shiv bhagwan

अंग में लगाते हैं सदा से चिता की भस्म,
फिर भी शिव परम पवित्र कहलाते हैं।
गोद में बिठाये गिरिजा को रहते हैं सदा,
फिर भी शिव अखण्ड योगिराज कहलाते हैं।।
घर नहीं, धन नहीं, अन्न और भूषण नहीं,
फिर भी शिव महादानी कहलाते हैं।
देखत भयंकर, पर नाम शिव शंकर,
नाश करते हैं तो भी नाथ कहलाते हैं।।

‘हे कामरिपु शंकरजी! आप श्मशानों में क्रीडा करते हैं, प्रेत-पिशाचगण आपके साथी हैं, चिता की भस्म आपका अंगराग है, आपकी माला भी मनुष्य की खोपड़ियों की है। इस प्रकार यह सब आपका अमंगल स्वांग देखने में भले ही अशुभ हो, फिर भी स्मरण करने वाले भक्तों के लिए तो आप परम मंगलमय ही हैं।’ (शिव महिम्न: स्तोत्रम्)

शैव-सिद्धान्तसार में कहा गया है कि प्रलयकाल में शिव के अतिरिक्त दूसरा कोई नहीं रहता, ब्रह्माण्ड श्मशान हो जाता है, उसकी भस्म और रुण्ड-मुण्ड में शिव ही व्यापक होता है, अत: ‘चिताभस्मालेपी’ और ’रुण्डमुण्डधारी’ कहलाता है न कि वह अघोरियों के समान चिता-निवासी है।

कल्पान्तकाले प्रलुठत्कपाले
समग्र लोके विपुल श्मशाने।
त्वमेक देवोऽसि तदावशिष्ट
श्तिताश्रयो भूतिधर: कपाली।।

भगवान शिव समन्वय के प्रतीक हैं। उनके लिए अच्छा-बुरा सब समान है। कोई भी वस्तु उनके लिए अप्रिय नहीं है। श्मशान और राजमहलों का निवास उनके लिए समान है। चंदन और चिताभस्म दोनों को ही वे सहज रूप में स्वीकार करते हैं। भस्म या चिताभस्मलेप शिव के ज्ञान-वैराग्य और विनाशशील विश्व में अविनाशी (भस्म) के वरण का संकेत देता है। सर्वलोकाधिपति होकर भी भगवान शंकर ने विभूति और व्याघ्रचर्म को ही अपना भूषन-बसन बनाकर संसार में वैराग्य को ही श्रेष्ठ बतलाया है।

भगवान शिव के भस्म धारण करने का रहस्य

भगवान शिव ने भस्म शब्द का अर्थ इस प्रकार बताया है–जैसे राजा अपने राज्य में कर लगाकर उन्हें ग्रहण करता है, जैसे मनुष्य भोज्य पदार्थों को पकाकर उसका सार ग्रहण करता है तथा जैसे जठरानल तरह-तरह के भोज्य पदार्थों को अधिक मात्रा में ग्रहणकर उसको पचाकर उसका सारतत्त्व पोषण रूप में लेता है, उसी प्रकार परमेश्वर शिव ने भी संसाररूपी प्रपंच को जलाकर भस्मरूप से उसके सारतत्त्व को ग्रहण किया है। शिव ने राख, भभूत को पोतने के बहाने जगत के सार को ही ग्रहण किया है। भगवान शंकर तम, प्रलय के देवता है। प्रलयाग्नि के समय शिव में ही सब संसार समा जाता है। जो बचता है वह रुद्राग्नि का वीर्य है, वही ‘भस्म’ कहा गया है।

भस्म धारण करने का वैज्ञानिक कारण

भगवान शंकर ने सर्वप्रथम भस्म का प्रयोग करना सिखाया है। वे स्वयं शरीर पर भस्म लगाकर रहते हैं जबकि और कोई देवता इसका प्रयोग नहीं करते हैं। इसी कारण वे ‘भस्माधार’, ‘भस्मांग’, ‘भस्मांगरागाय’ कहलाते हैं। शरीर पर भस्म लगाने का वैज्ञानिक कारण है। भगवान शंकर कैलासपर्वत के निवासी हैं। जहां बहुत सर्दी के कारण ठण्डी हवा का प्रभाव शरीर पर पड़ता है। परन्तु भस्म में शरीर की रक्षा का गुण होता है। साधु-संत जो शंकरजी की तरह केवल कौपीन धारण कर और जटाधारी होकर गांव-शहर के बाहर जंगलों में रहते हैं, वे आज भी भस्मलेपन कर शरीर की रक्षा करते हैं। इससे उनका शरीर सभी शारीरिक व मानसिक व्याधियों से दूर रहता है।

