मैया री! मैं गाय चरावन जैहौं।
तूँ कहि महरि नंदबाबा सों, बड़ो भयो न डरैहौं।।
श्रीदामा लै आदि सखा सब, अरु हलधर सँग लैहौं।
दह्यौ-भात काँवरि भरि लैहौं, भूख लगै तब खैहौं।।
बंसीवट की सीतल छैयाँ खेलत में सुख पैहौं।
परमानंददास सँग खेलौं, जाय जमुनतट न्हैहौं।।

ब्रह्ममयी व्रजभूमि में भगवान श्रीकृष्ण को गौएं, गोपियां और ग्वालबाल–ये तीन अत्यन्त प्रिय थे। कन्हैया अपने साथी ग्वालबालों और गौओं के साथ क्रीड़ाकर गोपियों को आनन्दित करते रहते थे। चंचल कन्हैया की बाललीलाओं के रस का आनन्द लेते हुए बड़भागी व्रजवासियों के दिन क्षण के समान बीत रहे थे। गोकुल में आए दिन होने वाले राक्षसों के उत्पातों से बचने के लिए उपनन्दजी के परामर्श से समस्त नन्दव्रज वृन्दावन चला आया। अब वृन्दावन के अनुरुप ही नन्दनन्दन का लीलासमुद्र भी हिलोंरे लेने लगा। कन्हैया कब, कैसे, किससे वंशी बजाना सीख गए, किसी को नहीं मालूम। दल-की-दल व्रजपुर की गोपांगनाएं प्रतिदिन नन्दमहल में आतीं और कहतीं–

’प्यारे कन्हैया! विचित्र बात है। भला, देखो–कहां तो तुम्हारे ये सुकोमल नन्हें-से अधर माता के स्तनपान में भी समर्थ न थे, कहां उसी अधर पर वंशी धारणकर तुम इन्हीं कुछ दिनों में इतनी मधुर वंशी बजाना सीख गए। अरे बताओ तो सही, इतने कम समय में इस मधुर वंशीवादन की शिक्षा तुमने किस गुरु से ली।’ (श्रीआनन्दवृन्दावनचम्पू:)

श्रीकृष्ण भी ब्रजांगनाओं का प्रोत्साहन पाकर माता की गोद में बैठे वंशी में रस भरने लगते। वंशी उनके अधरों का रस पाकर और रसमयी होकर समस्त वृन्दावन में रस की सरिता बहा देती। सभी गोपियां कन्हैया की मुरली की रस-सुधा का पान करके बलिहार जातीं। कन्हैया दिन-भर दो ही कामों में व्यस्त रहते–एक, वंशी बजाना और दूसरे, सखाओं के साथ गाय और गोवत्स (बछड़ों) के साथ विभिन्न प्रकार की क्रीड़ा करना। कभी गाय-बछड़ों को अपने अधीन कर नचाते कभी उनके सींगों को पकड़कर खेलते। नन्दबाबा व नन्दरानी स्नेहवश भयभीत हो जाते पर बार-बार मना करने पर भी कन्हैया एक नहीं सुनते थे। जब देखो तब वे गायों, बछड़ों व वृषभों के संग खेलते रहते थे। माता का अधिकांश समय गोष्ठ (गायों के रहने का स्थान) में ही व्यतीत होता क्योंकि ऐसे चंचल कन्हाई पर नियन्त्रण संभव नहीं था। साथ में उन्हें बड़े भैया दाऊ का प्रोत्साहन था। अब किसका भय? माता को सूचना देने वाले तो दाऊ भैया ही हैं, जब वे ही सम्मिलित हैं तो चिन्ता किस बात की? श्रीकृष्ण कभी विश्राम करते हुए सांड़ की पीठ पर चढ़ जाते और बलराम उसकी पूंछ उमेठना शुरु कर देते। भयभीत नन्दरानी कितना भी समझाएं, पर दोनों भाई कहां मानने वाले थे।

