कन्हैया की आंखें हिरन-सी नशीली।
कन्हैया की श़ोखी कली-सी रसीली।।
कन्हैया की छबि दिल उड़ा लेने वाली।
कन्हैया की सूरत लुभा लेने वाली।।
कन्हैया की हर बात में एक रस है।
कन्हैया का दीदार सीमीं क़फ़ है।। (हजरत ‘नफीस खलीली’)

मानव हृदय प्रेम का भूखा है। वह चाहता है कि वह अपने हृदय के प्रेम को और इस दु:खमय संसार की सारी विपदा-सुखदा को किसी के चरणों में अर्पित कर भूल जाये। वैष्णवधर्म प्रेम का धर्म है। स्वयं परब्रह्म आनन्दकन्द भगवान श्रीकृष्ण समस्त सौन्दर्य, माधुर्य, ऐश्वर्य, लावण्य, श्री, ज्ञान और वैराग्य के अनन्त भण्डार हैं। अत: उनका रूप और लीलाएं भी चिन्मय, अलौकिक और प्रेमरस से सराबोर हैं।

मेघश्याम, रसराज श्रीकृष्ण ऐसे हैं कि एक बार उनकी ओर जिसकी दृष्टि गयी, वही अपनी सुध-बुध भूलकर उनपर लट्टू हो गया। प्रेम के दीवाने अनेक कवियों ने अपने आपको श्रीकृष्ण भक्तिरस से भिगोया है। इन भावुक कवियों ने व्रज की कुंजगलियों की पवित्र रज में लोट-लोटकर उन सांवले-सलौने श्रीकृष्ण को रिझाने के लिए अपने अपार प्रेम को गाढ़ी चाशनी में पागकर निर्मल भक्ति के अथाह रस से उन्हें सराबोर कर डाला है।

इन भक्तकवियों की रसिक टोली ने व्रजराजकुमार श्रीकृष्ण की बांकी सूरत पर अपने को न्यौछावर कर दिया और अपने शब्दों से उन्हें रिझाया। यद्यपि भगवान श्रीकृष्ण अनादि, अनन्त, अगोचर परमब्रह्म, परमात्मा, परमेश्वर आदि माने जाते हैं परन्तु भक्तकवियों की दृष्टि में वे कुंजबिहारी, बनवारी, पीतपटधारी, रसिक, रंगीले, छबीले, मुरलीवाले, बांकेबिहारी, नटवरनागर हैं। सांवले-सलौने श्रीकृष्ण ऊपर से ही मनमोहक नहीं हैं वरन् भीतर भी सुधारस से लबालब हैं। वे रसिक भक्तों के लिए सदा ही मधुरातिमधुर हैं। जिस समय वह मयूरकिरीट और मकराकृत कुण्डल से सजते हैं, पीताम्बर और वैजयन्तीमाला धारण करते हैं तथा ‘बैरन बँसरिया’ को मधुर अधरों पर धरते हैं, उनकी उस रूपमाधुरी पर मोहित हुए न जाने कितने प्रेम दीवाने अपना सब कुछ त्यागकर उन्हीं के होकर रह गए। ऐसे ही कुछ भक्तकवियों की एक झलक यहां प्रस्तुत है–

⭐️ आगरा के भक्त कवि ‘नजीर’ अकबराबादी श्रीकृष्ण का गुणगान करते हुए नहीं थकते–

तारीफ करुँ मैं अब क्या-क्या उस मुरली-धुन के बजैया की,
नित सेवा-कुंज फिरैया की और बन-बन गऊ चरैया की।
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यह लीला है उस नंद-ललन मनमोहन जसुमति-छैया की,
रख ध्यान सुनो, दंडौत करो, जै बोलो कृष्ण कन्हैया की।।

