भादौं की थी असित अष्टमी, निशा अँधेरी।
रस की बूँदें बरस रहीं फिर घटा घनेरी।।
मधु निद्रा में मत्त प्रचुर प्रहरी थे सोये।
दो बंदी थे जगे हुए चिन्ता में खोये।।
सहसा चन्द्रोदय हुआ ध्वंस हेतु तम वंश-के।
प्राची के नभ में तथा कारागृह में कंस के।।
प्रसव हुआ, पर नहीं पेट से बालक निकला।
व्यक्त व्योम में विमल विश्व का पालक निकला।। (श्रीरामनारायणदत्तजी शास्त्री)

यद्यपि करुणावरुणालय अनन्तरुप भगवान के अवतार के अनन्त प्रयोजन होते हैं तथापि वे उनकी अपार करुणा के ही परिचायक होते हैं। वेदादिशास्त्र जिन्हें सर्वदा अजित, कभी न हारने वाले कहते हों, उन्हीं का खेल में हार जाने पर श्रीदामा को अपने कन्धे पर बिठाना, छछिया भर छाछ के लिए गोपांगनाओं को नाचकर दिखाना आदि कुछ ऐसे कार्य हैं जो यह दर्शाते हैं कि अवतार के मूल में करुणा होती है। गुरुदेव श्रीरवीन्द्रनाथ ठाकुर ने एक पूजागीत में लिखा है–

‘ताइ तोमार आनन्द आमार पर।
तुमि ताइ एसेछ नीचे।
अमाय नइले त्रिभुवनेश्वर!
तोमार प्रेम हत ये मिछे।’

‘हे त्रिलोकीनाथ! तू (अवतार लेकर) नीचे उतरता है, क्योंकि तेरा आनन्द हम पर ही निर्भर है। यदि हम न होते तो तुम्हें प्रेम का अनुभव कहां से होता? (तुम किसके साथ हिल-मिलकर बातें करते, खेलते, खाते-पीते?)’

एक अन्य भगवत्प्रेमी का कथन है–’हे भगवन्! यदि हमारे जैसे अहर्निश (लगातार) पाप करने वाले लोग न हों तो आप क्षमा किसे करेंगे? आपकी अदालत हमारे कारण ही तो चल रही है।’

गुनाहों की होती न आदत हमारी,
तो सूनी ही रहती अदालत तुम्हारी।

‘श्रीकृष्णोपनिषद्’ में कृष्णजन्म के सम्बन्ध में बहुत ही सुन्दर प्रसंग है। पृथ्वी गौ का रूप धारण करके ब्रह्मा आदि देवताओं के साथ जब अपने कष्टों से त्राण के लिए भगवान श्रीकृष्ण के पास गई तो भगवान ने समस्त देवताओं से कहा कि आप लोग अपनी विभूतियों के साथ पृथ्वी पर अवतरित हों। तब देवताओं ने भी भगवान के समक्ष एक शर्त रखी कि पृथ्वी पर हमारे जन्म लेने का क्या प्रयोजन, जब तक कि आपका सांनिध्य हमें पृथ्वी पर न मिले और आपका अंगस्पर्श हमें आह्लादित न करे? इस पर भगवान ने कहा–ऐसा ही होगा। भगवान के अंश कृष्ण-बलराम के रूप में पृथ्वी पर अवतीर्ण हुए। वेदार्थ वृन्दावन के गोप और ऋचाएं गोपियां और गौएं बनीं। ब्रह्मा लकुटि और रुद्र वंशी बने। साक्षात् वैकुण्ठ गोकुल बना। तामसी माया ने दैत्य-दानवों का रूप धरा। गर्व ने कंस, मत्सर ने मुष्टिक, दर्प ने कुवलयापीड़ और द्वेष ने चाणूर का रूप धरा। धर्म ने चंवर का, वायुदेव ने वैजयन्तीमाला का, दया ने रोहिणीमाता का और पृथ्वी ने सत्यभामा का रूप धारण किया। कश्यपमुनि ने नन्दजी के घर ऊखल एवं माता अदिति रज्जु बनीं। इस प्रकार समस्त वैकुण्ठवासियों एवं विभूतियों ने भूतल पर उतरकर अनेक प्रकार की ऐश्वर्य एवं माधुर्यमयी लीलाएं कीं।

