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शिवशतनाम स्तोत्रम् या शिवाष्टोत्तरशतनाम स्तोत्रम् का प्रसंग शिवपुराण के रुद्रसंहिता के सृष्टि खण्ड में और श्रीरामचरितमानस में आया है।

शिव पुराण की कथा

इस स्तोत्र का उपदेश भगवान नारायण ने पार्वतीजी को दिया था। भगवान श्रीविष्णु ने भगवान शिव के १०८ नाम माता पार्वतीजी को बतलाए थे। शंकरप्रिया पार्वती ने भगवान विष्णु की प्रेरणा से एक वर्ष तक प्रतिदिन तीनों कालों में इसका जप किया जिससे उन्हें भगवान शंकर पतिरूप में प्राप्त हुए और वे उनकी अर्धांगिनी बन गईं।

श्रीरामचरितमानस की कथा

श्रीरामचरितमानस में एक कथा है कि देवर्षि नारद को काम पर विजय प्राप्त करने से गर्व हो गया था और वह कहने लगे कि शंकरजी ने कामदेव को क्रोध से जला दिया, इसलिए वे क्रोधी हैं, किन्तु मैं काम और क्रोध दोनों से ऊपर उठा हुआ हूँ। परन्तु वास्तविकता यह थी कि जहां पर नारदजी ने तपस्या की थी, शंकरजी ने उस स्थल को कामप्रभाव से शून्य होने का वर दे दिया था। भगवान विष्णु ने नारदजी के कल्याण के लिए अपनी माया से श्रीमतीपुरी नाम की एक नगरी बनायी जहां पर राजकुमारी विश्वमोहिनी का स्वयंवर हो रहा था। विश्वमोहिनी के रूप से आकर्षित होकर नारदजी भी स्वयंवर में आए। पर भगवान विष्णु ने स्वयं विश्वमोहिनी से विवाह कर लिया। कामपीड़ित नारदजी को यह देखकर बड़ा क्रोध आया। क्रोध में उन्होंने भगवान विष्णु को अपशब्द कहे और स्त्री-वियोग में विक्षिप्त-सा होने का शाप दे दिया। तब भगवान ने अपनी माया दूर कर दी और विश्वमोहिनी के साथ लक्ष्मीजी भी लुप्त हो गईं। यह देखकर नारदजी की बुद्धि शुद्ध हो गयी और वे भगवान के चरणों में गिरकर प्रार्थना करने लगे कि मेरा शाप मिथ्या हो जाए, मैंने आपको दुर्वचन कहे।

तब भगवान विष्णु ने नारदजी से कहा कि शिवजी मेरे सर्वाधिक प्रिय हैं। आप शिवशतनाम का जप कीजिए, इससे आपके सब पाप मिट जाएंगे और ज्ञान-वैराग्य और भक्ति सदा के लिए आपके हृदय में बस जायेगी–

जपहु जाइ संकर सत नामा।
होइहि हृदयँ तुरन्त विश्रामा।।
कोउ नहिं सिव समान प्रिय मोरें।
असि परतीति तजहु जनि भोंरे।।
जेहिं पर कृपा न करहिं पुरारी।
सो न पाव मुनि भगति हमारी।। (मानस १।१३७।५-७)

इस प्रकार नारदजी ने शिवशतनामस्तोत्र का जप किया, जिससे उन्हें परम शान्ति की प्राप्ति हुई।

इस स्तोत्र के पाठ से पहले भगवान शंकर का ध्यान इस प्रकार करना चाहिए–

‘चन्द्रमण्डल में श्रीशिवजी विराजमान हैं, उनका गौर शरीर है, सर्प का कंगन और सर्प का ही हार पहने हुए हैं। शरीर पर भस्म लगाए हुए हैं, उनके हाथों में मृगी-मुद्रा एवं परशु हैं और अर्धचन्द्र सिर पर विराजमान है। मैं उन भगवान शंकर का हृदय में चिन्तन करता हूँ।’

