बाँसुरी बजाई आछे रंग सौं मुरारी।
सुनि कैं धुनि छूटि गई संकर की तारी।।
वेद पढ़न भूलि गए ब्रह्मा ब्रह्मचारी।
रसना गुन कहि न सकै, ऐसि सुधि बिसारी।।
इंद्र सभा थकित भई, लगी जब करारी।
रंभा कौ मान मिट्यौ, भूली नृतकारी।।
जमुना जू थकित भईं, नहीं सुधि सँभारी।
सूरदास मुरली है तीन लोक प्यारी।।

वृन्दावन की परम रम्य वनभूमि में भगवान के शुभ आगमन का संकेत पाकर प्रकृति ने अपने स्वामी के स्वागतार्थ सब तरह से उसे सुसज्जित कर दिया है क्योंकि श्रीकृष्ण ही चराचर प्रकृति के एकमात्र अधीश्वर हैं। नदियों व सरोवरों में खिले हजारों विचित्र वर्णों के कमलों की सुगन्ध को पवन ने सारे वन में बिखेर दिया है। शरद् ऋतु आने पर समूचे वृन्दावन की शोभा ऐसी हो गई मानो लक्ष्मीजी अपने हाथ की सुगन्ध सब जगह छोड़ गयीं हैं, सब चीजों को छूकर सजा गई हैं। प्रकृति ने अपने हृदय के शान्त, दास्य, वात्सल्य आदि पंचरंगी भावों को प्रकट कर दिया। (वर्षाऋतु में प्राय: सरोवरों व नदियों के तट कीचड़ व जल के बहाव के कारण अशान्त रहते हैं, अब शरद्ऋतु के आगमन पर सरोवर व नदियां कमलों के उत्पन्न होने से सहज ही स्वच्छ व व शान्त हो गयीं हैं; फल और फूलों के भार से पेड़-पौधे झुक कर मानो श्रीकृष्ण के चरण-स्पर्श कर अपना दास्यभाव प्रकट कर रहे हैं; वात्सल्य भाव में जिस प्रकार बच्चे को बहलाने के लिए मां चारों तरफ खिलौने सजा देती है, वैसे ही प्रकृति ने श्रीकृष्ण के आगमन पर सारा वन फलों, फूलों से सजा दिया है।) ऐसे सुन्दर वातावरण में मधुपति भगवान श्रीकृष्ण बलरामजी व  ग्वालबालों के साथ गायों को चराते हुए वेणुवादन करते हुए वृन्दावन में प्रवेश कर रहे हैं।

बर्हापीडं नटवरवपु: कर्णयो: कर्णिकारं विभ्रद्वास: कनककपिशं वैजयन्तीं च मालाम्।
रन्ध्रान् वेणोरधरसुधया पूरयन् गोपवृन्दैर्वृन्दारण्यं स्वपदरमणं प्राविशद् गीतकीर्ति:।। (श्रीमद्भागवत १०।२१।५)

अर्थ–श्रीकृष्ण अपने बालसखाओं के साथ श्रीवृन्दावन में प्रवेश कर रहे हैं। उनके शीश पर मोरमुकुट, कानों में कनेर के सुवासित पुष्प, शरीर पर पीताम्बर, गले में सुन्दर वैजयन्ती माला शोभायमान है। मोहन वंशी के छिद्रों को अपने अधरामृत से सिंचितकर जीवन्त कर रहे हैं। उनके साथ रमण करने वाले बालगोपाल उनका यशोगान कर रहे हैं। यह वृन्दावनधाम भगवान के चरणचिह्नों से भर गया है, जहां देखो वहीं उनके चरणचिह्न अंकित हैं। भगवान के श्रीचरणों का स्पर्श पाकर यह श्रीवृन्दावनधाम और भी अधिक पावन बन गया है।

श्यामसुन्दर के नवीन मेघ के समान नील-स्याम शरीर पर नवीन पीताम्बर, नवीन मुकुट और नवीन वनमाला है। चरणों में मणि-नुपुर हैं। करों में कंकण हैं। भुजाओं में अंगद हैं। कण्ठ में छोटे मुक्ताओं के मध्य व्याघ्रनख है। गले में कौस्तुभमणि है। भाल पर बिखरी अलकों के मध्य कज्जल-बिन्दु है। थोड़ी अलकों को समेटकर मैया ने मुकुट में एक मयूरपिच्छ लगा दिया है। बड़े-बड़े लोचन अंजन-मण्डित हैं। श्रीकृष्ण ने नट का सा वेश धारण किया है। वेणुवादन करते समय मुकुट झुक रहा है, भौंहें बड़े ही सुन्दर ढंग से मटक रही हैं, श्वास-वायु के झकोरों से वैजयन्ती माला चरणों पर झूल रही है। ओठ, पल्लव के समान हाथ, नासिकापुट तथा दोनों नेत्र वंशी बजाते समय ऐसे चल रहे हैं, मानो कामदेवरूप नायक नृत्य के भाव दिखला रहा हो। मन मोहने वाले मनमोहन ने मोहक रूप धरकर कामदेव के अभिमान को चूर कर दिया और स्वयं ‘मन्मथ-मन्मथ’ कहलाने लगे।