श्रीकृष्ण जन्म-प्रसंग

भगवान के माता-पिता वसुदेव-देवकी विवाह के तत्काल बाद बड़े प्रेम से विदा होते हैं और ऐश्वर्यशाली कंस रथ के घोड़ों की बागडोर थाम बड़े प्रेम से बहिन को पहुंचाने के लिए चलता है। इतने में ही आकाशवाणी हुई–’कंस! तेरी मृत्यु देवकी के आठवें गर्भ से है।’ कंस का सारा प्रेम उड़ गया। स्वार्थी का प्रेम तभी तक रहता है जब तक उसके स्वार्थ में बाधा न पड़े। कंस देवकी के केश पकड़कर तलवार से उनका गला काटने ही वाला है। देवकी मौन है, न कंस से कहती हैं कि मुझे छोड़ दो और न वसुदेव से कहतीं है कि मुझे बचाओ। ऐसी क्षमा, ऐसी शान्ति, ऐसी समता और ऐसा मौन जो देवकीजी को उस उच्च सिंहासन पर बिठा देता है कि वे वस्तुत: भगवान की माता बनने के योग्य हैं। वसुदेव शुद्ध अंतकरण, सत्त्वगुण का स्वरूप हैं और सूक्ष्म निष्काम एकाग्र बुद्धि देवकी हैं। इन दोनों के ही मिलन होने पर भगवान का जन्म होता है।

कंस अभिमान है। ऐसे अवसर पर बल काम नहीं देता, बुद्धि काम देती है। वसुदेवजी ने साम, दाम एवं भेद से काम लिया। वसुदेवजी के देवकी के बालकों के जन्म लेते ही कंस को देने की प्रतिज्ञा करने पर कंस मान गया। क्योंकि वसुदेवजी के सत्यप्रतिज्ञ होने का लोहा कंस भी मानता था। पर कंस की बुद्धि स्थिर नहीं रही। नारदजी ने ही कंस के पाप को बढ़ाने हेतु उसे उल्टा-सीधा पाठ पढ़ा दिया। ईश्वर किसी को नहीं मारते। मनुष्य को उसका पाप ही मारता है।

कंस ने ही उनके सत्य पर संशय करके अपनी प्रतिज्ञा तोड़ दी और अविश्वास से वसुदेव-देवकी को बंदी बना लिया। अभिमान, यातना और आसुरी वृत्ति का साम्राज्य हो गया। कंस के अधीन रहकर ही देवकी-वसुदेव ने अपने को भगवान के अवतरण के योग्य बना लिया। कंस ने वसुदेव-देवकी को बहुत सताया तो भगवान का प्राकट्य शीघ्र हो गया। भक्तों के दु:ख भगवान से सहे नहीं जाते। दु:ख को सुख मानकर जो भक्ति करते हैं, उन्हें आनन्द मिलता है। आनन्द ही श्रीकृष्ण हैं।

भगवान का गर्भ-प्रवेश और देवताओं द्वारा गर्भ-स्तुति

देवकी के गर्भ में छह बालक आए और मारे गए। परमात्मा जगत में आते हैं तो उन्हें भी माया की जरुरत पड़ती है। परमात्मा माया को दासी बनाकर आते हैं। भगवान ने योगमाया को दो काम करने की आज्ञा दी। एक, देवकी का जो सातवां गर्भ है, उसे वहां से ले जाकर नन्दबाबा के गोकुल में रह रहीं वसुदेवजी की पत्नी रोहिणीजी के गर्भ में स्थापित कर दो और दूसरे, यशोदाजी के घर कन्या के रूप में जन्म लो। भगवान के अंशस्वरूप ‘श्रीशेषजी’ सातवें बालक के रूप में देवकी के गर्भ में आए, योगमाया ने उन्हें रोहिणीजी के गर्भ में पहुंचा दिया। रोहिणीजी सगर्भा हुईं और भाद्रपद शुक्ल षष्ठी के दिन उसी गर्भ से भगवान अनन्त प्रकट हुए जो ‘बलदेव संकर्षण’ कहलाए। कारागार के रक्षकों ने कंस को सूचना दी कि देवकी का सातवां गर्भ नष्ट हो गया है।

