ganesh ek dunt

एकदन्तं महाकायं तप्तकांचनसंनिभम्।
लम्बोदरं विशालाक्षं वन्देऽहं गणनायकम्।।
मुंजकृष्णाजिनधरं नागयज्ञोपवीतिनम्।
बालेन्दुकलिकामौलिं वन्देऽहं गणनायकम्।। (पद्मपुराण, सृष्टि. ६६।२-३)

अर्थात्–मैं विशालकाय, तपाये हुए स्वर्ण-सदृश्य प्रकाश वाले, लम्बोदर, बड़ी-बड़ी आंखों वाले, एकदन्त श्रीगणनायक की वन्दना करता हूँ। जिन्होंने मौंजीमेखला, कृष्ण-मृगचर्म तथा नाग-यज्ञोपवीत धारण कर रखे हैं, जिनके मौलिदेश में बालचन्द्र सुशोभित हो रहा है, मैं उन गणनायक की वन्दना करता हूँ।

श्रीगणेश ‘एकदन्त’ क्यों कहे जाते हैं?

ब्रह्मवैवर्तपुराण के गणपतिखण्ड में श्रीगणेश को ‘एकदन्त’ क्यों कहा जाता है–इसके सम्बन्ध में एक कथा है।

भृगुवंशी जमदग्नि ऋषि और रेणुका के पुत्र परशुराम ने जब पृथ्वी को क्षत्रियों से रहित कर दिया, तब वे अपने गुरुदेव भगवान भूतनाथ शिव के चरणों में प्रणाम करने और गुरुपत्नी अम्बा पार्वती तथा दोनों गुरुपुत्रों–कार्तिकेय तथा गणेश को देखने की लालसा से कैलास पहुँचे। कैलाशपुरी का भ्रमण करके उन्होंने गजमुख गणेश से कहा–’मैं अपने गुरु शूलपाणि शिव का दर्शन करना चाहता हूँ।’

उस समय भगवान शंकर जगदम्बा पार्वती के साथ अंतपुर में शयन कर रहे थे। जब रेणुकानन्दन परशुराम शंकरजी को प्रणाम करने के लिए अंत:पुर में जाने लगे तब गणपतिजी ने उन्हें समझाया कि इस समय वे अंदर न जाएं पर परशुरामजी अपनी हठ पर अड़े रहे और उन्होंने अनेकों युक्तियों से उस समय अपना अंदर जाना निर्दोष बतलाया पर बुद्धिविशारद गणेश ने उनको अंदर जाने से रोक दिया।

इक्कीस बार पृथ्वी को क्षत्रियों से रहित करने वाले रेणुकानन्दन परशुराम कुपित हो गए और श्रीगणेश और परशुरामजी–दोनों में केवल वाग्युद्ध ही नहीं, मल्लयुद्ध भी होने लगा। तब परशुरामजी ने फरसा उठा लिया। उमापुत्र गणेश ने अपनी सूंड को लम्बा कर परशुरामजी को उसमें लपेट लिया और चारों तरफ घुमाते हुए उन्हें समस्त लोकों के दर्शन करा दिए।

भृगुनन्दन परशुराम ने अपने इष्ट भगवान श्रीकृष्ण और गुरु शंकर द्वारा प्रदत्त स्तोत्र व कवच का स्मरण कर अपने अमोघ फरसे को गौरीनन्दन श्रीगणेश पर चला दिया। शिव की शक्ति के प्रभाव से वह परशु गणेश के बांये दांत को काटकर पुन: रेणुकानन्दन परशुराम के हाथ में लौट आया।