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इस वृन्दावन के चप्पे-चप्पे में, लता-बेलों में, वृक्षों पर, जहां-जहां भी भगवान के चरणारविन्द पड़ते हैं, वहां-वहां लक्ष्मीजी मिलती हैं। मानो लक्ष्मीजी ने शपथ ली हो कि वे भगवान के चरणकमलों का स्पर्श पृथ्वी से नहीं होने देंगी, भगवान जहां भी पृथ्वी पर चरण रखेंगे, वहां वह बीच में आकर लेट जाएंगी।

यह कन्हाई अद्भुत है, जहां लगेगा, जिससे लगेगा, उसी में तन्मय हो जाएगा। स्वयं तन्मय नहीं हो जाता, दूसरों को भी अपने में तन्मय कर लेता है। परमात्मा श्रीकृष्ण की आकर्षण-शक्ति अलौकिक है। श्रीकृष्ण समस्त जीवों को आकर्षित करने के लिए बाँसुरी बजाते हैं। बाँसुरी की दिव्य मधुर ध्वनि से वे समस्त जीवों को बुलाते हैं–’तुम यहां आओ! मैं ही सच्चा आनन्द हूँ। मैं तुमको आत्मस्वरूप का दान करने के लिए बुलाता हूँ।’ जीव परमात्मा का अंश होकर भी अपना सच्चा स्वरूप भूल गया है। संसार के साथ जीव का सम्बन्ध सच्चा नहीं है। जीव को अपने पास बुलाने के लिए परमात्मा श्रीकृष्ण बाँसुरी बजाते हैं।

मुरली नाम गुन विपरीति।
खीन मुरली गहैं मुर अरि, रहत निसि दिन प्रीति।।
कहत बंसी छिद्र परगट हृदै, छूछे अंग।
विदित जग हरि अधर पीवत, करत मनसा पंग।।(सूरदास)

मुरली के नाम और गुण परस्पर विरुद्ध हैं। मुर+ली अर्थात् मुर दैत्य के द्वारा ग्रहण की हुई। संधि विच्छेद करने से तो यही अर्थ निकलता है, किन्तु इस पतली-सी मुरली को प्रेमपूर्वक दिन-रात लिए रहते हैं मुरारि, मुर+अरि अर्थात् मुर दैत्य के शत्रु मुरारी। वंशी के हृदय में तो प्रत्यक्ष छेद हैं और इसका शरीर भी छूछा (सारहीन, पोला) है; किन्तु सभी जानते हैं कि यह श्रीकृष्ण के अधर-रस का पान करती है और अपनी ध्वनि से सबके मन की गति को पंगु बना देती है। उसे सुनते ही कानों में अमृत का सागर छलकने लगता है। जगत के जीवनाधार, तारण-तरण (मोक्षदाताओं को भी मुक्त करने वाले), गुणातीत अब तक गिरिधर कहे जाते थे; अब मुरलीधर, वंशीधर, वेणुगोपाल बन गए। श्रीकृष्ण वंशी के छिद्रों को अपने अधरामृत से सिंचितकर प्रेमानन्द से भर रहे हैं। इस वेणु के मादक स्वरों के बन्धन में बंधकर देवता, मनुष्य और तपस्वी संत भी अपनी ज्ञान-भक्ति को भूल जाते हैं। कन्हैया जब अपने दाहिने कन्धे की ओर दाहिना गाल झुकाकर बाँसुरी बजाते हैं, तब गोपियां और गाएं बाबली हो जाती हैं। जब वे नजर ऊपर कर बाँसुरी बजाते, तब स्वर्ग के देवता, इन्द्र, चन्द्र, वरुण आदि तन्मय हो जाते। जब वे पृथ्वी की ओर नजर कर बाँसुरी बजाते, तब पाताल की नागकन्याओं का मन भी डोलने लगता था। उस समय समस्त प्रकृति में हलचल मच जाती थी।

त्रिगुणातीत श्यामसुन्दर ने प्रसन्न होकर जब वेणुवादन किया तो श्रोता, शब्द व श्रवण–तीनों को एकाकार कर केवल प्रेममय बना दिया। यह मधुर ध्वनि प्रत्येक को उसके भावानुसार मुग्ध करती है। मुरली-रन्ध्र से निकली हुई यह अमृतधारा, भगवान की ये परम मनोहर मुरली-ध्वनि, जिस किसी के साथ स्पर्श कर लेती है, वह चाहे कोई हो; उसको एक विचित्र परमानन्द सागर में डूबना ही पड़ता है।

वंशी की इस उन्मादक स्वर-लहरी के स्पर्श से अपने को कौन नहीं भूल जाता? इसी के द्वारा सारे जगत का चुम्बन कर श्रीकृष्ण एक गुदगुदी उत्पन्न किया करते हैं, प्राणियों के सोये हुए प्रेम को जगाया करते हैं।