तदनन्तर देवकी का आठवां गर्भ प्रकट हुआ। जैसे प्राची (पूर्व दिशा) जगत को आह्लाद देने वाले चन्द्रमा को धारण करती है, वैसे ही जगदात्मा भगवान को देवकीजी ने धारण किया। अब वसुदेवजी का मन भगवान के चिन्तन से भर गया और वसुदेवजी के मन में भगवान अपनी समस्त कलाओं के साथ प्रकट हो गए। जैसे दीये की लौ से दूसरी लौ प्रज्जवलित हो जाती है, वैसे ही वसुदेवजी के मन से देवकीजी का मन भी भगवच्चिन्तन से चमक उठा। वसुदेवजी के हृदय से भगवान देवकीजी के हृदय में आ गए। जब देवकीजी ने श्रीकृष्ण को धारण किया तो उनके मुख पर मुसकान थी, बन्दीगृह देवकीजी के शरीर की कान्ति से जगमगा रहा था। वसुदेवजी स्वयं सूर्य के समान तेजस्वी प्रतीत हो रहे थे। जब कंस ने कारागार में इन दोनों को देखा तो मन-ही-मन उसने सोचा कि हो-न-हो यह विष्णु नामक मेरा शत्रु मेरे प्राणों को हरने के लिए जन्म लेने वाला है। ऐसा लगता है कि इस गुहा में कहीं मेरा प्राणहर्ता सिंह तो नहीं आ गया! देवकीजी को देखकर उसके क्रूर विचारों में अचानक परिवर्तन आ गया। ऐसा क्यों न हो; आज वह जिस देवकी को देख रहा है, उसके गर्भ में भगवान हैं। जिसके भीतर भगवान हैं, उसके दर्शन से सद्गुणों का उदय होना कोई आश्चर्य नहीं है।

फिर भी कंस के मन में श्रीकृष्ण के प्रति दृढ़ वैरभाव था। वैर का भाव भी भक्ति का ही एक अंग है; क्योंकि वह उठते-बैठते, खाते-पीते, सोते-जागते–हर समय श्रीकृष्ण का ही चिन्तन किया करता था।

ब्रह्मा, शंकर आदि देवता नारदादि मुनियों के साथ वहां आए और गर्भस्थित भगवान की स्तुति करने लगे।

यद्यपि गर्भवास को शास्त्रों में महादु:ख कहा गया है पर देवकी के इस गर्भ से न केवल पृथ्वीवासियों बल्कि देवताओं को भी आशा बंधीं थी। उन्होंने गर्भस्थ ज्योति की वन्दना की–

सत्यव्रतं सत्यपरं त्रिसत्यं सत्यस्य योनि निहितं च सत्ये।
सत्यस्य सत्यमृतसत्यनेत्रं सत्यात्मकं त्वां शरणं प्रपन्ना:।। (श्रीमद्भागवत १०।२।२६)

अर्थात्–’तुम सत्यव्रती, सत्य परायण, सत्य के कारण, सत्य में आश्रित, सत्य के सत्य, ऋत और सत्य की दृष्टि से देखने वाले, तुम्हीं सत्य को प्रतिष्ठापित करोगे।’ इस प्रकार भगवान की स्तुति कर सभी देवता स्वर्ग में चले गए।

