कृष्ण बोल कृष्ण बोल सार है यही,
वेदन को भेद पाय व्यास ने कही।
योग यज्ञ तीरथ-व्रत सब कृष्ण नाम माहीं,
बिना कृष्ण-नाम कलि उद्धार नाहीं।
श्रीकृष्ण: शरणं मम श्रीकृष्ण: शरणं मम।।

पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण

भगवान श्रीकृष्ण सदानन्द हैं, पूर्णानन्द हैं, पूर्ण पुरुषोत्तम हैं, परमतत्त्व हैं, परब्रह्म हैं; जीव उनका अंश है। वे जीवों पर अनुग्रह करने के लिए ही अवतार रूप में प्रकट होते हैं। श्रीकृष्ण को सृष्टि का आदिकारण माना गया है। श्रीकृष्ण ही सभी के आत्मा हैं तथा उनके अतिरिक्त न कोई पति है, न पुत्र है। गीता में उन्होंने कहा है–’मैं ही समस्त प्राणियों का पति हूँ।’

सर्वदा सर्वभावेन भजनीयो व्रजाधिप:।
स्वस्यायमेव धर्मो हि नान्य: क्वापि कदाचन।। (चतु:श्लोकी)

अर्थ–हर समय, सर्वभाव से (पति, पुत्र, धन, घर–सब श्रीकृष्ण ही है, इस भाव से) व्रजेश्वर श्रीकृष्ण ही भजन करने योग्य हैं। अपना यही धर्म है। अन्य कोई धर्म इसके अलावा नहीं है।

महाप्रभु श्रीमद्वल्लभाचार्यजी ने मानव जाति के लिए स्वतन्त्र भक्तिमार्ग का उपदेश किया जिसे ‘पुष्टिमार्ग’ कहते है। ‘पुष्टि’ अर्थात् पोषण; जिसका अर्थ है–भगवान श्रीकृष्ण का अनुग्रह या कृपा। पुष्टिमार्ग प्रेम का पंथ है। पुष्टिमार्ग में भगवान श्रीकृष्ण के बाल और किशोर रूप की सेवा की जाती है। यह भावप्रधान सेवा-पद्धति है। भगवान दैन्य से ही प्रसन्न होते हैं। ‘कृष्ण मैं तुम्हारा हूँ’  (कृष्ण तवास्मि) इस तरह की भावना से भगवान से तादात्म्य (सम्बन्ध) स्थापित होता है। भगवान की प्रेमपूर्ण सेवा और स्नेहपूर्वक भगवान की लीलाओं के निरन्तर गायन व श्रवण से भगवान में प्रेम ‘आसक्ति’ में बदल जाता है। भगवान में आसक्ति बढ़कर ‘व्यसन’ बन जाती है। यह अवस्था प्राप्त होते ही मनुष्य लोक-परलोक व शरीर की सुधबुध भूलकर केवल श्रीकृष्ण में ही लीन हो जाता है तब श्रीकृष्ण उस भक्त के हृदय में विहार करने लगते हैं। श्रीकृष्ण का हो जाना ही मोक्ष है।

महाप्रभु श्रीवल्लभाचार्यजी द्वारा रचित श्रीनन्दकुमाराष्टक

‘नन्दकुमाराष्टक’ महाप्रभु श्रीमद्वल्लभाचार्यजी द्वारा रचित है। इसमें आनन्दकन्द व्रजचन्द श्रीकृष्ण की अनेक लीलाओं का मधुर वर्णन है। महाप्रभुजी ने प्रत्येक पद की अंतिम पंक्ति में परब्रह्म नन्दकुमार श्रीकृष्ण की भक्ति करो, ऐसा उपदेश दिया है।

श्रीनन्दकुमाराष्टक स्तोत्र पाठ की महिमा

व्रजराज श्रीनन्दकुमार भक्तों के भय-भंजन हैं, दुष्ट-निकंदन हैं, जन-मन-रंजन हैं। जो वैष्णवभक्त नित्यप्रति प्रेम से इस श्रीनन्दकुमाराष्टक का पाठ करते हैं, उनके हृदय में प्रभु प्रेमामृत की वर्षा करते हैं जिससे मानसिक शान्ति प्राप्त होती है, उन्हें किसी प्रकार का कष्ट नहीं होता और देहत्याग के बाद वे मोक्ष को प्राप्त होते हैं।

श्रीनन्दकुमाराष्टक

सुन्दरगोपालं उरवनमालं, नयनविशालं दु:खहरम्।
वृन्दावनचन्द्रं आनन्दकन्दं, परमानन्दं धरणि धरम्।।
वल्लभ घनश्यामं पूरणकामं, अत्यभिरामं प्रीति करम्।
भज नन्दकुमारं सर्वसुखसारं, तत्त्वविचारं ब्रह्मपरम्।।१।।