भगवान श्रीकृष्ण के वेणुनाद से त्रिलोक में होने वाले आश्चर्यजनक परिणाम

इस वेणुनाद के क्या-क्या आश्चर्यजनक परिणाम होते हैं, इसका बहुत ही बेजोड़ वर्णन सूरदासजी ने इस पद में किया है–

जब हरि मुरली अधर धरत।
थिर चर, चर थिर, पवन थकित रहै, जमुना जल न बहत।।
खग मोहैं, मृग जूथ भुलाहीं, निरखि मदन छवि छरत।
पसु मोहैं, सुरभी बिथकित, तृन दंतनि टेकि रहत।।
सुक सनकादि सकल मुनि मोहैं, ध्यान न तनक गहत।
सूरदास भाग हैं तिन के, जे या सुखहिं लहत।। (श्रीकृष्ण-माधुरी)

वंशीनाद और स्थावर-जंगम जगत

जब श्रीकृष्ण गौओं को साथ लेकर मधुर-मधुर स्वर से बाँसुरी बजाते हुए चलते हैं तब चल (चलने-फिरने वाले) प्राणी प्रेममुग्धता के कारण अचल (निश्चेष्ट)  हो जाते हैं और अचल (स्थिर पदार्थ) चल (द्रवित) हो जाते हैं। वेणुनाद को सुनकर चर और अचर दोनों की गति उलटी हो गई। वंशीनाद का चमत्कारी प्रभाव सरोवरों के जल को जमाकर वर्फ बना देता और पत्थर द्रवित होकर झरने बन जाते हैं।

यमुना-पुलिन पर मोहन जितने समय वंशीनाद कर वृन्दाकानन को गुंजायमान करते हैं, उतने समय में वहां न जाने क्या-से-क्या होता रहता है। श्रीगोविन्दलीलामृतम् नामक ग्रन्थ में इसका बहुत सुन्दर चित्रण  किया गया है–’वेणुनाद का स्पर्श पाकर पर्वतों के शिखर तरल बनकर चारों ओर बहने लगते हैं जिससे अनेक झरने बन जाते हैं। उन्हें देखकर प्यासे मृगों का समूह पानी पीने की उत्कंठा से दौड़कर वहां जाना चाहता है किन्तु उनके अंगों ने एक सुखमयी जड़ता आ जाती है और वे पास बहते जल का पान करने की भी सामर्थ्य खो देते हैं।’

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जब ये अखिल ब्रह्माण्डनायक गायों के न्योने (दुहते समय गाय के पैर बांधने की रस्सी) की पगड़ी बाँध लेते हैं और उनको फंसाने के फंदे (भागने वाली गायों को पकड़ने की रस्सी) को गले में डाल लेते हैं, तब उनकी यह विचित्र वेशभूषा देखकर चर का अचर तथा अचर का चर हो जाना स्वाभाविक है। पवन की गति बंद हो गयी, यमुनाजल प्रवाहित नहीं होता। पशु-पक्षी, मछलियां सभी उस स्वर के वश में हो गए। हिरण दौड़ना भूल जाते हैं। वृक्ष और लता चंचल हो गए और उनमें नवीन पल्लव निकल आए।

वंशीनाद और देवता व देववधुएं

श्रीकृष्ण जब वंशी में रस भरते हैं, उस समय ऊपर आकाश का दृश्य भी देखने-योग्य होता है। यह ध्वनि केवल वृन्दावन को ही झंकृत करके नहीं रह गई अपितु अंतरिक्ष को भेदते हुए इसने वैकुण्ठ को आत्मसात कर लिया और पाताल को प्रकम्पित करती हुई नीचे चली गई। समस्त ब्रह्माण्ड का भेदन करती हुई यह वेणुध्वनि सब जगह व्याप्त हो गई। स्वर्ग के संगीत-सम्राट गायक तुम्बरु की दशा विचित्र हो गई। वह आश्चर्य में निमग्न होकर विस्फारित नेत्रों से वृन्दावन की ओर झांककर इस उन्मद नाद के बारे में जानना चाहता था। स्वयं विधाता के आश्चर्य का पार नहीं, वे वेदपाठ करना भूल गए। ‘विदग्धमाधव’ नामक ग्रन्थ में इसका बहुत ही सुन्दर वर्णन है–‘अपने आठ कर्णपुटों (कानों) द्वारा उस मधुर वेणुध्वनि का रसपान करते हुए ब्रह्मा विभोर होने लगते, उनका धैर्य छूट जाता तथा वे वहीं हंस की पीठ पर प्रेमविवश हो बारम्बार लोटने लगते।’

सुर नर असुर देव सब मोहे, छाए ब्योम विमान री।
चत्रभुजदास कहौ, को न बस भए या मुरली की तान री।।