जैसे अंत:करण शुद्ध होने पर उसमें भगवान का आविर्भाव होता है, श्रीकृष्णावतार के अवसर पर भी ठीक उसी प्रकार अष्टधा प्रकृति की शुद्धि का वर्णन किया गया है। जिस मंगलमय क्षण में परमानन्दघन श्रीकृष्ण का प्राकट्य हुआ, उस समय मध्यरात्रि थी, चारों ओर अंधकार का साम्राज्य था; परन्तु अकस्मात् सारी प्रकृति उल्लास से भरकर उत्सवमयी बन गई। भगवान के आविर्भाव के पूर्व प्रकृति की शुद्धि व श्रृंगार स्वामी के शुभागमन का सूचक है। अपने स्वामी के मंगलमय आगमन की प्रतीक्षा में पृथ्वी नायिका के समान सज-धजकर स्वागत के लिए तैयार हो गयी। श्रीकृष्ण के आगमन के आनन्द में पंचमहाभूत–पृथ्वी मंगलमयी, जल कमलाच्छादित, वायु सुगन्धपूर्ण और आकाश निर्मल होकर तारामालाओं से जगमगा उठा। लकड़ी के अंदर से अग्नि प्रकट होकर अपनी शिखाओं को हिला-हिलाकर नाचने लगी। ऋषि, मुनि और देवता जब अपने सुमनों की वर्षा करने के लिए मथुरा की ओर दौड़े, तब उनका आनन्द भी पीछे छूट गया और उनके पीछे-पीछे दौड़ने लगा।

भगवान श्रीकृष्ण का आविर्भाव

भगवान श्रीकृष्ण के आविर्भाव का अर्थ है–अज्ञान के घोर अन्धकार में दिव्य प्रकाश। परिपूर्णतम भगवान श्यामसुन्दर के शुभागमन के समय सभी ग्रह अपनी उग्रता, वक्रता का परित्याग करके अपने-अपने उच्च स्थानों में स्थित होकर भगवान का अभिनन्दन करने में संलग्न हैं। कल्याणप्रद भाद्रमास, कृष्ण पक्ष की मध्यवर्तिनी अष्टमी तिथि, रोहिणी नक्षत्र, बुधवार और आधी रात का समय–देवरूपिणी देवकी के गर्भ से भगवान श्रीकृष्णचन्द्र का आविर्भाव हुआ, जैसे पूर्व दिशा में पूर्ण चन्द्रमा उदित हुआ हो। उसी समय वसुदेवजी को अनन्त सूर्य-चन्द्रमा के समान प्रकाश दिखाई दिया और उसी प्रकाश में दिखाई दिया एक अद्भुत असाधारण बालक; जिसके बाल-बाल में, रोम-रोम में ब्रह्माण्ड रहते हैं, चार भुजा (वे चतुर्भुज रूप में चारों पुरुषार्थ अपने हाथ में लेकर जीवों को बांटने के लिए आते हैं), चार आयुध (शंख, चक्र, गदा और पद्म), कमल-सी उत्फुल्ल-दृष्टि (कोई भी बालक पैदा होता है तो उसकी आंखें बन्द होती हैं, खुली नहीं होती लेकिन इसके नेत्र खिले हुए कमल के समान हैं), नीलवर्ण, पीताम्बरधारी, वक्ष:स्थल पर श्रीवत्सचिह्न, गले में कौस्तुभमणि, वैदूर्यमणि के किरीट और कुण्डल, बाजूबंद और कमर में चमचमाती हुई करधनी। यह तो आश्चर्यों का खजाना है। ऐसा अपूर्व बालक कभी किसी ने कहीं नहीं देखा-सुना। यही भगवान का ‘दिव्य जन्म’ है। वास्तव में भगवान सदा ही जन्म और मरण से रहित हैं। उनके आविर्भाव का नाम ‘जन्म’ है।

krishna yashodaवसुदेव-देवकी परमात्मा की स्तुति करते हुए कहते है–’आप तो प्रकृति से परे साक्षात् परम पुरुष हैं। आपका स्वरूप है केवल अनुभव और केवल आनन्द। आप इस समय लोक रक्षा के लिए हमारे घर अवतीर्ण हुए हैं। आपका चतुर्भुजरूप ध्यान की वस्तु है।’ देवकीजी ने भगवान से कहा–’पापी कंस को यह मालूम न हो जाए कि आपका जन्म मेरे गर्भ से हुआ है। आपके लिए मैं कंस से बहुत डर रही हूँ।’