अर्थ–जिनके हृदय पर वनमाला है, बड़े-बड़े नेत्र हैं, जो शोकहारी, वृन्दावन के चन्द्रमा, परमानन्दमय और पृथ्वी को धारण करने वाले हैं, जो सबके प्रिय, मेघ के समान श्यामल, पूर्णकाम, अत्यन्त सुन्दर और प्रेम करने वाले हैं; उन समस्त सुखों के सारभूत, परब्रह्मस्वरूप, नन्दनन्दन मनमोहन, गोपाल श्रीकृष्ण को तत्त्वरूप जानकर भजो।

सुन्दरवारिज वदनं निर्जितमदनम् आनन्दसदनं मुकुटधरम्।
गुज्जाकृतिहारं विपिनविहारं, परमोदारं चीरहरम्।।
वल्लभ पटपीतं कृतउपवीतं करनवनीतं विबुधवरम्।
भज नन्दकुमारं सर्वसुखसारं, तत्त्वविचारं ब्रह्मपरम्।।२।।

अर्थ–जिनका सुन्दर कमल के समान मुख है, जो अपनी कान्ति से कामदेव को भी जीत चुके हैं, जो आनन्द के आगार, मुकुटधारी, गुंजा की माला पहनने वाले, वृन्दावनविहारी परम उदार और गोपियों के चीर हरण करने वाले हैं, जिनको पीताम्बर प्रिय है, जो सुन्दर यज्ञोपवीत धारण किए हुए और हाथ में माखन लिए हुए हैं;  उन समस्त सुखों के सारभूत, परब्रह्मस्वरूप, देवेश्वर नन्दनन्दन श्रीकृष्ण को तत्त्वरूप जानकर भजो।

शोभित मुखधूलं यमुनाकूलं निपटअतूलं सुखदतरम्।
मुखमण्डितरेणुं चारितधेनुं वादितवेणुं मधुरसुरम्।।
वल्लभ अतिविमलं शुभपदकमलं नखरुचिअमलं तिमिरहरम्।
भज नन्दकुमारं सर्वसुखसारं, तत्त्वविचारं ब्रह्मपरम्।।३।।

अर्थ–जो यमुनातट पर मुंह पर धूल लपेटे शोभा पा रहे हैं, जिनकी कहीं तुलना नहीं है, जो परम सुखद हैं, जो धूलिधूसरित मुख हो, धेनु चराते और मधुर स्वर में वेणु बजाते हैं, जो सबके प्रिय तथा अत्यन्त विमल हैं, जिनके चरणकमल सुन्दर हैं, नखों की कान्ति निर्मल है, जो अज्ञानान्धकार को दूर करते हैं, उन समस्त सुखों के सारभूत, परब्रह्मस्वरूप, देवेश्वर नन्दनन्दन श्रीकृष्ण को तत्त्वरूप जानकर भजो।

शिरमुकुटसुदेशं कुंचितकेशं नटवरवेशं कामवरम्।
मायाकृतमनुजं हलधरअनुजं प्रतिहतदनुजं भारहरम्।।
वल्लभ व्रजपालं सुभगसुचालं हितअनुकालं भाववरम्।
भज नन्दकुमारं सर्वसुखसारं, तत्त्वविचारं ब्रह्मपरम्।।४।।

अर्थ–जिनके सुन्दर मस्तक पर मुकुट है, बाल घुंघराले हैं, नटवर वेष है, जो काम से भी अधिक सुन्दर हैं, माया से मनुष्य-अवतार धारण करते हैं, बलरामजी के छोटे भाई हैं, दानवों को मारकर पृथ्वी का भार हरण करते हैं; जो व्रज के रक्षक, प्रियतम, सुन्दर गतिशील, प्रतिक्षण हित चाहने वाले और उत्तम भाव वाले हैं; उन समस्त सुखों के सारभूत, परब्रह्मस्वरूप, देवेश्वर नन्दनन्दन श्रीकृष्ण को तत्त्वरूप जानकर भजो।

इन्दीवरभासं प्रकटसुरासं कुसुमविकासं वंशीधरम्।
हृतमन्मथमानं रूपनिधानं कृतकलगानं चित्तहरम्।।
वल्लभ मृदुहासं कुंजनिवासं विविधविलासं केलिकरम्।
भज नन्दकुमारं सर्वसुखसारं, तत्त्वविचारं ब्रह्मपरम्।।५।।

अर्थ–जिनकी नीलकमल के समान कान्ति है, जिन्होंने पवित्र रास-रस को प्रकट किया है, जो कुसुमों के समान विकसित रहते हैं, वंशी धारण करते हैं; जिन्होंने कन्दर्प के दर्प को चूर कर दिया है, जो रूप की राशि हैं, मधुर गायन के द्वारा मन को मोह लेते हैं, जिनका मधुर हास प्रिय लगता है, जो निकुंजों में रहकर नाना प्रकार की लीलाएं किया करते हैं; उन सब सुखों के सारभूत, परब्रह्मस्वरूप, देवेश्वर नन्दनन्दन श्रीकृष्ण को तत्त्वरूप जानकर भजो।

अतिपरप्रवीणं पालितदीनं भक्ताधीनं कर्मकरम्।
मोहन मतिधीरं फणिबलवीरं हतपरवीरं तरलतरम्।
वल्लभ व्रजरमणं वारिजवदनं हलधरशमनं शैलधरम्।
भज नन्दकुमारं सर्वसुखसारं, तत्त्वविचारं ब्रह्मपरम्।।६।।