‘नजीर’ ने श्रीकृष्ण की बाललीलाओं का बड़ा ही सुन्दर वर्णन किया है–

यारो सुनो ये दधि के लुटैया का बालपन,
औ मधुपुरी नगर के बसैया का बालपन।
मोहनसरुप नृत्य करैया का बालपन,
बन-बन के ग्वाल गौवैं चरैया का बालपन।
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन,
क्या-क्या कहूँ मैं कृष्ण कन्हैया का बालपन।।

⭐️ मुगल सम्राट अकबर के फुफेरे भाई और मन्त्री अब्दुर्रहीम ख़ानखाना (रहीम) श्यामसुन्दर की छवि को मन से हटा ही नहीं पाते और कहते हैं–

कमल-दल नैननि की उनमानि।
बिसरत नाहिं मदनमोहन की मंद-मंद मुसुकानि।।

रहीम के हृदय में श्रीकृष्ण के अतिरिक्त किसी दूसरे के लिए स्थान ही नहीं था। यह बड़ी ऊंची उपासना है। इसमें अपने इष्ट श्रीकृष्ण के सिवा संसार के किसी दूसरे पदार्थ से राग या लगाव नहीं रह जाता है–

मोहन छबि नैनन बसी, पर-छबि कहां समाय।
रहिमन भरी सराय लखि आप पथिक फिरि जाय।।
आजा मेरे मोहना पलक ओट तोहुं लेय।
ना मैं देखूं कोई और कूं ना तोय देखन देय।।

रहीम श्रीकृष्ण को क्या नजराना पेश करते हैं, प्रस्तुत है उसकी एक झलक–‘जब रत्नाकर (समुद्र) तो आपका घर है और लक्ष्मी आपकी गृहिणी है, तब हे जगदीश्वर! आप ही बतलाइए कि आपको देने योग्य क्या वस्तु बच रही? हां, एक बात है, राधिका ने आपका मन चुरा लिया है, वही आपके पास नहीं है, इसलिए मैं अपना मन आपको अर्पण करता हूँ, कृपया ग्रहण कीजिए।’

श्रीकृष्ण की कृपा पर उनको कितना भरोसा है कि अब उन्हें संसार में किसी से डर नहीं लगता-

रहिमन को कोउ का करे, ज्वारी चोर लबार।
जो पत राखनहार है, माखन-चाखनहार।।

श्रीकृष्ण के द्वारकावासी होने पर रहीमजी व्रजवासियों की ओर से उलाहना देते हुए कहते हैं कि यदि हमारा यही हाल करना था तो अापने हाथ पर गोवर्धन पर्वत क्यों उठाया?–

जो रहीम करिबो हुतो, व्रज को यही हवाल।
तो काहे कर पर धरयो, गोवर्धन गोपाल।।

⭐️ भगवत्प्रेमी रसखान का मन भगवान श्रीकृष्ण के सौंदर्य एवं उनकी लीलास्थली व्रजभूमि में ही अधिक रमा है। श्रीकृष्ण के रूप-लावण्य, व्रज के लता-गुल्म, करीलकुंज, यमुनातट, वंशीवट, गोचारण, वंशीवादन तथा दही-माखन के प्रसंगों का रसखान ने जो चित्रण किया है, वह दुर्लभ है। रसखान की रसिकता और प्रेमाभक्ति ने उन्हें भक्तजनों में सदा के लिए अमर कर दिया। रसखान के कृष्णप्रेम का एक उदाहरण है–

‘जिस दिन से वह नन्दलाल इस व्रज में गायें चरा गया है और मोहक स्वरों में बांसुरी बजाकर लुभा गया है, उसी दिन से कुछ रोग-सा देकर सबके हृदय में प्रवेश कर गया है, जिससे व्रज के सभी लोग उसके हाथ बिक गये हैं।’

रसिक रसखान तो कृष्ण की रूपमाधुरी पर न्यौछावर होकर अगले जन्म में भी गोकुल एवं व्रज के पशु-पक्षी, पत्थर बनकर ही कन्हैया के दास बने रहना चाहते हैं–