ganesh vs parshuraamबुद्धिविनायक गणेश का दांत टूटकर भयंकर शब्द करता हुआ पृथ्वी पर गिर पड़ा। रक्त से सना दांत देखकर स्कन्द, वीरभद्र व सभी गण कांप उठे। उस भयंकर ध्वनि को सुनकर भगवान शिव व पार्वती की निद्रा भंग हो गई और वे अंत:पुर से बाहर आए। उन्होंने श्रीगणेश का मुख रक्त से सराबोर देखा। स्कन्दकुमार द्वारा सारा वृतान्त सुनाए जाने पर सती पार्वती को क्रोध आ गया। उन्होंने परशुरामजी से कहा–’तुमने करुणासागर गुरु और अमोघ फरसा पाकर पहले क्षत्रिय-जाति पर परीक्षा की, अब गुरु-पुत्र पर परीक्षा की है। कहां तो वेदों में ‘गुरु को दक्षिणा देना’ कहा है और तुमने तो गुरुपुत्र के दांत को ही तोड़ डाला। श्रीकृष्ण के अंश से उत्पन्न हुआ यह गणेश तेज में श्रीकृष्ण के ही समान है। अन्य देवता श्रीकृष्ण की कलाएं हैं। इसीसे इनकी अग्रपूजा होती है। जितेन्द्रिय पुरुषों में श्रेष्ठ गणेश तुम्हारे जैसे लाखों को मारने की शक्ति रखता है; परन्तु वह मक्खी पर भी हाथ नहीं उठाता।’

ऐसा कहकर पार्वतीजी क्रोधवश परशुरामजी को मारने के लिए उद्यत हो गयीं। तब परशुरामजी ने अपने गुरु शिव को प्रणामकर इष्टदेव श्रीकृष्ण का स्मरण किया। तभी वहां भगवान विष्णु वामन रूप से प्रकट हो गये और पार्वतीजी को समझाते हुए बोले–’तुम जगज्जननी हो। तुम्हारे लिए जैसे गणेश और कार्तिकेय हैं, वैसे ही भृगुवंशी परशुराम भी पुत्र के समान हैं। इनके प्रति तुम्हारे और शंकरजी के मन में भेदभाव नहीं है। पुत्र के साथ पुत्र का विवाद तो दैवदोष से घटित हुआ है। दैव को मिटाने में कौन समर्थ हो सकता है?  तुम्हारे पुत्र का ‘एकदन्त’ नाम वेदों में विख्यात है। सामवेद में कहे हुए तुम्हारे पुत्र के नामाष्टक स्तोत्र को मैं बताता हूँ।’

भगवान विष्णु द्वारा वर्णित श्रीगणेश का नामाष्टक स्तोत्र

ब्रह्मवैवर्तपुराण के गणपतिखण्ड (४४।८७-९८) में श्रीगणेश के नामाष्टक स्तोत्र का भगवान विष्णु ने पार्वतीजी को वर्णन किया है। यह स्तोत्र सभी स्तोत्रों का सारभूत और सम्पूर्ण विघ्नों का निवारण करने वाला है। भगवान विष्णु ने कहा–तुम्हारे पुत्र के गणेश, एकदन्त, हेरम्ब, विघ्ननायक, लम्बोदर, शूर्पकर्ण, गजवक्त्र और गुहाग्रज–ये आठ नाम हैं। इन आठ नामों का अर्थ सुनो–

ज्ञानार्थवाचको गश्च णश्च निर्वाणवाचक:।
तयोरीशं परं ब्रह्म गणेशं प्रणमाम्यहम्।।

’ग’ ज्ञानार्थवाचक और ‘ण’ निर्वाणवाचक है। इन दोनों (ग+ण) के जो ईश हैं; उन परमब्रह्म ‘गणेश’ को मैं प्रणाम करता हूँ।

एकशब्द: प्रधानार्थो दन्तश्च बलवाचक:।
बलं प्रधानं सर्वास्मादेकदन्तं नमाम्यहम्।।

‘एक’ शब्द प्रधानार्थक है और ‘दन्त’ बलवाचक है; अत: जिनका बल सबसे बढ़ कर है; उन ‘एकदन्त’ को मैं नमस्कार करता हूँ।

दीनार्थवाचको हेश्च रम्ब: पालकवाचक:।
दीनानां परिपालकं हेरम्बं प्रणमाम्यहम्।।

‘हे’ दीनार्थवाचक और ‘रम्ब’ पालक का वाचक है; अत: दीनों का पालन करने वाले ‘हेरम्ब’ को मैं शीश नवाता हूँ।

विपत्तिवाचको विघ्नो नायक: खण्डनार्थक:।
विपत्खण्डनकारकं नमामि विघ्ननायकम्।।

‘विघ्न’ विपत्तिवाचक और ‘नायक’ खण्डनार्थक है, इस प्रकार जो विपत्ति के विनाशक हैं; उन ‘विघ्ननायक’ को मैं अभिवादन करता हूँ।