अक्सर वह दाऊदादा के साथ माता की नजरों से बचकर वन में चले जाया करते थे जहां गोपबालक गोचारण कर रहे होते थे। वे उन गोपबालकों के साथ बछड़ा चराते हुए खेलते रहते थे। अपने प्राणप्रियतम नीलमणि व बलराम को वन में इतनी दूर अकेले गया देखकर नन्दरानी का हृदय धक्-धक् करने लगता। नन्ददम्पत्ति ने इस भय से कि खेलते-खेलते पता नहीं किसी दिन किधर चले न जाएं, निश्चय किया कि–’सचमुच ये राम (बलराम) और श्याम बहुत चंचल हो गए हैं। यदि ये गोवत्सों के संग के बिना रह नहीं सकते तो अच्छा है कि व्रज के निकट रहकर ये छोटे बछड़ों को चराया करें।’ कन्हैया को तो मनवांछित प्राप्त हो गया। गोचारण तो गोपजाति का स्वधर्म है।

चले हरि वत्स चरावन आज।
मुदित जसोमति करत आरती साजे सब सुभ साज।।
मंगलगान करत ब्रजबनिता, मोतिन पूरे थाल।
हँसत हँसावत बत्स-बाल सँग चले जात गोपाल।।

जो सारे लोकों के ईश्वर हैं, परमब्रह्म परमात्मा हैं, वे ही श्रीकृष्ण-बलराम अब वत्सपाल (बछड़ों के चरवाहे) बने हुए हैं। वे तड़के ही उठकर कलेवे का भोजन (छाक) ले लेते और बछड़ों को चराते हुए वन में घूमा करते। श्रीकृष्ण के अगणित बछड़ों के साथ ग्वालबाल हाथों में बेंत, सिंगी और बांसुरी लेकर अपने-अपने बछड़ों के साथ वत्सचारण के लिए निकल पड़ते। वन में वे विभिन्न रंगों के फलों, फूलों, कोंपलों, पत्तों, मोरपंखों व गेरू आदि से श्रीकृष्ण का व अपना श्रृंगार करते। कोई ग्वाल बांसुरी बजाता, कोई सिंगी फूंकता, कोई कोयल के साथ स्वर में स्वर मिलाकर कुहु-कुहु करता, कोई बंदर की पूंछ पकड़ कर खींचता, कोई पक्षियों की छाया के साथ दौड़ लगाता, कोई मयूर नृत्य करता, कोई मेंढक के साथ फुदकता, कोई अपने शब्द की प्रतिध्वनि (इको) को ही बुरा-भला कहता। अनेक कल्पों की तपस्या के बाद भी योगियों के लिए जिन सच्चिदानन्द परमब्रह्म श्रीकृष्ण के चरणकमलों की रज अप्राप्य है, वही भगवान श्रीकृष्ण व्रजवासी बालकों के साथ खेलते हैं, उनके सौभाग्य की महिमा का बखान नहीं किया जा सकता।

इस प्रकार खेलते-कूदते बाल्यावस्था बीत गई। कन्हैया छह वर्ष पूरा करके सातवें वर्ष में प्रवेश करते हैं। अब उनकी आयु का प्रवाह भी बाल्यावस्था को पार कर पौगण्डावस्था में प्रवेश कर रहा है। उसी के अनुरुप उनकी मेधा व बल का विकास हो चुका है। मेघश्याम शरीर, कमलनेत्र व विकसित वक्ष:स्थल और स्वभाव में भी पौगण्डावस्था के चिह्न दिखने लगे हैं। आजतक श्रीकृष्ण वत्सपाल थे, छोटे-छोटे बछड़ों को लेकर चराने जाते थे। एक दिन नीलमणि कृष्ण ने मां से कह ही दिया–’मां! मैं बड़ा हो गया हूँ, मुझे ‘गोपाल’ होना है। मुझे गायों की सेवा करनी है। अब जब मैं और दाऊदादा बड़े हो गए हैं तो केवल बाबा ही क्यों गोचारण का कार्य करें?’