श्यामसुन्दर ने जब ओठों पर वंशी रख उसे अपने अमृतमयी फूंक से सिंचित किया तो शंकरजी का ध्यान टूट गया। वाणी (सरस्वती) अपनी ऐसी सुधि भूली कि वे वेणुनाद का गुणगान ही नहीं कर पा रही है। उस वेणुनाद ने स्वर्ग से देवताओं को मृत्युलोक में बुला लिया, स्वयं पृथ्वी को धारण करने वाले शेषनाग (बलरामजी) पृथ्वी पर चलने लगे। देवताओं के विमान उसे सुनकर स्तब्ध रह गए और देवांगनाएं चित्रलिखी-सी रह गईं। श्रीकृष्णमिलन की तीव्र आकांक्षा के कारण देववधुएं विमानों में चढ़कर वहां आकाशमण्डल में स्थित हो गयीं और वंशी की मधुर-ध्वनि को सुनकर सब-की-सब आत्मविस्मृत हो गईं और मूर्च्छित होकर अपने-अपने पतियों के अंक में गिर गयीं। यहां तक कि उन्हें अपने वस्त्रों का भी होश नहीं रहा। रसातल के अधिपति दैत्यराज बलि का चित्त भी उत्सुकता से अस्थिर हो गया। सिद्धों की समाधि छूट गई।

ग्रह-नक्षत्र अपनी राशि नहीं छोड़ रहे थे (चल नहीं पा रहे थे); क्योंकि उनके वाहन वंशी-ध्वनि के फंदे में बँध गए थे। चन्द्रमा अपना मार्ग भूल गए। शुक-सनकादि सभी मुनि मोहित हो गए। गन्धर्व, किन्नर आदि–सभी विमुग्ध हो आकाश से पृथ्वी की ओर देखने लगे। नारद का ध्यान टूट गया, शेषनाग का आसन डोल गया। वंशी-ध्वनि के आघात से इन्द्र की सभा स्तब्ध रह गयी। नृत्यकला भूल जाने से रम्भा का गर्व नष्ट हो गया।

श्रीकृष्ण ने इस अपार रस की सृष्टि की, जिसे न तो कभी सुना था, न नेत्रों से देखा था। वंशी-ध्वनि के वैकुण्ठ तक पहुंचने पर श्रीनारायण भी श्रीकृष्ण के अधर-रस से पूरित वंशी-ध्वनि को सुनकर ललचा उठे और लक्ष्मीजी से कहने लगे–’हे प्रिया! सुनो! श्यामसुन्दर वृन्दावन में क्रीडा कर रहे हैं; ब्रजांगनाएं उनके साथ जिस आनन्द का उपभोग कर रही हैं, वैसा आनन्द भला, हमें कहां प्राप्य है।’

यह अपार रस रास उपायौ, सुन्यौ न देख्यौ नैन।
नारायन धुनि सुनि ललचाने, स्याम अधर रस बेनु।।
कहत रमा सौं सुनि सुनि प्यारी, बिहरत हैं वन स्याम।
सूर कहाँ हम कौं वैसौ सुख, जो बिलसति ब्रज बाम।।

वृन्दावन धाम धन्य है, व्रजभूमि धन्य है। कदाचित् वहां की धूलि उड़कर हमें भी लग जाती तो हम भी धन्य हो जाते।’

वंशीनाद और गोपियां

जो गोपियां कन्हैया के दर्शन के लिए यशोदामाता के घर जातीं थी, अब उनका प्रेम इतना बढ़ गया है कि उन्हें घर पर ही श्रीकृष्ण का दर्शन होता है। भक्ति के बढ़ने पर दूर दर्शन और दूर श्रवण ये दो सिद्धियां प्राप्त होती हैं। गोपियों को अब घर पर ही कन्हैया की बाँसुरी का नाद सुनाई पड़ता है। उनका मन भगवान की लीला में पहुँच गया है। भगवान श्रीकृष्ण गोपियों के मन में हैं। वंशी की ध्वनि सुनकर गोपियां देह की सुधि भूलकर प्रेम के झूले में झूलने लगीं। ये चतुर गोपियां कभी आश्चर्यचकित हो जातीं हैं; प्रेमपरवश उनके शरीर से पसीना ऐसे छूटता है जैसे पानी बह रहा हो–

मुरली सुनत देह गति भूलीं।
गोपीं प्रेम हिंडोरे झूलीं।।
कबहूँ चकित जु होहिं सयानी।
स्वेद चलै द्रवि जैसें पानी।। (सूरदास)

गोपियां वंशी के परोपकार, पुण्य व शील की प्रशंसा करती हुई कहती हैं–’दिन के समय श्याम जब  वन में चले जाते हैं तब विरहरूपी सर्प के द्वारा काटे जाने के कारण हम सब मृतक के समान हो जाती हैं। उस समय यह वंशी ही अपने उत्तम रसमय मन्त्र (वेणुनाद) को पढ़कर हमें जिला देती है, वंशी-ध्वनि ही हममें जीवन डालती है। शरद्ऋतु की रात्रि में वंशी ही रसमय बोल बोलकर रास कराती है।’

गोपियां आपस में बात करतीं हैं–हे कृष्ण! तुम्हारी जन-मन मोहिनी मुरली के स्वर में कितनी मादकता है; यह नशा शरीर-मन पर ऐसा छा जाता है कि फिर जीवन भर वह कभी उतरता ही नहीं। ऐसे ही नशे में चूर गोपियों ने कहा–