अर्थ–जो परम प्रवीण हैं, दीनों के पालक और भक्तों के अधीन कर्म करने वाले, जो अत्यन्त धीर मनमोहन, शेष के अवतार बलभद्ररूप, शत्रुवीरों के नाशक, अतिशय चपल, प्रेममय व्रज में रमने वाले, कमल-वदन गोवर्धनधारी और हलधरजी को शान्त करने वाले हैं; उन समस्त सुखों के सारभूत, परब्रह्मस्वरूप, देवेश्वर नन्दनन्दन श्रीकृष्ण को तत्त्वरूप जानकर भजो।

जलधर द्युतिअंगं ललितत्रिभंगं बहुकृतरंगं रसिकवरम्।
गोकुलपरिवारं मदनाकारं कुंजविहारं गूढतरम्।।
वल्लभ व्रजचन्द्रं सुभगसुछन्दं कृतआनन्दं भ्रान्तिहरम्।
भज नन्दकुमारं सर्वसुखसारं, तत्त्वविचारं ब्रह्मपरम्।।७।।

अर्थ–जिनके अंग की कान्ति मेघ के समान श्याम है, उसमें ललित त्रिभंग शोभा पाता है, जो नाना रंगों में रहते हैं, परम रसिक हैं, गोकुल ही जिनका परिवार है, मदन के समान सुन्दर आकृति है, जो कुंज में विहार करते हैं, सर्वत्र अत्यन्त गूढ़ भाव से छिपे हैं, जो प्यारे व्रजचन्द्र, बड़भागी और दिव्य लीलामय हैं, सदा आनन्द करने वाले और भ्रान्ति को भगाने वाले हैं; उन समस्त सुखों के सारभूत, परब्रह्मस्वरूप, देवेश्वर नन्दनन्दन श्रीकृष्ण को तत्त्वरूप जानकर भजो।

वन्दित युगचरणं पावनकरणं जगदुद्धरणं विमलधरम्।
कालिय शिरगमनं कृतफणिनमनं घातितयमनं मृदुलतरम्।।
वल्लभ दु:खहरणं निर्मल चरणम् अशरणशरणं मुक्तिकरम्।
भज नन्दकुमारं सर्वसुखसारं, तत्त्वविचारं ब्रह्मपरम्।।८।।

अर्थ–जिनके दोनों चरण भक्तों द्वारा वन्दित हैं, जो सबको पवित्र करते हैं और जगत का उद्धार करने वाले हैं, निर्मल भक्तों को हृदय में धारण करने वाले तथा कालियनाग के मस्तक पर नृत्य करने वाले हैं, जिनकी शेषनाग भी स्तुति करते हैं, जो कालयवन के घातक और अति कोमल हैं, जो अपने प्रियजनों के शोकहारी, निर्मल चरणों वाले, अशरणों की शरण और मोक्ष देने वाले हैं; उन समस्त सुखों के सारभूत, परब्रह्मस्वरूप, देवेश्वर नन्दनन्दन श्रीकृष्ण को तत्त्वरूप जानकर भजो।

।।इति श्रीमहाप्रभुवल्लभाचार्य विरचितं श्रीनन्दकुमाराष्टकं सम्पूर्णम।।

श्रीकृष्ण की लीलाओं के गुणगान का सुख

हे श्रीकृष्ण ! जिसको परम मंगलरूप और सुनने में अमृत के समान तुम्हारी लीलाओं का स्वाद मिल गया है, वह सारी इच्छाओं को छोड़ देता है। (श्रीमद्भा़गवत ११।६।४४)

भगवान बालकृष्ण की घर में रह कर जो सेवा का सुख है उसकी तुलना में सभी सुख व्यर्थ हैं। गृहस्थ जीवन में  अहंकार का त्याग, सदाचरण का पालन, प्रभु चरणों में समर्पण का भाव और कृष्णप्रेम को गोपनीय रखकर जो भक्ति की जाती है, वह कठिन तपस्या से भी बढ़कर है।

श्रीकृष्ण की लीलाओं के गुणगान में जो सुख मिलता है वह कहीं भी नहीं है। जिनके मन में सदैव कृष्ण लीला का चिन्तन चलता रहता है, उन्होंने सब पुण्य कार्य कर लिए। उन्हें योग, यज्ञ, तीर्थ, व्रत करने की आवश्यकता नहीं है। केवल कृष्ण नाम के प्रभाव से ही वे भवसागर से पार हो जायेंगे। अत: सब सुखों का सार कृष्ण नाम ही है।

जो सुख होत गोपालहि गाये।
सो न होत जप, तप, व्रत संयम, कोटिक तीरथ न्हाये।
गद गद गिरा लोचन जल धारा, प्रेम पुलक तन छाये।
तीन लोक सुख तृणवत लेखत, नन्द नन्दन उर आये।
दिये नहीं लेत ये चार पदारथ, श्री हरि चरण उरु झाये।
‘सूरदास’ भगवन्त भजनबिन, चित नहीं चलत चलाये।।

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