मैया री! मैं गाय चरावन जैहौं।
तूँ कहि महरि नंदबाबा सों, बड़ो भयो न डरैहौं।।

कन्हैया की बात सुनकर माता का हृदय भयभीत हो गया। अभी तो मेरे नीलमणि के दूध के दाँत भी नहीं उतरे हैं, यह भला वन में गोचारण करने कैसे जाएगा? हठीले मोहन बात पकड़ लेने पर छोड़ना जानते ही नहीं।

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इधर भगवान श्रीकृष्ण की लीलाशक्ति ने भी अपना उपक्रम करना शुरु कर दिया। जिन गोवत्सों को नन्दनन्दन वत्सपाल बनकर गोपशिशुओं के साथ वन में ले जाया करते थे, वे सब गौएं बन चुकी थीं। श्रीकृष्ण-बलराम के हाथ से जिन गोवत्सों ने कोमल तृण (घास) का ग्रास लिया था, जिनका दोहन (दूध दुहना) कन्हैया के हस्तकमलों से हुआ था, जिनकी सेवा-सुश्रुषा व्रजराजकुमार के हाथों से हुई थीं, उनके अंत:स्तल में कन्हैया के प्यार की अनन्त स्मृतियां बसी हुईं थीं; पर उनकी मूक वाणी उसे व्यक्त नहीं कर पा रही थी। अत: वे अब किसी गोपसेवक को अपने शरीर का स्पर्श तक नहीं करने देती थीं। न ही वे गौएं किसी अन्य गोपसेवक के संग वन में विचरण करने को जाती थीं। सभी गोपसेवकों ने नन्दरायजी को जाकर सूचना दी कि अब गोधन आपके पुत्र के बिना एक पग भी वन की ओर अग्रसर नहीं होता। जब तक श्रीकृष्ण स्वयं उनके आगे आकर खड़े न हो जावें, किसी भी प्रकार गौएं वन जाने को तैयार नहीं होती हैं। किसी भी गोप को अपने पास आता देखकर वे बिदक जातीं  हैं और कन्हैया के गोष्ठ में आने पर पूरा गोष्ठ ‘हम्बारव’ से गूंज जाता है, उनके थनों से दूध बरसने लगता है। गायों के थनों में इतना दुग्ध कहां से आता, इसे कोई नहीं जानता। सभी गोपसेवक गायों का कन्हैया के प्रति अद्भुत आकर्षण देखकर अचम्भित रह जाते पर इसका रहस्य न जान पाते। गोपों ने नन्दरायजी से कहा–’व्रजराज! यह तो जानी हुई बात है, जहां कहीं जिसके प्रति भी आपका पुत्र प्रेम प्रदर्शित करता है, वहां-वहां सर्वत्र यही परिणाम सामने आता है।’

नन्दबाबा गोपों से सुनते, स्वयं भी देखते, अनुभव करते कि मेरे पुत्र में सचमुच गोसंरक्षण की अद्वितीय योग्यता है। परन्तु पिता का मन अपने पुत्र के अनिष्ट के लिए कंस द्वारा बार-बार भेजे गए राक्षसों की याद से सिहर उठता। उपनन्दजी व अन्य गोपों ने नन्दरायजी को समझाते हुए कहा–’व्रजराज! यह तो आपके तप का ही प्रभाव है जो आपके पुत्र में इतनी विलक्षण बुद्धि व बल आ गया है, उसने दुष्ट राक्षसों का जो संहार किया, उसमें किसी अन्य की कोई सहायता नहीं ली। इसलिए आगे भी मंगल ही होगा।’

अत: आज सभी गोपों और कन्हैया की मांग को मानते हुए नन्दबाबा ने समस्त गायों के संचरण व संरक्षण का भार कन्हैया को सौंप दिया। सभी गोपों व उपनन्दजी ने श्रीकृष्ण के गोचारण के लिए ज्योतिषियों से शुभ मुहुर्त निकलवाने का परामर्श दिया। उसी समय शांडिल्य ऋषि वहां आ गए। यशोदामाता ने पाद्य-अर्घ्य आदि से पूजन कर ऋषि से कहा–’महाराज! कन्हैया की ‘गोपाल’ होने की इच्छा है, कोई अच्छा मुहुर्त बताइए।’ शांडिल्य ऋषि ने कन्हैया के जन्माक्षर देखकर कार्तिक शुक्ल पक्ष, श्रवण-नक्षत्र युक्त अष्टमी (गोपाष्टमी), बुधवार का शुभमुहुर्त बताया। सारे व्रज में यह बात फैल गई। सभी व्रजवासियों ने भी निश्चय किया कि हम भी अपने बच्चों को उसी दिन से गोचारण के लिए भेजेंगे।