दूध दुह्यौ सीरौ पर्यौ, तातौ न जमायौ बीर,
जामन दयौ सो धर्यौ धर्यौई खटायगौ।
X        X       X        X
जानिए आली! यह छोहरा जसोमति कौ,
बाँसुरी बजायगौ कि बिष बगरायगौ।। (रसखानि)

रसखानिजी आगे कहते हैं–

ऐ सजनी यह नंदकुमार सु या बन धेनु चराइ रह्यौ है।
मोहनी तानन गोधन-गायन बेनु बजाइ रिझाइ रह्यौहै।।
ताही समै कछु टोनौ करौ, रसखानि हिये सु समाइ रह्यौ है।
कोउ न काहु की कानि करै, सिगरौ ब्रज बीर! बिकाइ रह्यौ है।।

एक गोपी प्रेम से श्रीकृष्ण को उलाहना देते हुए कहती है–‘हे मुरारे! भला, भोजन बनाते समय तो कृपाकर इस मुरली की मधुर तान न छेड़ा करो। देखो, तुम्हारी मुरली-ध्वनि से मेरा सूखा ईंधन रसयुक्त होकर रस बहाने लगता है, जिससे चूल्हे की आग बुझ जाती है।’

बजाऔ मति मुरली, घनश्याम!
जब लौं करौं रसोई तब लौं मति छेड़ो मधु तान।।
बही धार रस की मुरली-सुर पहुँची चूल्है आय।
कीन्हीं सबरी लकरी गीली, दीन्हीं आग बुझाय।।
धूआँ उठ्यौ रुक्यौ मेरे रंधन कौ सगरौ काम।
बिना रसोई कहा खाइँगे घर के लोग तमाम।।
मुरली मोय लगै अति मीठी बिसरि जाय सब आन।
या तैं सुनौ बीनती मोरी, मोहन जीवन-प्रान।।
मीठी मुरली मैं सुनि पाऊँ, बुझै न मेरी आग।
जो तुम करौ बिवस्था दोऊ (ऐसी) जागै मेरौ भाग।। (श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दार)

दूसरी गोपी बांसुरी को उलाहना देते हुए अपनी सखियों से कहती है–

अब कान्ह भये बस बाँसुरि के, अब कौन सखी हम कौं चहिहै।
वह रात-दिना सँग लागी रहै, यह सौत कौ सासन को सहिहै।।
जिन मोह लियौ मन मोहन कौ, रसखानि सु क्यों न हमैं दहिहै।
मिलि आओ, सबे कहुँ भाजि चलैं, अब तौ ब्रज में बँसुरि रहिहै।।

सूरदासजी ने अपने पद में गोपी की इस समस्या का बड़ा ही सुन्दर समाधान किया है। एक गोपी दूसरी गोपी को समझाते हुए कहती है–’सखि! इस मुरली से कुछ मत कहो। श्रीकृष्ण तो नियम-पालन, भजन से ही मिलते हैं, जैसे मुरली को मिले हैं। वे अन्तर्यामी प्रत्येक हृदय की प्रीति को जानते हैं। जिसका जैसा भाव होता है, उससे उसी प्रकार मिलते हैं। माता-पिता, कुल की मर्यादा और लोक-लाज छोड़कर हमने जन्म से ही जिसका भजन (प्रेम) किया है, अब मुरली के द्वेष से उन्हें क्यों छोड़ना चाहिए। समझ लो कि इस श्याम के मन रूपी खजाने में सोलह सहस्त्र रत्नरूप गोपियां और एक मुरली है, इस मुरली को भी एक व्रजस्त्री समझ लो और जिनसे प्रेम है, उन श्यामसुन्दर का निरन्तर भजन करो।’

नेमहिं मैं हरि आइ रहैंगे।
मुरली सौं तुम कछु कहौ जिनि, ऐसेहिं तुम्है मिलैंगे।।
वे अंतरजामी सब जानत, घट घट की जो प्रीति।
जाकौ जैसौ भाव सखी री, ताहि मिलैं तिहिं रीति।।
मातु पिता कुल कानि लाज तजि भजी जनम तैं जाहि।
काहे कौं मुरली के डाहन अब तजिए री ताहि।।
सोरह सहस एक मन आगरि, नागरि मुरली जानि।
सूर स्याम कौं भजौ निरंतर, जासौं है पहिचानि।।