भस्म के अन्य नाम व महत्व

इस भस्म को ब्रह्म का भास कराने से ‘भासित’ कहते हैं। पापों का भक्षण करने के कारण उसका नाम ‘भस्म’ है। भूति (ऐश्वर्य तथा सिद्धियां) प्रदान करने से उसे ‘भूति’ या ‘विभूति’ भी कहते हैं। विभूति रक्षा करने वाली है, अत: उसका एक नाम ‘रक्षा’ भी है। भस्म शिवभक्तों के लिए बड़ा भारी अस्त्र है।  जो सभी समय भस्म लगाये रहता है उसके सारे दोष उस भस्माग्नि के संयोग से जलकर भस्म हो जाते हैं। भस्म लगाने वाले को भस्मनिष्ठ कहा गया है। भूत, प्रेत, पिशाच भस्मनिष्ठ से दूर भागते हैं। मन्दिरों में हवन की भस्म को प्रसादरूप से मुंह में रखने व तिलक लगाने से शरीर के कठिन रोग दूर हो जाते हैं।

पार्वतीजी के शब्दों में भस्म का महत्व

भगवान शंकर को पति रूप में प्राप्त करने के लिए पार्वतीजी जब घोर तपस्या कर रही थीं, तब उनकी परीक्षा करने के लिए भगवान शंकर वृद्ध ब्राह्मण के वेश में उनके पास आए और बोले–’जरा सोचो तो सही, कहां तुम्हारा सुकुमार शरीर और त्रिभुवनकमनीय सौन्दर्य और कहां जटाधारी, चिताभस्मलेपनकारी, श्मशानविहारी, त्रिनेत्र भूतपति महादेव! उस उत्कट विरागी के साथ रहकर तुम क्या सुख पाओगी?’

अंग में रमाये भस्म कटि मृगछाला भव्य,
वाम अंग गौरी संग चढ़िवे कूं बैला है।
पास नहिं कौड़ी एक दान में महान शिव,
दीन कौ दयालु ‘लाल’ शम्भु अलबेला है।।

पार्वतीजी शिव निन्दा न सह सकीं और बोली–उनका मंगलमय नाम ‘शिव’ है जिनके दर्शनमात्र से ही समस्त अपवित्र वस्तुएं भी पवित्र हो जाती हैं। जिस चिताभस्म की तुम निन्दा करते हो, नृत्य के अंत में जब वह उनके श्रीअंगों से झड़ती है, उस समय देवतागण उसे अपने मस्तक पर धारण करने को लालायित रहते हैं।

दुर्वासा के शरीर से झड़े भस्म के कणों से कुम्भीपाक नरक बन गया स्वर्ग

रुद्रावतार महर्षि दुर्वासा एक बार घूमते हुए पितृलोक में गए। सर्वांग में भस्म रमाए, रुद्राण धारण किए, कमण्डलु व त्रिशूल लिए व ‘जय पार्वती हर’ का उच्चारण करते हुए वहां उन्होंने अपने पितरों के दर्शन किए। तभी उन्हें वहां भीषण क्रन्दन व रुदन सुनाई पड़ा। उन्होंने वहां के अधिकारियों से इस करुण क्रन्दन का कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि यहां ‘कुम्भीपाक’ नामक नरक हैं। उन्हीं घोर पतितों का करुण क्रन्दन आपको सुनाई पड़ रहा है।

उन दुखियों को देखने के लिए दुर्वासा मुनि ने जैसे ही उस कुण्ड में झांका, वहां का दृश्य ही बदल गया। किसी को भी यमयातना रह ही नहीं गयी। धर्मराज इसका कारण जानने के लिए भगवान शंकर के पास गए और पूछा–’देवाधिदेव आप तो सर्वज्ञ हैं। कुम्भीपाक नरककुण्ड एकाएक स्वर्ग के समान हो गया, इसका क्या कारण है?’ भगवान शंकर ने हंसते हुए कहा–’यह विभूति (भस्म) का ही माहात्म्य है। जिस समय दुर्वासा उस कुण्ड में झांकने लगे, उनके मस्तक पर लगी भस्म के कुछ कण वायु से वेग से उस कुण्ड में गिर पड़े और वह नरक स्वर्ग के समान हो गया। अब यह ‘पितृतीर्थ’ के नाम से प्रसिद्ध होगा।’