मानुष हौं तौ वही ‘रसखानि’, फिरौं मिलि गोकुल-गांव के ग्वारन।
जो पशु हौं, तौ कहा बस मेरो, चरौं नित नंद की धेनु-मँझारन।।
पाहन हौं, तो वही गिरि को, जो धरयो पुर-छत्र पुरन्दर धारन।
जो खग हौं, तौ बसेरो करों नित, कालिंदी-कूल कदम्ब की डारन।।

भगवान श्रीकृष्ण का जितनी भी चीजों से सम्बन्ध रहा है–व्रज, यमुना, गौएं, ग्वाल-बाल, लकुटी, मुरली, या काली कामर–इन सब चीजों के लिए रसखान संसार की अमूल्य सम्पदा भी न्यौछावर करने के लिए तैयार थे। अपना सर्वस्व समर्पण ही रसखान के श्रीकृष्णप्रेम की पराकाष्ठा है–

या लकुटि अरु कामरिया पर, राज तिहूँ पुर को तजि डारौं,
आठहु सिद्धि नवो निधि को सुख, नंद की गाय चराय बिसारौं।
‘रसखान’ सदा इन आँखिन सों, व्रज के बन बाग तड़ाग निहारौं,
कोटिन हू कलधौत के धाम, करील की कुंजन ऊपर वारौं।।

रसखान कहते हैं मैंने विधाता की कहां-कहां खोज नहीं की। उसे वेद, पुरान सभी जगह ढूंढा; पर वह मुझे कहां मिला–‘देख्यो कहां? वह कुंजकुटी-तट, बैठो पलोटत राधिका पायन।।’

प्रेमाभक्ति का सच्चा अर्थ बताते हुए रसखान कहते है–’प्राण वे ही हैं जो प्रियतम श्रीकृष्ण के लिए सदा बेचैन रहें, रूप वही सार्थक है जो प्रियतम को रिझा ले, सिर, पैर व शरीर वही सार्थक हैं जो प्यारे श्रीकृष्ण का स्पर्श करें, दूध वही अच्छा है जिसे उन्होंने दुहवाया हो, और दही वही अमृत है जिसे उन्होंने ढरका दिया हो, स्वभाव भी वही सुन्दर व सार्थक है जिसे वे सांवले-सलोने सुहावने लगें।

⭐️ ‘ताज’ बेगम पीताम्बरधारी श्रीकृष्ण से नाता जोड़कर केवल श्रीकृष्ण की बनी रहना चाहती थीं। उनकी श्रीकृष्ण भक्ति की पराकाष्ठा देखिए–

सांवला सलौना सिरताज सिर कुल्लेदार,
तेरे नेह-दाग में, निदाग ह्वै दहूंगी मैं।
नन्द के कुमार, कुरबान ताणी सूरत पै,
हौं तौ मुगलानी, हिन्दुवानी ह्वै रहूंगी मैं।।

एक अन्य पद में ‘ताज’ कहती हैं कि वह छैल-छबीला, रंग-रंगीला, चित्त का अड़ियल, और सभी देवताओं से अलग, दुष्टों का काल, संतों का रक्षक, वृन्दावन का नन्दलाल ही मेरा पति है–

छैल जो छबीला, सब रंग में रंगीला,
बड़ा चित्त का अड़ीला, कहूं देवतों से न्यारा है।
माल गले सोहै, नाक-मोती सेत सोहै,
कान कुंडल मन मौहे, मुकुट सिर धारा है।।
दुष्ट जन मारे, सतजन रखवारे, ‘ताज’
चित्त में निहारे, प्रेम प्रीति करन वारा है।
नन्दजू का प्यारा, जिन कंस को पछारा,
वह वृन्दावनवारा, कृष्ण साहेब हमारा है।।

⭐️ ‘शेख’ साहब श्रीकृष्ण की बांसुरी से परेशान हैं जो हर समय श्रीकृष्ण के साथ रहती है। वे श्रीकृष्ण से चुटकी लेते हुए कहते हैं–