वंशीनाद और भीलनियां

भगवान श्रीकृष्ण का वंशी-निनाद माधुर्य का सिन्धु है। इस वेणुनाद से पृथ्वी के जलचर और स्थलचर सभी जीव मोहित हो गए। श्रीकृष्ण की वंशी-ध्वनि जिसके कान में प्रविष्ट हो गयी, वह श्रीकृष्ण के प्रेम को प्राप्त करने के लिए व्याकुल न हो उठे, ऐसा कोई है ही नहीं। वृन्दावन के वनों में रहने वाली भीलनियों के कानों में जब श्रीकृष्ण की वंशी-ध्वनि प्रविष्ट हुई तो वह श्रीकृष्ण के प्रेम को प्राप्त करने के लिए व्याकुल हो उठीं। वृन्दावन में विचरण करते समय श्रीकृष्ण के चरणों पर लगी हुई कुंकुम घास पर लग गई है। यह कुंकुम रसप्राप्त है, क्योंकि भगवान के चरणों से जिसका सम्बन्ध हो जाए, वह असाधारण चीज हो जाती है। वे भीलनियां उस कुंकुम लगे तृणों को अपने हृदय से लगाकर उस कुंकुम का सारे शरीर पर लेपन करने लगीं, तब उनकी वह श्रीकृष्ण-मिलन की पीड़ा शान्त हुई।

वंशीनाद और गायें

भगवान श्रीकृष्ण अपने मुख से वेणु में जो फूंक देते हैं, उस समय उनके मुख से जो अमृत वेणुनाद के रूप में वंशी के छिद्रों से निकला, उस अमृत को गायें और गायों के दूध पी रहे बछड़े अपना मुंह ऊपर करके, दोनों कानों का ‘दोना’ (पानपात्र) बनाकर पी रहे हैं, ताकि वंशीनाद की अमृतधारा कहीं नीचे न बह जाए अर्थात् कहीं उस अमृत की एक भी बूंद पृथ्वी पर गिर न पड़े।

इस वंशी-निनाद को सुनकर भावावेश के कारण गायें निष्पन्द हो गईं हैं और उनकी आंखों से आंसू बह रहे हैं तथा कान खड़े हैं। हजारों गायें और बछड़े श्रीकृष्ण को घेरे चुपचाप खड़े हैं। और यह घेरना भी बड़ा विचित्र है। प्रत्येक गाय के सामने श्रीकृष्ण का मुख है। वंशीनाद का श्रवण कर भगवान के मुख की ओर आंख लगाए ये गाएं उनके रूप-सौंदर्य को अपने हृदय में उतारना चाहती हैं, इसलिए उन्होंने आंखों पर आंसुओं का परदा डाल दिया है। इन गायों का जीवन ही सार्थक है क्योंकि ये गायें वंशी-निनाद को सुनकर अपने-आपको भूल गयीं। वन में तृण चरने गईं थीं, तृण चरना छोड़ दिया। आधे चबाये हुए घास उनके मुख में ही रह गए। जुगाली करना बंद हो गया। गायों की दशा जैसी ही दशा उनके बछड़ों की भी है। स्तनपान करते हुए बछड़ों के मुख से दूध का ग्रास बाहर निकल पड़ा। इस प्रकार वंशी-ध्वनि से देह की स्मृति भी भुला देना–ये तो बस गौओं के बस में है। श्रीकृष्ण स्वयं उनका पालन करते हैं, उनको तृण, जल आदि देते हैं। उनके कोमल देह पर अपना हाथ फिराते हैं। श्रीकृष्ण नित्य इनका दुग्धामृत पान करते हैं, तो स्वाभाविक ही गायों को श्रीकृष्ण से स्नेह होगा। जगत में श्रीकृष्ण के सम्बन्ध की लेशमात्र गन्ध से जो सब कुछ भूल जाता है, वही धन्य है।

वंशीनाद और हिरणियां

श्रीकृष्ण जब आम की नई कोंपलें, मोरों के पंख, फूलों के गुच्छे, रंग-बिरंगे कमल और कुमुद की मालाएं व पीताम्बर धारणकर  नट का-सा विचित्र वेष बनाकर ग्वालबालों की गोष्ठी में बीचोंबीच बैठ जाते हैं और वंशी की मधुर तान छेड़ देते हैं, उस समय मूढ़ बुद्धिवाली हरिणियां भी अपने पति कृष्णसार मृगों के साथ नन्दनन्दन के पास चली आती हैं और अपनी प्रेमभरी कमल के समान बड़ी-बड़ी आंखों से श्रीकृष्ण को निहारने लगती हैं, मानों श्रीकृष्ण के चरणों में अपने-आप को न्यौछावर कर रही हों।

वंशीनाद और नदियां एवं मेघ

श्रीकृष्ण की वंशी-ध्वनि को सुनकर नदियां कामुक स्त्रियों की भांति श्रीकृष्ण के निकट आते ही तरंगरूपी भुजाओं के द्वारा उनका आलिंगन करने को दौड़ीं। उन्होंने श्रीकृष्ण की सेवा की चेष्टा नहीं की, स्वसुख के लिए श्रीकृष्ण की ओर दौड़ी। श्रीकृष्ण हैं कामनाशक। जैसे ही नदियां ऊपर को उठीं। श्रीकृष्ण ने अपने ऊपर आते नदियों के प्रवाह को रोक दिया। मानो कह रहे हों–जिसमें भोगासक्ति का लेश भी नहीं है, वही हमारे वक्ष:स्थल तक पहुंचकर मेरा आलिंगन कर सकता है। नदियां अपने व्यवहार से लज्जित होकर श्रीकृष्ण के चरणों में गिर गईं। उनके तरंगरूपी हाथों में जो कमल थे वे सारे भगवान के चरणों में उपहार बनकर गिर गए। उस वंशी-ध्वनि ने सारे कामियों को विशुद्ध प्रेमी बना दिया था। उस मुरली निनाद को सुनकर सबकी सांसारिक भोगों की सारी कामनाएं क्षण भर में नष्ट हो गईं थीं और सबका चित्त केवल श्रीकृष्ण में ही लग गया था।