गाय चरावन को दिन आयो।
फूली फिरत जसोदा अंग अंग लालन उबट न्हवायो।।
भूषन बसन पलट पहेराये रोरी तिलक बनायो।
बिप्र बुलाय वेदध्वनि कीनी मोतिन-चोक पुरायो।।
देत असीस सकल गोपीजन आनंद मंगल गायो।
लटकत चलत लाडिलो बनकों परमानंद जिय भायो।।

दिन और रात का अवसान होकर गोचारण के शुभ दिन का मंगल प्रभात हुआ। मन-ही-मन नन्दबाबा आज के पुण्यप्रभात को धन्यवाद दे रहे हैं। सब ओर आनन्द छाया है–‘आजु ब्रज छायो अति आनंद।’ नन्दनन्दन श्रीकृष्ण के प्रथम गोचारण महोत्सव के उपलक्ष्य में व्रजपुर में क्या-क्या हुआ, उसका पूरा वर्णन करना तो किसी के लिए भी संभव नहीं है। सप्तमी तिथी की रात्रि को कन्हैया को निद्रा ही नहीं आई। वे प्रात:काल जाग गए। नन्दरायजी के आदेश से नंदमहल के साथ व्रजपुर के प्रत्येक घर, द्वार, तोरण-द्वार, वीथी (गली), चौराहे को सजाया गया है। द्वार पर चौक पूर कर मंगल कलश रखे गए है। घर-घर मंगलगीत गाए जा रहे हैं।

माता के आनन्द का क्या कहना? जिसका सौंदर्य सारे जग को विस्मित कर दे, जो मोहन है, मनमोहन हैं, भुवन मनमोहन हैं; उनको उबटन लगाकर स्नानादि कराकर नन्दरानी ने ‘गोपाल’ बनने के योग्य सुन्दर नवीन वस्त्राभूषणों से और भी सजा दिया। कहीं नजर न लग जाए, इसलिए माथे पर काजल का डिठौना भी लगा दिया–’राइ लोन उतार जसोदा गोबिंद बल बल जाय।’

माता के हाथों से सजकर नीलमणि श्रीकृष्ण आंगन में खड़े हैं। यशोदामाता ने कन्हैया से कहा कि बेटा तुम्हारे कोमल पैरों में वन के कांटे चुभेंगे इसलिए तुम जड़ीदार जूतियां पहनकर गोचारण के लिए जाओ। कन्हैया ने कहा–’माँ! यदि तू मुझे जूते पहनने के लिए कहती है तो मेरी पूज्या गायों के लिए भी जूते बनवा दे।’ माता ने कहा–’बेटा तू तो मनुष्य और छोटा बालक है। तेरे कोमल चरणों को वनों के जंगली कांटों से बहुत कष्ट होगा। गाएं तो पशु हैं। भला वे कैसे जूती पहन सकती हैं।’

कन्हैया ने माता से कहा–’माँ! तूने आज गायों को पशु कहा, सो कहा, आगे से कभी न कहना। जो गायों को पशु कहता है, वह मुझे जरा भी नहीं सुहाता है। गाएं पशु नहीं–’गावो विश्वस्य मातर:।’ गाएं समस्त विश्व की माता हैं, सभी कामनाओं को पूरा करने वाली कामधेनु हैं। गौओं के रोम-रोम में देवताओं का वास है। ये सर्वतीर्थमयी हैं। ये भवसागर से पार लगाने वाली व गोलोक की प्राप्ति कराने वाली मेरी इष्ट हैं। मैं तो गोपाल हूँ। गोपाल तो गायों का सेवक है। यदि गायें नंगे पैर चलती हैं, तो उनका सेवक भी नंगे पैर चलेगा।’

गोधन पूजें गोधन गावें।
गोधन के सेवक संतत हम, गोधन ही को माथो नावें।।
गोधन मात-पिता गुरु गोधन, देव जानि नित ध्यावें।
गोधन कामधेनु कल्पतरु, गोधन पै माँगे सोई पावें।। (परमानन्ददास)

कन्हैया ने गायों की सेवा बड़े प्रेम से की है, गायों की ऐसी सेवा अब तक किसी ने नहीं की।

इष्टदेव प्रभु सबहिके, जिनकी गउएं सेव।
तिनकी सेवा सौं स्वयं, चार पदारथ लेव।।
जिनके सेवक हैं स्वयं गोकुलेश गोपाल।
उनकी सेवा से कहौ, क्यों न कटै भवजाल।। (श्रीराधाकृष्णजी श्रोत्रिय, ‘सांवरा’)