हम व्रज बसिहैं, तौ बांसुरी न बसै यह,
बांसुरी बसाय, कान्ह हमें विदा दीजिए।

⭐️ लालामूसा के एक भक्त कवि को हर चीज में श्रीकृष्ण ही दिखाई देते हैं। उस सांवरे की छवि में जादू ही ऐसा है, जिसने एक बार भी भूले-भटके उन्हें निहार लिया, वही उनका हो गया-

जहां देखो वहां मौजूद, मेरा कृष्ण प्यारा है,
उसी का सब है जल्वा, जो जहां में आशकारा है।।

⭐️ वाहिदजी ने समस्त संसार से ममता हटा कर केवल श्रीकृष्ण से लगन लगायी–

सुन्दर सुजान पर, मंद मुसुकान पर,
बाँसुरी की तान पर ठौरन ठगी रहै।
मूरति बिसाल पर, कंचन की माल पर,
खंजन-सी चाल पर खौरन खगी रहै।।

⭐️ यकरंगजी के दिल में कन्हैया बसते है इसलिए उनका मनमोर घनश्याम के नाम पर नाच उठता था। उनके शब्दों में–

सांवलिया मन भाया रे।
सोहिनी सूरत मोहिनी मूरत, हिरदै बीच समाया रे।।
देस में ढूंढ़ा, विदेस में ढूंढ़ा, अंत को अंत न पाया रे।।

⭐️ मौजदीन कहती हैं–

वृंदावन की कुंजगलिन में,
ढूंढत ढूंढत हारी।
दैहौ दरस मोहि अपनी मौज से,
एहो कृष्ण मुरारी, पिया मोहि आस तिहारी।।

⭐️ फ़रहत का श्रीराधाकृष्ण की होली का वर्णन देखिए–

मारो मारो हो स्याम पिचकारी हो।
ताक लगाये खड़ी सखियन संग
ओट लिए राधा प्यारी हो।
देखो देखो स्याम वहै कोउ आवति,
अबीर लिये भरि थारी हो।।
इक पिचकारी और प्रभु मारो
भींज जाय तन सारी हो।
‘फ़रहत’ निरखि-निरखि यह लीला,
हरिचरनन बलिहारी हो।।

⭐️ बुल्ला साहब ने तो ताल ठोक कर कह दिया कि मन-वचन और कर्म से की गयी गोपाल की भक्ति ही सच्ची भक्ति है–

साची भगति गुपालकी मेरो मन माना।
मनसा-वाचा-कर्मना सुनु संत सुजाना।।

⭐️ रहीम, रसखान और ताज बेगम की परम्परा में ही इस शताब्दी में मोहम्मद याकूब खां उर्फ ‘सनम साहब’ हुए हैं। अजमेर निवासी सनम साहब ने १९२० से लेकर १९४४ तक देश भर में कृष्ण भक्ति का प्रचार किया। उन्होंने अजमेर में कृष्ण-भक्ति साहित्य पर ‘श्रीकृष्ण लाइब्रेरी’ की स्थापना की। अंत में १९४५ में एक दिन अपने इष्टदेव भगवान श्रीकृष्ण की लीलाभूमि व्रज की पावन मिट्टी में अपना शरीर समर्पण कर दिया।

इन भक्त कवियों की ऐसी मधुर कृतियां अंतस्तल पर अमिट प्रभाव छोड़ती हैं। बस जरुरत है थोड़े मनन की और हृदय में श्रीकृष्ण के लिए वैसा ही प्रेम और दर्द महसूस करने की।

जाहिं देखि चाहत नहीं कछु देखन मन मोर।
बसै सदा मोरे दृगनि सोईं नन्दकिशोर।।

2 COMMENTS

  1. बहुत ही सुन्दर वर्णन जय श्री कृष्णा राधे राधे !

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