यमुनाजी की शीतल जलधारा में पड़े भंवर, ऐसा लगता है जैसे ये एक ही स्थान पर स्थिर होकर वंशीनाद का भरपूर सुख भोगना चाहते हों। यमुनाजी की शीतल जलधारा, मानो वंशी की मादक ध्वनि के प्रभाव से श्रीकृष्ण मिलन के लिए यह अपने तट-बंधन तोड़ने को व्याकुल हो रही है।

श्रीकृष्ण की वेणुमाधुरी से बादल भी अछूते नहीं हैं। जब भी ये बादल श्रीकृष्ण को धूप में गौएं चराते हुए वेणुनाद करते हुए  सुनते हैं, तो उनके हृदय में प्रेम उमड़ आता है और वे श्याममेघ अपने सखा घनश्याम के ऊपर मंडराते हुए अपने शरीर को ही छाता बनाकर तान देते हैं। जब ये बादल श्रीकृष्ण-बलराम के ऊपर नन्हीं-नन्हीं बूंदें बरसाते हैं तब ऐसा जान पड़ता है कि सफेद फूलों की वर्षा द्वारा अपना जीवन ही न्यौछावर कर रहे हैं।

वंशीनाद और पक्षी

वृन्दावन के ये पक्षी मामूली पक्षी नहीं हैं, ये तो आत्माराम हैं। ये पक्षीरूप में महान ऋषि-मुनि ही हैं, जिन्हें यमुनातट पर मौन रहकर भक्ति करने की आदत पड़ गई है। ये निरन्तर श्रीकृष्ण के मनन का आनन्द लेने वाले हैं। ये वेणुनाद सुनकर वृक्षों की डालपर पलकें झुकाकर ऐसे बैठे हैं, मानो तपस्या में लीन हों। ये पूर्वजन्म के ऋषि, पुष्पों से लदी डालपर बैठकर श्रीकृष्ण की रूपमाधुरी के दर्शनकर और उनकी वंशी की मधुर तान सुनकर अपने जीवन को सार्थक कर रहे हैं।

पक्षियों का स्वभाव होता है कि वे सायंकाल कोलाहल करते हैं। लेकिन कन्हैया जब बाँसुरी बजाते हैं, तब वृन्दावन के पक्षी एक शब्द भी नहीं बोलते। वे मौन रहकर तन्मय होकर कन्हैया की बाँसुरी सुनते हैं।

मयूर, भौंरे, चकोर, सारस आदि सबको वंशी ने इस प्रकार बना दिया है कि अपने बोलने का नियम त्यागकर सबने जड़योग का व्रत ले लिया है–

मोर, मधुप, चकोर, सारस, सबहि यह मत करयौ
आपनौ व्रत छांड़ि बानी, जोग जड़ व्रत धरयौ।।

श्रीकृष्ण जब वनभूमि में वेणुनाद कर रहे थे, तो मयूरों ने वहां इकट्ठे होकर अपनी-अपनी पूंछ फैलाकर नाचना शुरु कर दिया। श्रीकृष्ण-दर्शन से ही जिसकी रग-रग नाच उठे, जिनका जीवन संगीतमय हो जाए, वे अत्यन्त सौभाग्यशाली हैं।

बाँसुरी, वंशी अथवा वेणु का परिचय

विषयानन्द और ब्रह्मानन्द ये दोनों जिसके सामने तुच्छ हों उसे वेणु कहते हैं। मानो भगवान अपने परमानन्द को बाँसुरी में भर-भर कर निकाल रहे हों। इस वेणुनाद में समाधि का आनन्द है। यह मुरलीनाद स्वयं ब्रह्मरूप है। यही नादब्रह्म है। यह नादब्रह्म ही शब्दब्रह्म का बीज है। श्रीकृष्ण के साथ नाद या शब्द का पूर्ण अवतार उनकी वंशी के रूप में हुआ। भगवान श्रीकृष्ण ने इसी शब्दरूपी नाद को अपनी वंशी-ध्वनि द्वारा वृन्दावन के स्थावर-जंगम सभी प्राणियों में, पशु-पक्षियों में, पत्ते-पत्ते में, कण-कण में और अणु-अणु में भर दिया।