भक्तवत्सल भगवान ने वसुदेव-देवकी को उनके पूर्वजन्मों की तपस्या, वरदान आदि का स्मरण कराकर बताया कि ‘मैं सर्वेश्वर प्रभु ही तुम्हारा पुत्र बना हूँ।’ उन्होंने बताया कि पहले कल्प में वसुदेवजी सुतपा नाम के प्रजापति और देवकीजी उनकी पत्नी पृश्नि थीं। दोनों ने दीर्घकाल तक तप करके भगवान नारायण से वर पाया कि ‘आपके समान ही हमारे पुत्र हो।’ भगवान ने तीन बार एवमस्तु कहा। उस कल्प में भगवान ‘पृश्निगर्भ’ नाम से उनके पुत्र हुए। दूसरे जन्म में जब वे अदिति और कश्यप हुए तो भगवान ‘वामन’ रूप में उनके पुत्र हुए और अब उनके तीसरे जन्म में भी पुत्र बने हैं।

भगवान ने कहा मेरे चतुर्भुजस्वरूप का दर्शन कर लीजिए और ग्यारह वर्ष तक मेरा ध्यान करते रहिए। मैं अवश्य आपके पास आऊंगा अर्थात् जब दस इन्द्रियां और ग्यारहवां मन ध्यान में एकाग्र हो जाती हैं तब भगवान का साक्षात्कार होता है। ऐसा कहकर भगवान प्राकृत शिशु के समान बन गए और कहा–’मुझे गोकुल में नन्दबाबा के घर छोड़ आइए।’

श्रीकृष्ण जन्म स्वयं में रहस्यपूर्ण है। जन्म के समय सात्विक शक्तियों का जितना जागरण हुआ, उतना ही तामसी शक्तियों का ह्रास भी हुआ। पहरेदार उस समय सो गए, हथकड़ी, बेड़ियां व मजबूत लोहे के दरवाजे खुल गए। मनुष्य के त्रिविध ताप–रोग, शोक, मोह आदि–कारागार की बेड़ियां हैं। जब श्रीकृष्ण जन्म होता है (मनुष्य की अंतरात्मा में ज्ञानोदय होने लगता है) तब सांसारिक कर्म-बंधन स्वत: ही ढीले पड़कर खुल जाते हैं, सात्विक भावनाओं का प्रकाश मनुष्य की आत्मा को दीप्त करने लगता है। यही परमतत्त्व का प्रकाश श्रीकृष्ण जन्म की अंत:सूचना है।

दोनों जननी-जनक के दूर हुए बन्धन वहां।
क्यों न मुक्त हों, मुक्ति के आये जीवन-धन वहां।।

स्वयं भगवान के आदेश से कारागार से नवजात शिशु को लेकर अंधेरी रात में वसुदेवजी मथुरा से गोकुल की ओर चले। शेषनाग ने फणों से उन पर छाया की, और भयानक भँवर वाली यमुना ने श्रीकृष्ण को मस्तक पर बिठाकर ले जाने वाले वसुदेवजी के लिए रास्ता दिया। यमुनाजी ने सोचा–मेरा नाम कृष्णा, मेरा जल कृष्ण, मेरे बाहर श्रीकृष्ण, फिर मेरे हृदय में उनकी स्फूर्ति क्यों न हो? ऐसा सोचकर मार्ग देने के बहाने यमुनाजी ने श्रीकृष्ण को अपने हृदय से लगा लिया। प्रथम दर्शन और मिलन का आनन्द भगवान ने यमुनाजी को दिया।

जो भगवान को अपने मस्तक पर विराजमान करता है उसके लिए कारागार के तो क्या मोक्ष के द्वार भी खुल जाते हैं, असंख्य जन्मार्जित प्रारब्ध-बन्धन ध्वस्त हो जाते हैं, नदी की बाढ़ भी थम जाती है, उसे मार्ग में विघ्न बाधित नहीं कर सकते। मन में भगवान के आने पर ही बंधन टूट जाते हैं। वे प्रभु जिसकी गोद में आ गए उसकी हथकड़ी-बेड़ी खुल जाय, इसमें क्या आश्चर्य है?