श्रीकृष्ण के श्रृंगार के बाद उनका रक्षा-विधान सम्पन्न हुआ है। ब्राह्मणों ने पुण्याहवाचन कर्म कराकर गुरुजनों के साथ कन्हैया को आशीर्वचन दिए। नन्दरानी, रौहिणीजी और अनेक व्रजगोपियों ने मंगलगीत गाकर नंदनन्दन की आरती उतारी। कन्हैया उस अपार गोधन के समीप गए। उन्होंने गायों को पाद्य आदि अर्पण कर उनकी पूजा-अर्चना की। उन्हें तृण व लड्डू खिलाकर तृप्त किया और फिर गायों की प्रदक्षिणा कर साष्टांग वंदन कर उनके खुरों का स्पर्श कर स्तवन किया। गायें भी कन्हैया को देखकर रँभाने लगती हैं। यशोदामाता का हृदय भी प्रेम से भर उठा है, वह कहती हैं–’गायों की सेवा कभी व्यर्थ नहीं जाती, गायों का आशीर्वाद पाकर ही मेरा बालक सुखी होगा।’

भगवान श्रीकृष्ण के प्रथम गोचारण पर गायों का अनुपम श्रृंगार

कन्हैया की गायों का श्रृंगार और चमक-दमक देखने लायक थी–

गाइन की छवि नहिं कहि परै। रूप अनूप सब के हिय हरै।।
कंचन भूषन सब के गरै। घनन घनन घंटागन करै।।
उज्जल बरन सु को है हंस। कामधेनु सब जिन कौ अंस।।
दरपन सम तन अति दुति देत। जिन मधि हरि झांई झुकि लेत।।

श्रीकृष्ण और बलराम का सुन्दर मुंह निहारती हुई गौएं उनके आगे-पीछे और अगल-बगल में खड़ीं थीं। गौओ के गले में क्षुद्रघंटिकाओं (छोटी घण्टियों) की व सोने की मालाएं पहनाई गयीं थीं। पैरों में घुंघुरु व पूंछ के बालों में मोरपंख व मोतियों के गुच्छे पहनाये गये थे। दोनों सींगों के बीच में मणिमय अलंकार, पीठ पर मोतियों की झूल, चमकते हुए सींगों से गौओं की शोभा बहुत बढ़ गई थी। गौओं के भाल पर लाल तिलक, पीले रंग से रंगी पूछें व अरुणराग से रंगे खुर–सब-की-सब भव्य-मूर्ति सी दिखाई पड़ रहीं थीं। कोई कैलास के समान श्वेत वर्ण की, कोई लाल, कोई पीली, कोई चितकबरी, कोई श्यामा, कोई धूमिल वर्ण, तो कोई तांबई रंग की थी और उन सबके नेत्र कन्हैया की ओर ही लगे थे। नन्दबाबा व नन्दरानी ने अपने इष्टदेव नारायण को मनाया। ब्राह्मणों को स्वर्णदान कर कन्हैया के लिए सबसे आशीर्वाद लिए–

’बिप्र बुलाय दान करि सुबरन सबकी सुखद असीसें लीन्हीं।
कर पकराइ नयन भरि अँसुवन सकल सँभार दाउए दीन्हीं।।

बड़ी सुखी हैं नन्दरानी आज, पर जब कन्हैया चलने लगे तब पुत्र के वात्सल्य-स्नेह में आकंठ डूबे माता के मन ने आशंकाओं के पहाड़ खड़े कर दिए। वे डर गईं कि वन में मेरे कन्हैया का कोई अनिष्ट न हो जाए। नन्दरानी की आंखों में आंसू छलक आए। उन्होंने दाऊजी को कन्हैया का हाथ पकड़ाकर कहा–’बेटा! तुम बड़े हो, यह कन्हैया बड़ा चंचल है; अपने इस छोटे भाई की सम्भाल रखना।’ तभी कन्हैया के सभी ग्वालसखा आ गए। यशोदामाता उनमें से एक-एक को समझाती हैं–’मेरे लाला का ध्यान रखना। यह बहुत शरारती हो गया है।’ ग्वालमित्रों ने कहा–मां! तुम इसकी जरा भी चिन्ता न करना। हम इसका हाथ पकड़कर ही चलने वाले हैं।’ जो जगत को सम्हालने वाला है उसे ये ग्वालमित्र प्रेम से सम्हालने चले हैं।