चिताभस्म की महिमा सम्बन्धी भील-भीलनी की कथा

पंजाब में सिंहकेतु नाम का एक राजा शिकार करने जंगल में गया। राजा के साथ चण्ड नामक एक भील सेवक भी था। रास्ते में उन्हें एक शिवमन्दिर का खण्डहर मिला जिसका शिवलिंग टूटकर जलहरी से अलग हो गया था। पूर्वजन्मों के पुण्य से चण्ड को वह शिवलिंग बहुत सुन्दर लगा और उसने उसे आदरपूर्वक साथ ले लिया। चण्ड ने राजा से कहा–’इन सुन्दर शिवजी पर मुझे बड़ी श्रद्धा है, पर मैं मूर्ख पूजा करना नहीं जानता। आप कृपा करके मुझे पूजा की विधि बतला दें।’

राजा ने भील की सरलता पर मजाक में उससे कहा–’इन्हें रोज नहलाकर फिर फूल-बेलपत्र चढ़ाकर धूप-दीप दिया करना। अपने भोजन करने योग्य अन्न द्वारा भगवान को नैवेद्य लगाना। शिवजी को चिता की राख बहुत प्रिय है, इससे चिताभस्म नित्य जरुर लगाया करना। देखना, चिता की ही राख हो। फिर भोग लगाकर इनके सामने नाचा-गाया करना। चिता-भस्म लगाने से कभी चूकना नहीं।’

सरल-हृदय चण्ड राजा की बात अक्षरश: मानकर शिवलिंग की पूजा करने लगा। चिताभस्म के लिए राजा ने जोर देकर कहा था, इसलिए श्मशान में जाकर वह चिताभस्म जरुर लाता था। इस तरह पूजन करते कई वर्ष बीत गए। एक दिन उसके पास चिताभस्म खत्म हो गयी। वह चिताभस्म लाने गया पर उस दिन उसे कहीं भी चिताभस्म नहीं मिली। निराश होकर उसने पत्नी से कहा–’आज मुझ पापी को चिताभस्म कहीं नहीं मिली, शिवजी की पूजा में बड़ा विघ्न हो गया। इनकी पूजा किए बिना मैं कैसे जी सकता हूँ?’

पति को दु:खी देकर भीलनी ने कहा–’तुम इसके लिए कोई चिन्ता मत करो। तुम पूजा शुरु करो, मैं अभी चिताभस्म का प्रबन्ध कर देती हूँ। इस पुराने घर में आग लगाकर मैं उस अग्नि में प्रवेश कर जाऊंगी, इससे तुमको कई दिनों के लिए चिताभस्म मिल जाएगी। शरीर तो एक दिन नष्ट होने वाला ही है, यदि यह भगवान की सेवा में लगे, शिवजी के काम आए और तुम्हारी पूजा पूरी हो तो इससे ज्यादा क्या इसकी सफलता होगी? अत: तुम ज्यादा विचार न करो।’

भीलनी ने घर में जाकर स्नानकर धुले वस्त्र पहने और घर में आग लगा दी और अग्नि की तीन परिक्रमा लगाकर शिवजी का ध्यान करती हुई प्रार्थना करने लगी। उस अशिक्षित भीलनी को आज शिवकृपा से शिवतत्त्व का पूर्ण ज्ञान हो गया था। भीलनी ने कहा–

‘मेरे ईश्वर! मेरी इन्द्रियां आपकी पूजा के लिए पुष्प हों, यह शरीर धूप और अगरु हों, हृदय दीपक हो, प्राण हविष्य (भोग) का काम दें और कर्मेन्द्रियां आपके लिए अक्षत हों। मैं न तो कुबेर का पद चाहती हूँ, न अक्षय स्वर्ग चाहती हूँ और न ही मुझे ब्रह्मपद की इच्छा है; मेरे चाहे कितने भी जन्म हों पर सबमें मेरा मनरूपी भंवरा आपके चरणकमलों का पराग चूमने में लगा रहे। जिसका चित्त निरन्तर परमेश्वर की भक्ति में लगा है, त्रिभुवन में उससे बढ़कर धन्य और कौन है?’