वसुदेवजी भगवान की आज्ञा के अनुसार शिशुरूप भगवान को नन्दालय में श्रीयशोदा के पास सुलाकर बदले में यशोदात्मजा जगदम्बा महामाया को ले आए। भगवान जब वसुदेव की गोद में आए तो जेल की हथकड़ी बेड़ी छूट गयी और जेल के दरवाजे खुल गये। फिर जब भगवान गोकुल में रह गए और पुत्री के रूप में योगमाया साथ आई तो फिर हथकड़ी-बेड़ी लग गयीं तथा कारागार के द्वार बन्द हो गये। ब्रह्मसम्बन्ध होने पर सभी बन्धन टूट गए थे, माया आयी तो बन्धन भी आ गए। भगवान के संयोग-वियोग की यही महिमा है।

सुप्त यशोदा गोद मोक्षप्रद बालक देकर।
लौट गए वसुदेव नन्द-तनया को लेकर।।
मिला अमित आनन्द नन्द को चौथेपन में।
अतिशय भरा उछाह गोप-गोपीजन मनमें।।
बजी बधाई नंद-घर, वंदी यश गाने लगे।
वसन-विभूषण-रत्न-धन द्विज-याचक पाने लगे।। (पं. श्रीरामनारायणदत्तजी शास्त्री)

भगवान श्रीकृष्ण के गोकुल आगमन का भावार्थ

गोकुल अर्थात् इन्द्रियों का समूह। भगवान श्रीकृष्ण का अपने रस, रूप, गन्ध, स्पर्श और शब्दमाधुरी से व्रजवासियों के मन को लुभा लेना, अपनी प्रेम भरी चितवन, कुटिल मुसकान, वंशीवादन एवं अन्य चेष्टाओं से जीवों के हृदय में बलात् घुस जाना–यही श्रीकृष्ण का गोकुल आगमन है।

श्रीनन्द-यशोदा और श्रीकृष्ण जन्म

ऐसा माना जाता है कि श्रीनन्द-यशोदा भगवान के नित्य माता-पिता है। इनसे सम्बन्धित एक बड़ी सुन्दर कथा है। गोपराज श्रीनन्द समस्त समृद्धियों से सम्पन्न थे, पर उनके कोई पुत्र नहीं था। आयु का चौथापन था इसलिए उपनन्द आदि वृद्ध गोपों ने एक पुत्रेष्टि-यज्ञ का आयोजन किया। इधर बाहर यज्ञमण्डप ब्राह्मणों की वेदध्वनि से मुखरित था, उधर अंत:पुर में गोपराज नन्द यशोदाजी से कह रहे थे–’व्रजरानी! मैं जिसको सदा अपने पुत्र के रूप में देखता हूँ, मैंने जिसको अपने मनोरथ पर बैठाया है और जिसको स्वप्न में देखा है, वह ‘अचल’ है। कर्म के फलस्वरूप उसको प्राप्त करने की आशा दुराशामात्र है क्योंकि ऐसी असम्भव बात कहना पागलपन ही माना जाएगा। सुनो, मैं अपने मनोरथ में और स्वप्न में देखता हूँ दिव्यातिदिव्य नीलमणि सदृश्य श्यामसुन्दर वर्ण का एक बालक, जिसके चंचल नेत्र अत्यन्त विशाल हैं, वह तुम्हारी गोद में बैठकर भांति-भांति के खेल कर रहा है। उसे देखकर मैं अपने आपको खो देता हूँ। यशोदे! सत्य बताओ, क्या कभी तुमने भी स्वप्न में इस बालक को देखा है?’