परन्तु माता यशोदा का पुत्रप्रेम तो विलक्षण है। वह पुकार रही हैं–’बलराम! बेटा! तू नीलमणि के आगे हो जा। अरे सुबल! तू मेरे लाल के पीछे हो जा। अरे ओ श्रीदामा! ओ सुदाम! तुम दोनों इस नीलमणि के अगल-बगल में रहना। अरे बालको! सुनते हो, देखो, तुम सब अपने इस प्यारे मित्र नीलमणि को सब ओर से घेर कर चलना।’ इस प्रकार माता यशोदा सभी को श्रीकृष्ण का ध्यान रखने का निर्देश दे रही हैं। दें भी क्यों न? अब तक बार-बार कन्हैया का अनिष्ट करने के लिए कंस द्वारा भेजे गए राक्षसों के भय से माता का हृदय अभी तक आशंकित है। इस कारण उनकी आंखें निरन्तर झर-झर बरस रही हैं।

नन्दबाबा निर्निमेष नयनों से श्रीकृष्ण के लिए यशोदा की प्रेमदशा देख रहे थे। उनके हृदय का आनन्द-रस आंसू बनके आंखों के रास्ते बाहर आना चाहता था। आज वे इस मंगलबेला के लिए अपने नारायण को मन-ही-मन धन्यवाद दे रहे थे। नन्दबाबा ने अपने पुत्र के हाथ में एक छोटी-सी मणिमय लाल लकुटी (छड़ी) पकड़ा दी। सजे-धजे गोवत्स व गाएं द्वार पर कन्हैया की प्रतीक्षा कर रहे हैं। कन्हैया के आते ही सभी आनन्द में भरकर कूदने लगे। नन्दलाल ने माता-पिता व सभी गोपजन को प्रणाम किया और गोचारण के लिए चल दिए–

प्रथम गोचारण चले कन्हाइ।
कुंडल लोल कपोल विराजत सुंदरता चल आई।।
माथे मुकुट पीताम्बर की छवि वनमाला पहराइ।
घर घरतें सब छाक लेत हैं संग सखा सुखदाइ।।
गाय हाँक आगें कर लीनी पाछे मुरली बजाइ।
परमानंद प्रभु मनमोहन ब्रजजन सुरति कराइ।।

गोपियां मंगलगीत गा रही हैं। अपने घर के सामने आने पर सभी गोपांगनाएं कन्हैया की आरती उतार रही हैं। आगे-आगे गोवत्स और गौएं और उनके पीछे सखाओं के साथ नन्दनन्दन कंधे पर छींका (वन में खाने के लिए माता द्वारा दिया गया भोजन) रखे हुए चल रहे हैं। गौओं, ग्वालबालों व नंदनन्दन पर गोपियां पुष्प बरसा रही हैं। इस अद्भुत दृश्य को देखने के लिए देवी-देवता अपने-अपने लोकों को छोड़कर व्रज में चले आए हैं।

Krishna, Balaram tend the cows

श्रीकृष्ण का ‘गोपाल’ रूप और गोपियों की दशा

श्रीकृष्ण की खिलती हुई नई किशोरावस्था, बड़े व सुडौल कंधे, सबको अभय देने वाले भुजदण्ड, मतवाले हाथी की-सी चाल–व्रज की स्त्रियों को देह की सुधि भी भुलाने वाली है। श्रीकृष्ण के श्रीअंग की शोभा देखकर गोपियां उन्हें नजर से बचाने के लिए तृण तोड़ती हैं।  इस प्रकार उस लावण्य, गुण, शील, आनन्द, दया, बल व शोभा की निधि को देख-देख कर पूरा व्रजपुर ही बलिहारी जा रहा है। जो वेदों के लिए भी अवर्णनीय हैं, तब दूसरा कोई उनके वर्णन में समर्थ कैसे हो सकता है? षोडश कलाओं से परिपूर्ण परमानन्द ही गोकुल में अवतरित हुआ है।