शिवाष्टोत्तरशतनाम स्तोत्रम्

शिवो महेश्वर: शम्भु: पिनाकी शशिशेखर:।
वामदेवो विरुपाक्ष: कपर्दी नीललोहित:।।
शंकर: शूलपाणिश्च खट्वांगी विष्णुवल्लभ:।
शिपिविष्टोऽम्बिकानाथ: श्रीकण्ठो भक्तवत्सल:।।

भव: शर्वस्त्रिलोकेश: शितिकण्ठ: शिवाप्रिय:।
उग्र: कपालि: कामारिरन्धकासुरसूदन:।।
गंगाधरो ललाटाक्ष: कालकाल: कृपानिधि।
भीम: परशुहस्तश्च मृगपाणिर्जटाधर:।।

कैलासवासी कवची कठोरस्त्रिपुरान्तक:।
वृषांको वृषभारूढो भस्मोद्धूलितविग्रह:।।
सामप्रिय: स्वरमयस्त्रयीमूर्तिरनीश्वर:।
सर्वज्ञ: परमात्मा च सोमसूर्याग्निलोचन:।।

हविर्यज्ञमय: सोम: पंचवक्त्र: सदाशिव:।
विश्वेश्वरो वीरभद्रो गणनाथ: प्रजापति:।।
हिरण्यरेता दुर्धर्षो गिरीशो गिरिशोऽनघ:।
भुजंगभूषणो भर्गो गिरिधन्वा गिरिप्रिय:।।

कृत्तिवासा पुरारातिर्भगवान् प्रमथाधिप:।
मृत्युंजय: सूक्ष्मतनुर्जगद् व्यापी जगद्गुरु:।।
व्योमकेशो महासेनजनकश्चारुविक्रम:।
रुद्रो भूतपति: स्थाणुरहिर्बुध्न्यो दिगम्बर:।।

अष्टमूर्तिरनेकात्मा सात्त्विक: शुद्धविग्रह:।
शाश्वत: खण्डपरशुरजपाशविमोचक:।।
मृड: पशुपतिर्देवो महादेवोऽव्यय: प्रभु:।
पूषदन्तभिदव्यग्रो दक्षाध्वरहरो हर:।।

भगनेत्रभिदव्यक्त: सहस्त्राक्ष: सहस्त्रपात्।
अपवर्गप्रदोऽनन्तस्तारक: परमेश्वर:।।
एतदष्टोत्तरशतनाम्नामाम्नायेन सम्मितम्।
विष्णुना कथितं पूर्वं पार्वत्या इष्टसिद्धये।।

शंकरस्य प्रिया गौरी जपित्वा त्रैकालमन्वहम्।
नोदिता पद्मनाभेन वर्षमेकं प्रयत्नत:।।
अवाप सा शरीरार्धं प्रसादाच्छूंलधारिण:।
यस्त्रिसंध्यं पठेच्छम्भोर्नाम्नामष्टोत्तरं शतम्।।

शतरुद्रित्रिरावृत्त्या यत्फलं प्राप्यते नरै:।
तत्फलं प्राप्नुयादेतदेकवृत्त्या जपन्नर:।।
बिल्वपत्रै: प्रशस्तैर्वा पुष्पैश्च तुलसीदलै:।
तिलाक्षतैर्यजेद् यस्तु जीवन्मुक्तो न संशय।।

नाम्नामेषां पशुपतेरेकमेवापवर्गदम्।
अन्येषां चावशिष्टानां फलं वक्तुं न शक्यते।।
।।इति श्रीशिवरहस्ये गौरीनारायणसंवादे शिवाष्टोत्तरशतदिव्य नामामृतस्तोत्रं सम्पूर्णम्।।

पाठ का फल

शतरुद्री के तीन बार पाठ करने से जो फल मनुष्य को प्राप्त होता है, वह फल उसे इस स्तोत्र के एक बार पाठ करने से प्राप्त हो जाता है। बेलपत्र, फूल और तुलसीदल से या तिल और अक्षत से जो महादेवजी का पूजन करते हैं, वे जन्म-मरण के बंधन से मुक्त हो जाते हैं। भगवान शंकर के केवल एक नाम का जप ही मोक्ष देने  वाला है फिर यदि शतनाम का पाठ किया जाए तो उसका फल वर्णनातीत है।

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