गोपराज की बात सुनकर यशोदाजी आनन्दविह्वल होकर कहने लगीं–’व्रजराज! मैं भी ठीक ऐसे ही बालक को सदा अपनी गोद में खेलते देखती हूँ। मैंने भी अति असंभव समझकर कभी आपको यह बात नहीं बतायी। कहां मैं क्षुद्र स्त्री और कहां दिव्य नीलमणि।’ व्रजराज नन्द ने कहा–भगवान नारायण की कृपादृष्टि से इस दुर्लभ-सी मनोकामना का पूर्ण होना असंभव नहीं है। अत: नन्द-दम्पत्ति ने एक वर्ष के लिए श्रीहरि को अत्यन्त प्रिय द्वादशी तिथि के व्रत का नियम ले लिया।

नन्द-यशोदा के द्वादशी-व्रत की संख्या बढ़ने के साथ-ही-साथ स्वप्न में देखे हुए परम सुन्दर दिव्य बालक को पुत्र रूप में प्राप्त करने की लालसा भी बढ़ती गई। व्रत-अनुष्ठान पूर्ण होने पर एक दिन उन्होंने अपने इष्टदेव चतुर्भुज नारायण को स्वप्न में उनसे कहते सुना–’तुम्हारे अंश द्रोण और धरारूप से तप करके जिस फल को प्राप्त करना चाहते हैं, उसी फल का आस्वाद करने के लिए तुम दोनों स्वयं पृथ्वी पर प्रकट हुए हो। शीघ्र ही तुम लोगों का वह सुन्दर मनोरथ सफल होगा।’ भगवान के वचनों को सुनकर नन्द-यशोदा उस सुन्दर बालक को पुत्ररूप में प्राप्त करने की प्रतीक्षा करने लगे।

एक दिन एक वृद्धा तपस्विनी एक ब्राह्मण बालक को लेकर गोपराज की सभा में पधारीं। उनको देखकर सभी लोगों को लगा मानो वे साक्षात् भगवान की शक्ति योगमाया हैं और वह बालक मानो नारद मुनि हैं। उन्होंने व्रजवासियों को बताया कि उनका नाम पौर्णमासी है और वे नारदजी की शिष्या व सांदीपनि मुनि की माता हैं और यह बालक उनका पौत्र मधुमंगल है। उनके आगमन का कारण पूछने पर उन्होंने बताया कि–बहुत शीघ्र ही तुम लोगों का कोई एक अनिर्वचनीय सौभाग्य उपस्थित होने वाला है। तुम्हारे प्रिय गोपराज नन्द के एक पुत्र होगा जो अखिल जगत को आनन्दसिन्धु में निमग्न कर देगा।’ पौर्णमासीदेवी की बात सुनकर गोपों के हर्ष का पारावार न रहा और उन्होंने कालिन्दीतट पर उनके रहने के लिए एक पर्णशाला बनवा दी।

भगवान पहले वसुदेवजी की भांति नन्दबाबा के हृदय में आए और फिर एक दिन नन्दरानी ने स्वप्न की भांति यह अनुभव किया कि वह पहले स्वप्न में दीखा हुआ बालक एक बिजली-सी चमकती हुई बालिका के साथ नन्दहृदय से निकल कर उनके हृदय में प्रवेश कर रहा है। बस, तभी से यशोदाजी के दिव्य गर्भ लक्षण प्रकट होने लगे। और आठ महीनों के बाद भाद्रमास की कृष्णाष्टमी के दिन नन्दनन्दन के प्राकट्य से पृथ्वी, स्वर्ग, आकाश, वायु सभी परमानन्दरस में निमग्न हो गए।

गोकुल प्रकट भए हरि आइ।
अमर-उधारन असुर-संहारन, अंतरजामी त्रिभुवन राइ।।
माथैं धरि बसुदेव जु ल्याए, नंद-महर-घर गए पहुंचाइ।
जागी महरि, पुत्र-मुख देख्यौ, पुलकि अंग उर मैं न समाइ।।

व्रज में श्रीव्रजराज के पुत्र हुआ है, जब यह बात सुनाई पड़ी तो व्रजवासियों ने माना कि सभी पुण्य पूर्ण हो गए और उनका अत्यन्त शुभ फल प्राप्त हो गया है। व्रजराज का वंश चलने से व्रज को आधार-स्तम्भ मिल गया।

 

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