राम से है नेह, स्वर्ण-शैल के समान देह,
ज्ञानियों में अग्रगण्य, गुण के निधान हैं।
महाबलशाली हैं अखण्ड ब्रह्मचारी, यती,
वायु के समान वेग, शौर्य में महान हैं।।
राघव के दूत बन लंक में निशंक गये,
सीता-सुधि लाये, कपि यूथ के प्रधान हैं।
भक्त-प्रतिपाल, क्रूर दानवों के काल-ब्याल,
अंजनी के लाल महावीर हनुमान हैं।।

रुद्रावतार श्रीहनुमान

श्रीरामावतार के समय ब्रह्माजी ने देवताओं को वानर और भालुओं के रूप में पृथ्वी पर प्रकट होकर श्रीराम की सेवा करने का आदेश दिया था। सभी देवता अपने-अपने अंशों से वानर और भालुओं के रूप में उत्पन्न हुए। सृष्टि के संहारक भगवान रुद्र भी अपने प्रिय श्रीहरि की सेवा करने तथा कठिन कलिकाल में भक्तों की रक्षा करने की इच्छा से पवनदेव के औरस पुत्र और वानरराज केसरी के क्षेत्रज पुत्र हनुमान के रूप में अवतरित हुए।

जेहि शरीर रति राम सों सोइ आदरहिं सुजान।
रुद्रदेह तजि नेहबस बानर भे हनुमान।। (दोहावली १४२)

वायुपुराण में भगवान शिव के हनुमान के रूप में अवतार लेने के सम्बन्ध में कहा गया है–

अंजनीगर्भसम्भूतो हनुमान् पवनात्मज:।
यदा जातो महादेवो हनुमान् सत्यविक्रम:।।

अर्थात्–महादेव सत्यपराक्रमी पवनपुत्र हनुमान के रूप में अंजनी के गर्भ से उत्पन्न हए। स्कन्दपुराण में भी ऐसा ही उल्लेख मिलता है।

एक अन्य मान्यता के अनुसार भगवान विष्णु के मोहिनीस्वरूप पर आसक्त शिवजी के स्खलित तेज को देवताओं ने गौतम ऋषि की पुत्री अंजनी के गर्भ में वायु द्वारा स्थापित कर दिया, जिससे शिव के अंशावतार हनुमानजी प्रकट हुए। अत: हनुमानजी रुद्रावतार माने जाते हैं। हनुमान तन्त्रग्रन्थों में उनका ध्यान, जप, मन्त्र आदि रुद्र रूप में ही किया जाता है। हनुमद् गायत्री में भी उन्हें रुद्र कहा गया है–

‘ॐ वायुपुत्राय विद्महे वज्रांगाय धीमहि तन्नो रुद्र: प्रचोदयात्।’

श्रीहनुमानजी की जन्मतिथि

श्रीहनुमानजी की जन्मतिथि के सम्बन्ध में दो मत हैं। प्रथम मत के अनुसार चैत्र शुक्ल पूर्णिमा मंगलवार के दिन शुभ मुहुर्त में भगवान शंकर ने हनुमानजी के रूप में अवतार लिया। जबकि ‘अगस्त्य-संहिता’ के अनुसार कार्तिकमास के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी तिथि को मंगलवार के दिन, स्वाती नक्षत्र में, मेष लग्न की उदयबेला में माता अंजना (अंजनी) के गर्भ से स्वयं शिवजी कपीश्वर हनुमान के रूप में प्रकट हुए।

राजा दशरथ के पुत्रेष्टि-यज्ञ के चरु से हनुमानजी का जन्म

पुराणों में ऐसा वर्णन मिलता है कि राजा दशरथ द्वारा किए गए पुत्रेष्टि-यज्ञ में हवनकुण्ड से उद्भूत चरु (खीर) का जो भाग कैकेयी को दिया गया था, उसे एक चील झपट कर ले गयी। चील के चंगुल से छूटकर वह चरु तपस्या में लीन वानरराज केसरी की पत्नी अंजनी की अंजलि में जा गिरा। तभी आकाशवाणी द्वारा अंजनी को आदेश मिला कि वह इस चरु को ग्रहण करे, जिससे उसे परम पराक्रमी पुत्र की प्राप्ति होगी। उसी चरु के प्रभाव से हनुमानजी का जन्म हुआ। कैकेयी का चरु जब चील झपट कर ले गयी, तब कौसल्या और सुमित्रा ने अपने हिस्से के चरु में से कैकेयी को दिया। इस प्रकार एक चरु से राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न और हनुमानजी प्रकट हुए।

