे हैं। सांप, बिच्छू और आदमी की खोपड़ी अापने अपने श्रृंगार के लिए रखे हैं । सवारी के लिए रखा सीधा-सादा एकदम बूढ़ा बैल। परिजन भी क्या बढ़िया हैं–

कोउ मुख हीन विपुल मुख काहू।
बिनु पद कर कोउ बहु पद बाहू।।
विपुल नयन कोउ नयन बिहीना।
रिष्ट पुष्ट कोउ अति तनु खीना।।

सर्पों के सम्पर्क से टेढ़ापन, भस्म से प्रेमहीनता, चन्द्रमा से हृदय की कलुषता, बैल से दुर्बोधता आप में कूट-कूट कर भर गयी है। श्मशान के निवास के कारण व कपाली होने से आप निर्भीक हो गये हैं, नग्न रहने से लज्जा का आपमें लेश भी नहीं रहा है। लगता है अब मैं आपके योग्य नहीं रही हूँ। अब मैं जीवन का मोह त्यागकर तपस्या करने जा रही हूँ।’

शिवजी बोले–’प्रिये! मैंने तो परिहास किया था। तुम्हें तो पता है कि तुम मेरी शक्ति हो। हम दोनों एक-दूसरे से निष्कामभाव से प्रेम करते हैं। आज भी मैंने इस संसार के हित में ही तुमसे कहा है। वह कार्य जिसके कारण मैंने तुम्हें ‘काली’ कहा है; शीघ्र ही तुम्हारे सामने आ जाएगा।’

पार्वतीजी ने कहा–’मेरा शरीर गौरवर्ण का नहीं है, इस बात को लेकर आपको बहुत खेद होता है, अन्यथा मजाक में भी आप मुझसे ‘काली-कलूटी’ कैसे कह सकते हैं। आप मुझे तपस्या करने की आज्ञा दें। मैं अब इस काले रंग को त्यागकर गौरवर्ण धारण करना चाहती हूँ।’

शिवजी हंसकर बोले–’इसमें तपस्या करने की क्या आवश्यकता है? मैं स्वयं तुम्हारा रंग काले से गौरवर्ण कर सकता हूँ।’ पार्वती ने कहा–’सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने मुझे जो वर्ण प्रदान किया है, तपस्या द्वारा ही मैं ब्रह्माजी को अपना वर्ण बदलने को कहूंगी।’ ऐसा कहकर पार्वतीजी वहां से चली गयीं।

भूतभावन शिवजी मुस्कराते हुए चुप रह गये। देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिए उन्होंने पार्वतीजी को रोकने का प्रयास नहीं किया।

जगदम्बा पार्वती का वाहन सिंह

पार्वतीजी ने तपस्या के लिए उसी तपोवन को चुना जहां भगवान शिव ने सती के देह-त्याग के बाद तपस्या की थी तथा जहां स्वयं शिव को प्राप्त करने के लिए पार्वतीजी ने तपस्या की थी। पार्वतीजी जब तपस्या में लीन थीं, तब एक भूखा व्याघ्र वहां आया। परन्तु पार्वती के पास पहुंचते ही उसका शरीर स्तम्भित हो गया और उसकी भूख-प्यास बुझ गयी। वह बार-बार पार्वतीजी की ओर देख रहा था। वह वहीं पार्वतीजी के पास यह समझकर रह गया कि अब मैं देवी की रक्षा करुंगा।

पार्वतीजी की कठोर तपस्या से प्रभावित होकर ब्रह्माजी हंस पर सवार होकर वहां आए और पार्वतीजी से तपस्या का कारण पूछा। पार्वतीजी ने कहा–’आप जगत के स्रष्टा हैं और मेरे पितामह हैं। मैं अपना कृष्णवर्ण छोड़कर गौरवर्ण की होना चाहती हूँ। यही मेरी तपस्या का अभिप्राय है।’ ब्रह्माजी ने कहा–’यह कार्य तो आप स्वयं करने में समर्थ थीं परन्तु आपकी लीला भी हम सबके हित में ही होगी।’ ब्रह्माजी ‘तथास्तु’ कहकर चले गए।

काली, गौरी और कौशिकी

पार्वतीजी ने उस त्वचा को त्याग दिया और वे गौरवर्ण की हो गयीं। त्यागी हुयी त्वचा से ‘कौशिकी’ नाम की काली का प्रादुर्भाव हुआ। काली अष्टभुजा, त्रिनेत्रों वाली, शंख, चक्र, त्रिशूल, बाण, मूसल, घण्टा, हल लिए पुरुष-स्पर्शहीना महासुन्दरी थी। उन्होंने ही शुम्भ-निशुम्भ दैत्यों का वध किया।

पार्वतीजी ने उस व्याघ्र को अपना वाहन बना लिया और शंकरजी के पास आकर बोलीं–’मैं यह उपहार लाई हूँ। यह मुझे अत्यन्त प्रिय है।’ शंकरजी ने कहा–’जो तुम्हें प्रिय है वह मेरा भी प्रिय है। अब से यह भी गणेश्वर हुआ।’ शिवजी ने उसका नाम ‘सोमनन्दी’ रखा।

भूतनाथ के इस परिहास में छिपे मंगल का पार्वतीजी को तब पता चला, जब वे तप के प्रभाव से ब्रह्मा द्वारा वरदान प्राप्तकर सुन्दर गौरवर्ण व अद्भुत सौन्दर्ययुक्त हो गयीं और पुन: शंकरप्रिया बन गयीं।

नम: शिवाभ्यां नवयौवनाभ्यां
परस्पराश्लिष्ट वपु्र्धराभ्याम्।
नगेन्द्रकन्या बृषकेतनाभ्यां
नमो नम: शंकरपार्वतीभ्याम्।। (उमामहेश्वरस्तोत्रम्)

अर्थात्–नवीन युवा अवस्था वाले, परस्पर आलिंगनयुक्त शरीरधारी, पर्वतराज हिमालय की कन्या पार्वती और वृषभचिह्न की ध्वजा वाले शंकर–ऐसे शिव और शिवा को नमस्कार है।

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