एक गोपी दूसरी गोपी से कहती है–ऐसे ‘गोपाल’ को देखकर उन पर तन, मन, धन–सर्वस्व न्यौछावर कर इन नवीन किशोर की मधुर मूर्ति की शोभा हृदय में रख लूँ। इस किशोर के प्रफुल्ल (पूर्ण विकसित) लाल कमल के समान नेत्र हैं, हाथ में मुरली है, उस सुन्दर श्रेष्ठ त्रिभंगयुक्त शरीर पर वनमाला व अत्यन्त सुन्दर कुसुम्भी पगड़ी की उपमा-योग्य कोई पदार्थ नहीं है।

ऐसौ गोपाल निरखि तन मन वारौं।
नव किसोर, मधुर मुरति, सोभा उर धारौं।।
अरुन तरुन कमल नैन, मुरली कर राजै।
ब्रज जन मन हरन वेनु मधुर मधुर बाजै।।

व्रजांगनाएं गोपाल की अंगकान्ति को देखकर अपने-आप को भूल गईं हैं। कोई कुण्डल की कांति पर मोहित हो गई है तो कोई अरुणाभ कपोलों को देखकर स्तब्ध हो गई है। कोई एकाग्रचित्त से उनके ललाट पर लगे चन्दन को देख रही है, तो कोई अपलक नेत्रों से उनके सुन्दर नेत्रों को देख रही है। कोई श्रीकृष्ण के पूरे श्रीअंग का दर्शन न कर पाने से पश्चात्ताप कर रही है, तो कोई गोपी उनकी सुन्दर नाक को ही देखती रह गई। कोई गोपी श्रीकृष्ण के दांतों की चमक पर ही चकित हो गई है, तो दूसरी गोपी तो गोपाल के चंचल नेत्रों के संकेत पर बिना मूल्य के ही बिक गई है–

सखी हौं स्याम रँग रँगी।
देखि बिकाय गई वह मूरति, सूरति माहिं पगी।। (श्रीगदाधरभट्टजी)

उन चित्त के चुरैया श्रीकृष्ण के रूप का गोपांगनाएं आंखों की कोर से अधीर होकर पान कर रही हैं। व्रजांगनाएं जहां-तहां मुग्ध खड़ी हैं। कभी श्रीकृष्ण के पास आने पर हर्षित और कभी दूर जाने पर उदास हो जातीं हैं। जिसने उनके जिस अंग को देखा, वह वहीं अनुरक्त होकर आत्मविस्मृत हो जाती है–’निरखि जो जिहिं अंग राँची, तहीं रही भुलाइ’ (सूरदास)।

तभी शुरु हो जाती है व्रजपुर की गोपसुन्दरियों के कण्ठ से मंगलगीतों की सुमधुर ध्वनि; दुन्दुभि, ढक्का, पटह, मृदंग, मुरज, आनक, वंशी, कांस्य आदि वाद्ययन्त्रों का आकाश को भी गुंजायमान करने वाला नाद और आनन्द में मस्त गोप-गोपियों के नृत्य की झंकार। ‘श्रीकृष्णचन्द्र की जय। रोहिणीनन्दन बलराम की जय।। राम और श्याम चिरं जीव चिरं जीव।’ इस तरह के सामूहिक घोष से चारों दिशाएं निनादित हो उठीं। इस प्रकार नीलमणि श्रीकृष्ण और उनके अग्रज बलराम आज ‘वत्सपाल’ से ‘गोपाल’ बन गए हैं।

आगे गाय पाछे गाय इत गाय उत गाय।
गोविन्द कूँ गायन में बसिबौ ही भावे।।
गायन के संग धावै गायन में सचु पावै।
गायन की खुर रेनु अंग लिपटावै।।
गायन सों व्रज छायौ, वैकुंठ विसरायौ।
गायन के हित गिरि कर लै उठावै।।
‘छीतस्वामी’ गिरिधारी, विट्ठलेस वपु-धारी।
ग्वारिया कौ भेषु धरैं गायन में आवै।।

श्रीकृष्ण अनेक सखाओं के साथ गोचारण करते हुए वृन्दाकानन की ओर जा रहे हैं। आगे-आगे गौएं, उनके पीछे-पीछे बांसुरी बजाते हुए श्यामसुन्दर, फिर बलराम और उनके पीछे श्रीकृष्ण के यश का गान करते हुए ग्वालबाल–इस अप्रतिम दृश्य की शोभा को व्यक्त करने में वाणी भी समर्थ नहीं है।