जन्म के कुछ समय बाद बालक हनुमान को भूख से व्याकुल देखकर मां अंजना वन से फल लाने चली गयीं। उस समय सूर्योदय हो रहा था। सूर्य के अरुण बिम्व को फल समझकर बालक हनुमान ने छलांग लगायी और पवन के समान वेग से सूर्यमण्डल में पहुंच गए और सूर्य का भक्षण करना चाहा–

बाल समय रवि भक्षि लियो तब
तीनहुँ लोक भयो अंधियारो।
ताहि सों त्रास भयो जग को,
यह संकट काहु सो जात न टारो।।
देवन आनि करी विनती तब,
छांड़ि दियो रवि कष्ट निवारो।
को नहिं जानत है जग में प्रभु,
संकटमोचन नाम तिहारो।। (संकटमोचन हनुमानाष्टक)

उस दिन ग्रहणकाल होने से राहु भी सूर्य को ग्रसने के लिए पहुंचा था। हनुमानजी ने फल पकड़ने में उसे बाधा समझकर धक्का दे दिया। घबराकर राहु इन्द्र के पास पहुंचा। सृष्टि-व्यवस्था में विघ्न समझकर इन्द्र ने हनुमानजी पर वज्र से प्रहार कर दिया, जिससे हनुमानजी की बायीं ओर की ठुड्डी (हनु) टेढ़ी हो गयी और पृथ्वी पर गिरकर अचेत हो गए। अपने पुत्र पर वज्र के प्रहार से वायुदेव अत्यन्त कुपित हो गए और उन्होंने संसार में अपना संचार बंद कर दिया। वायु ही समस्त जीवों के प्राणों का आधार है, अत: वायु के संचरण के अभाव में संसार में हाहाकार मच गया। सभी जीवों को व्याकुल देखकर पितामह ब्रह्मा उस स्थान पर गए जहां वायुदेव अपने मूर्छित पुत्र को गोद में लिए बैठे थे। ब्रह्माजी के हाथ के स्पर्श से हनुमानजी की मूर्च्छा टूट गयी। सभी देवताओं ने उन्हें अस्त्र-शस्त्रों से अवध्यता का वरदान दिया। ब्रह्माजी ने वरदान देते हुए कहा–’वायुदेव! तुम्हारा यह पुत्र शत्रुओं के लिए भयंकर होगा। रावण के साथ युद्ध में इसे कोई जीत नहीं सकेगा। यह श्रीराम की प्रसन्नता प्राप्त करेगा।’

श्रीरामचरित्र को प्रकाश में लाने के लिए हनुमानजी का अवतार

संसार में ऐसे तो उदाहरण हैं जहां स्वामी ने सेवक को अपने समान कर दिया हो, किन्तु स्वामी ने सेवक को अपने से ऊंचा मानकर सम्मान दिया है, यह केवल श्रीरामचरित्र में ही देखने को मिलता है–

मेरे जियँ प्रभु अस बिसवासा।
रामतें अधिक रामकर दासा।।

श्रीरामचरित्र को प्रकाश में लाने के लिए हनुमानजी का अवतार हुआ। रामायणरूपी महामाला के महारत्न हनुमानजी यदि रामलीला में न हों तो वनवास के आगे की लीला अपूर्ण ही रह जाएगी। भगवान श्रीराम को हनुमान परम प्रिय हैं तो हनुमानजी के रोम-रोम में राम बसते हैं। श्रीरामरक्षास्तोत्र (३०) में हनुमानजी कहते हैं–