विष्णुदत्तैश्च नैवेद्यर्यस्य लम्बोदरं पुरा।
पित्रा दत्तैश्च विविधैर्वन्दै लम्बोदरं च तम्।।

पूर्वकाल में विष्णु द्वारा दिये गये नैवेद्यों तथा पिता द्वारा समर्पित अनेक प्रकार के मिष्टान्नों के खाने से जिनका उदर लम्बा हो गया है; उन ‘लम्बोदर’ की मैं वन्दना करता हूँ।

शूर्पाकारौ च यत्कर्णौं विघ्नवारणकारणौ।
सम्पदौ ज्ञानरूपौ च शूर्पकर्णं नमाम्यहम्।।

जिनके कर्ण शूर्पाकार, विघ्न-निवारण करने वाले, सम्पदा के दाता और ज्ञानरूप हैं; उन ‘शूर्पकर्ण’ को मैं सिर झुकाता हूँ।

विष्णुप्रसादपुष्पं च यन्मूर्ध्नि मुनिदत्तकम्।
तद् गजेन्द्रवक्त्रयुक्तं गजवक्त्रं नमाम्यहम्।।

जिनके मस्तक पर मुनि द्वारा दिया गया विष्णु का प्रसादरूप पुष्प वर्तमान है और जो गजेन्द्र के मुख से युक्त हैं; उन ‘गजवक्त्र’ को मैं नमस्कार करता हूँ।

गुहस्याग्रे च जातोऽयमाविर्भूतो हरालये।
वन्देगुहाग्रजं देवं सर्वदेवाग्रपूजितम्।।

जो गुह (स्कन्द) से पहले जन्म लेकर शिव-भवन में आविर्भूत हुए हैं तथा समस्त देवगणों में जिनकी अग्रपूजा होती है; उन ‘गुहाग्रज’ देव की मैं वन्दना करता हूँ।

एतन्नामाष्टकं दुर्गे नामभि: संयुतं परम्।
पुत्रस्य पश्य वेदे च तदा कोपं तथा कुरु।।

दुर्गे! अपने पुत्र के नामों से संयुक्त इस उत्तम नामाष्टक स्तोत्र को पहले वेद में देख लो, तब ऐसा क्रोध करो।

नामाष्टक स्तोत्र के पाठ का फल

एतन्नामाष्टकं स्तोत्रं नानार्थसंयुतं शुभम्।
त्रिसंध्यं य: पठेन्नित्यं स सुखी सर्वतो जयी।।
ततो विघ्ना: पलायन्ते वैनतेयाद् यथोरगा:।
गणेश्वरप्रसादेन महाज्ञानी भवेद् ध्रुवम्।।
पुत्रार्थी लभते पुत्रं भार्यार्थी विपुलां स्त्रियम्।
महाजड: कवीन्द्रश्च विद्यावांश्च भवेद् ध्रुवम्।।

जो मनुष्य गणेश के नामों के अर्थ वाले इस स्तोत्र का तीनों संध्याओं के समय पाठ करता है, वह सुखी रहता है और उसे सभी कार्यों में विजय मिलती है। उसके पास से विघ्न उसी तरह से भाग जाते हैं जैसे गरुड़ के पास से सर्प। भगवान गणेश की कृपा से वह ज्ञानी हो जाता है। पुत्र की इच्छा रखने वाले को पुत्र, पत्नी की कामना रखने वाले को उत्तम पत्नी मिल जाती है। मूर्ख व्यक्ति भी विद्वान और श्रेष्ठ कवि बन जाता है।

इस प्रकार पार्वतीजी को समझा-बुझाकर भगवान विष्णु ने परशुराम से कहा–’तुम सचमुच अपराधी हो, तुमने क्रोधवश शिवपुत्र गणेश का दांत तोड़कर अपराध किया है। अत: मेरे द्वारा बतलाये गए स्तोत्र से गणपति का स्तवन करो।’

भृगुनन्दन परशुराम ने गौरी का स्तवन करते हुए कहा–’जगज्जननी! रक्षा करो! मेरे अपराध को क्षमा करो। भला, कहीं बच्चे के अपराध से माता कुपित होती है।’ पार्वतीजी द्वारा परशुरामजी को क्षमा करने पर उन्होंने श्रीगणेश का स्तवन-पूजन किया। इस प्रकार गणेशजी ‘एकदन्त’ कहलाए।

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