इस प्रकार प्रार्थना करती हुई भीलनी अग्नि में जलकर भस्म हो गयी। चण्ड भील ने बड़े प्रेम से उस भस्म से भगवान भूतनाथ का पूजन किया। भोग लगाकर वह गद्गद् स्वर में पत्नी के त्याग और भक्ति का स्मरण करता हुआ प्रभु से प्रार्थना करने लगा।

पूजन के अंत में प्रसाद लेने को नित्य आने वाली अपनी पत्नी को स्वभाववश वह पुकारने लगा। स्मरण करते ही वह पहले की भांति उसे अपने समीप दिव्य देह धारण किए खड़ी दिखलायी दी। उसने आश्चर्यचकित होकर पूछा–’तुम तो अग्नि में जल गयी थीं, यहां कैसे आ गयीं? मैं सपना तो नहीं देख रहा हूँ?’ भीलनी ने कहा–’यह सपना नहीं, सचमुच मैं तुम्हारे सामने खड़ी हूँ। मुझे तो पता भी नहीं कि मैं कब जली हूँ? मुझे तो ऐसा लगा कि मैं जल में घुसी हूँ और कुछ समय तक सोए रहने के बाद नींद से जागी हूँ। अब प्रसाद के लिए यहां आई हूँ।’

तभी आकाश से एक अलौकिक विमान वहां उतर आया और शिवजी के दिव्य दूत उन दोनों को विमान पर बिठाकर शिवलोक में ले गए। वास्तव में श्रद्धायुक्त भगवदराधना का ऐसा ही माहात्म्य है।

शिवपूजन से पहले भस्म धारण करें

शिवजी द्वारा अपने शरीर में भस्म धारण करने के कारण उनके अनुयायियों को भी भस्म धारण करना चाहिए। जिस प्रकार राजा अपने चिह्न से अंकित व्यक्ति को अपना स्वजन समझता है उसी प्रकार भगवान शिव त्रिपुण्ड-चिह्न धारण करने वाले को सदा अपना मानते हैं। शिव पूजा से पहले यज्ञ भस्म या अग्निहोत्र से प्राप्त भस्म या वैवाहिक अग्नि से प्राप्त भस्म को जल में मिलाकर ‘नम: शिवाय’ इस मन्त्र से शरीर में पांच स्थानों–मस्तक, दोनों भुजाएं, हृदय और नाभि पर लगाना चाहिए। मस्तक पर त्रिपुण्ड्र लगाएं, इससे शिवपूजा का तत्काल फल प्राप्त होता है। भस्म धाण करने से मनुष्य को सम्मान प्राप्त होता है।

इस प्रकार बनाएं शुद्ध भस्म

भगवान शिव के अघोरमन्त्र  (ॐ अघोरेभ्योऽथ घोरेभ्यो घोरघोरतरेभ्य: सर्वेभ्य: सर्वशर्वेभ्यो नमस्तेऽस्तु रुद्ररूपेभ्य: अर्थात् जो अघोर हैं, घोर हैं, घोर से भी घोरतर हैं और जो सर्वसंहारी रुद्ररूप हैं, आपके उन सभी स्वरूपों को मेरा नमस्कार हो।) पढ़कर बेल की लकड़ी को जलाएं। उस मन्त्र से अभिमन्त्रित अग्नि को ‘शिवाग्नि’ कहा जाता है। गोमय के कंडे, पीपल, शमी, पलाश, बड़, अमलतास और बेर आदि की लकड़ियों को शिवाग्नि से जलाकर बना हुआ भस्म ही शुद्ध भस्म माना जाता है। उस भस्म को कपड़े से छानकर नए घड़े में भरकर रख लें और शिवपूजन से पहले उसे धारण करें।

कामदेव को भस्म करने वाले भगवान शिव के अंग के भूषणस्वरूप यह भस्म त्रिपुण्डरूप में ललाट पर धारण करने पर विधाता के द्वारा ललाट पर लिखे गए दुर्भाग्य के अक्षरों को भी मिटा देती है।

अंग विभूति रमाय मसानकी विषमय भुजंगनि कौं लपटावैं।
नर कपाल कर मुण्डमाल गल भालु चरम सब अंग उढ़ावैं।
वीर दिगम्बर, लोचन तीन भयानक देखि कैं सब थर्रावैं।
बड़भागी नरनारि सोई जो साम्ब सदाशिव कौं नित ध्यावैं।। (शिवाष्टक)

उज्जैन के महाकालेश्वर मन्दिर में एक अलग तरह की भस्म आरती होती है।

3 COMMENTS

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here