माता रामो मत्पिता रामचन्द्र:
स्वामी रामो मत्सखा रामचन्द्र:।
सर्वस्वं मे रामचन्द्रो दयालु-
र्नान्यं जाने नैव जाने न जाने।।

अर्थात्– ’श्रीराम ही मेरे माता, पिता, स्वामी तथा सखा हैं, दयालु श्रीरामचन्द्र ही मेरे सर्वस्व हैं। उनके अतिरिक्त मैं किसी और को जानता ही नहीं।’

प्रभु श्रीराम ने भी हनुमानजी को हृदय से लगाकर कहा–’हनुमान को मैं केवल अपना प्रगाढ़ आलिंगन प्रदान करता हूँ; क्योंकि यही मेरा सर्वस्व है।’

श्रीरामजी के द्वार पर हनुमानजी सदैव विराजमान रहते हैं। उनकी आज्ञा के बिना कोई भी रामजी की ड्योढ़ी में प्रवेश नहीं कर सकता–‘राम दुआरे तुम रखवारे। होत न आज्ञा बिनु पैसारे।।’ हनुमानजी श्रीराम के अंग बतलाए गए हैं। इसलिए हनुमानजी की पूजा किए बिना श्रीराम की पूजा पूर्ण फलदायी नहीं होती।

अतुलित बल के धाम हनुमानजी के लिए की गयी तुलसीदासजी की प्रार्थना आज जन-जन का कण्ठमन्त्र बन गयी है–

अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं
दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्।
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं
रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि।। (रा.च.मा. सुन्दरकाण्ड, मंगलाचरण ३)

शिव और रुद्र में भेदबुद्धि के कारण लंकादहन

हनुमन्नाटक के एक प्रसंग में रावण मन-ही-मन यह सोचता है कि मेरे दसों सिरों को चढ़ाने से शिवजी तो प्रसन्न हो गए, परन्तु एकादश रुद्र को मैं संतुष्ट न कर सका (हनुमानजी ग्यारहवें रुद्र के अंश माने जाते हैं); क्योंकि मेरे पास ग्यारहवां सिर था ही नहीं। इसी कारण शिवकोप से ही मेरी लंका का दहन हुआ। मैंने शिव और रुद्र में भेद किया, मेरी मति मारी गयी थी जो मैंने ऐसा किया। यही भेदबुद्धि नाश का कारण बनती है। इसलिए साधक को शिवजी और रुद्र में दोनों में अभेदबुद्धि रखनी चाहिए।

हनुमानजी ने लिखा था रामचरित-काव्य

कहा जाता है कि हनुमानजी ने अपने वज्रनख से पर्वत की शिलाओं पर एक रामचरित-काव्य लिखा था। उसे देखकर महर्षि वाल्मीकि को दु:ख हुआ कि यदि यह काव्य लोक में प्रचलित हुआ तो मेरे आदिकाव्य का उतना आदर नहीं होगा। वाल्मीकि ऋषि को संतुष्ट करने के लिए हनुमानजी ने वे शिलाएं समुद्र में डाल दीं। सच्चे भक्त में यश, मान, बड़ाई प्राप्त करने की इच्छा नहीं होती, वह तो अपने प्रभु का पावन यश ही संसार में गाता है।

हनुमान जयन्ती के अवसर उनकी कृपा प्राप्त करने के लिए शुद्ध घी मिश्रित सिन्दूर से हनुमानजी के विग्रह का श्रृंगार (चोला चढ़ाना), गुड़, भुना चना, भीगा चना, बूंदी व बेसन के लड्डुओं का भोग, सुन्दरकाण्ड और हनुमानचालीसा का पाठ आदि करना चाहिए।

हे हनुमान! महाबलवान, सुजान महा दु:ख कष्ट मेटैया।
ज्ञान को पोषक, भक्त को तोषक, मोह को शोषक बन्ध कटैया।।
अंजनिपूत, श्रीराम को दूत, भगावत भूत जो जीव डटैया।
राम को दास, पूरे सब आस, मेटे भव त्रास, जो रामरटैया।। (श्रीआनन्दलहरीजी महाराज)

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