इस मुरली में क्या बजता है और उससे जगत को क्या दिया जाता है?  मुरली ध्वनि कामबीज है। यह काम भगवत्-काम है इसलिए साक्षात् भगवत्स्वरूप ही है। कामदेव का गर्व चूर करने वाले मनमोहन भक्तों में इस कामबीज का वितरण कर उन्हें अपनी ओर खींच लेते हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी ह्लादिनी सुधा के आनन्द को ही वंशी-ध्वनि द्वारा व्रज के उन लोगों में वितरित किया जो तप और वैराग्य द्वारा कामविजयी थे। भगवान उनसे सर्वस्व का मोह छुड़ाकर उन्हें सहसा आकर्षित कर लेते हैं। मन और इन्द्रियों का दमन कर उनसे संसार का मोह छुड़ाकर वंशीनाद द्वारा उनके अंदर चिन्मय नाद का संचार किया। इस प्रकार श्रीकृष्ण की उस वंशी-ध्वनि ने सारे कामियों को विशुद्ध प्रेमी बना दिया था। संसार के प्रिय-से-प्रिय पदार्थों को तृणवत् त्यागकर सबका चित्त केवल एक श्रीकृष्ण की ओर ही लग गया था।

वंशी की साधना

बांसुरी कहती है मैने बड़े-बड़े तप किए हैं। जीवन भर मैंने शीत का कंपन, वर्षा के प्रहार और ग्रीष्म की ज्वाला में अपने तन को तपाया है। काटी गयी, शरीर को सात छिद्रों में छिदवाया, हृदय में कोई गांठ न रखकर हृदय को शून्य कर दिया। जो मन को शान्त रखकर दु:ख सहन करता है, वह भगवान को बहुत भाता है। उस जीव पर भगवान जल्दी कृपा करते हैं।  इसलिए श्रीकृष्ण ने मुझे अपनाया है। दूसरे, बांसुरी कहती है मैं कभी अकेली नहीं बोलती। कन्हैया को जो पसन्द है, वे जो ध्वनि निकालना चाहें, वही बोलती हूँ। और तब ऐसा बोलती हूँ कि सुनने वाला डोल उठता है। मेरा शब्द सुनकर नाग भी डोलने लगता है और हिरण भी तन्मय हो जाता है अर्थात् सज्जन-दुर्जन सभी को सुख मिलता है। श्रीकृष्ण प्रेम का अधरामृत चाहने वाले प्रत्येक जीव को बाँसुरी की तरह साधना का मार्ग अपनाना चाहिए। जब तक सुख-दुख में समता, इष्ट के लिए सर्वस्व समर्पण और हृदय को विषय-वासना से निर्मूल नहीं कर लिया जाता, तब तक जीव भगवान की इस मुरली-ध्वनि को नहीं सुन सकेगा।

वेणु के माधुर्य पर स्वयं रीझे श्रीकृष्ण

श्रीकृष्ण स्वयं ही अपनी वेणु पर लट्टू हो रहे हैं। वेणु में क्या गाते हैं, वही समझे। कभी-कभी करील के सघन कुंजों में आनन्द-विह्वल उन्माद में जब रागिनी छेड़कर नाचते हैं, तो एक साथ ही पैंजनी, करधनी और मुरली एक दिव्य लास्य में बज उठती हैं, घुंघराली केशराशि हवा के झोंके में लहराकर कभी कुण्डल को ढक लेती है और कभी वंशी को छू लेती है। कभी पीतपट की फहरान तो कभी सुकोमल चरणों के तलवों की प्यारी-प्यारी लाली प्राणों को चुरा ले जाती है। सभी जीवों के प्राण उनके चरणों में न्यौछावर होने के लिए छटपटा रहे हैं। वेणु बजाकर चर-अचर सबको मोहे हुए है, सबको बुला रहे हैं, संकेत दे रहे हैं–आआो! अपने एक स्पर्श से तुम्हारे जन्म-जन्मान्तर की तपन बुझा दूंगा, तुम्हारी युग-युग की प्यास बुझा दूंगा।

कितना छलिया है ये कन्हाई!  कैसे आकर्षण भरे प्रलोभन देकर अपने निकट बुलाता है और जब हम पागल से उसके चरणों में अपने हृदय की भेंट चढ़ाने आते हैं तो न जाने कहां छिप जाता है। यह है उसकी नित्य की लीला। यही है उसका लोक-लोकान्तर के सभी प्राणियों के साथ रसरंग। अपनी झिलमिल-झिलमिल रूपश्री की आभा बिखेरकर कभी सम्मोहन की तान छेड़ देता है, बुलाता है और दूसरे ही पल छिप जाता है। वह एकमात्र अपना होकर भी–जीवन का सर्वस्व, प्राणों का आधार, सर्वेश्वर होते हुए भी कितनी दूर है, उफ कितनी दूर!

अब तो बस यही कामना है–हे कृष्ण! दया करके एक बार अपनी उस उन्मादकारी मोहिनी मुरली का स्वर सुना दो, जिसने व्रजांगनाओं को श्रीकृष्णगतप्राणा बना दिया था।

3 COMMENTS

    • धन्यवाद! इसका तो यही अर्थ है कि आपका हृदय श्रीकृष्ण-प्रेम से ओत-प्रोत है।

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