ग्वाल मंडली मध्य स्याम घन,
पीत बसन दामिनी लजाएें।
गोप सखा आवत गुन गावत,
मध्य स्याम हलधर छवि छाएें।। (सूरदास)

गोपबालकों की मंडली के बीच मेघ के समान श्यामसुन्दर का पीताम्बर बिजली को भी लज्जित कर रहा है। गोप-सखा उनका गुणगान कर रहे हैं और बीच में कृष्ण-बलराम सुशोभित हो रहे हैं।

सुंदर स्याम, सखा सब सुंदर, सुंदर वेष धरैं गोपाल।
सुंदर पथ, सुंदर गति आवन, सुंदर मुरली सब्द रसाल।।
सुंदर लोग, सकल ब्रज सुंदर, सुंदर हलधर, सुंदर चाल।
सुंदर वचन, विलोकनि सुंदर, सुंदर गुन, सुंदर वनमाल।।
सुंदर गोप, गाइ अति सुंदर, सुंदरि गन सब करति विचार।
सूर स्याम सँग सब सुख सुंदर, सुंदर भक्त हेत अवतार।।

सूरदासजी कहते हैं–श्यामसुन्दर तो सुंदर हैं ही, उनके सभी सखा भी सुंदर हैं और इतने सौंदर्य पर भी उन्होंने गोपाल (ग्वालिए) का वेष धारण कर रखा है। सुंदर मार्ग, सुंदर गति से गोपाल का आना, सुंदर मुरली जिसके शब्द भी रसमय हैं। व्रज के सभी लोग सुंदर हैं, पूरा व्रज सुंदर है, श्रीबलराम और उनकी चाल भी सुंदर है। वाणी सुंदर, चितवन सुंदर और सूत में गुंथी वनमाला भी सुंदर है। गोप सुंदर और गाएं तो अति सुंदर हैं और सुंदर व्रजांगनाएं भी श्रीकृष्ण की सुन्दरता का ही विचार किया करती हैं। श्रीकृष्ण के साथ सभी सुख सुंदर हैं और सुंदर भक्तों के लिए उनका यह सुंदर अवतार हुआ है।

इस प्रकार परस्पर हंसते-खेलते, गौओं को भगाते-कुदाते सभी ने पास ही के वन में प्रवेश किया। कन्हैया अपने कोमल हाथों से हरी-हरी दूब तोड़ते और गायों को अपने हाथों से खिलाते। भगवान श्रीकृष्ण के हाथों का मधुर स्पर्श पाने को कामधेनु भी व्रज की गाय बनने की अभिलाषा करती है–

कामधेनु तरसत रही मैं न भई व्रज गाय।
राधा लाती दोहनी मोहन दुहते आय।।

ऐसे ही अनेक कौतुकों से गायों और गोपसखाओं को सुखी कर सबने यशोदामाता द्वारा दी गयी छाक का भोजन किया।

वृंदावन वन में स्याम चरावत गैया।
वृंदावन में वंशी बजाई बैठे कदंब की छैया।।
भांति भांति के भोजन कीने पठये यशोमति मैया।
सूरदास प्रभु तुम चिरजीयो मेरो कुंवर कन्हैया।।

वृन्दावन के कोने-कोने पर इस गोपाल का ही साम्राज्य है क्योकि यह गोलोक की ही विभूति है। इसलिए यह वृन्दाभूमि उनके चरणचिह्नों–ध्वजा, पद्म, वज्र, अंकुश, जौ आदि–से पूर्व की अपेक्षा और भी अधिक अलंकृत और धन्य होने जा रही है।श्रीकृष्ण, दाऊदादा और ग्बालवालों के साथ वन में चारों ओर विचरण करने लगे। वे कभी सखाओं के साथ भंवरों के स्वर-में-स्वर मिलाकर गावें, कभी कलहंसों के साथ कूजन करें, कभी मोर के साथ नाचें। दोनों में नृत्य की होड़ लगने पर जब मोर हार जाए तो ग्वालबाल ताली पीट-पीट कर अपने सखा की पीठ ठोंकें। कभी कन्हैया मोर, चकवा आदि पक्षियों की बोली बोलते तो कभी बाघ, सिंह आदि की गर्जना से डरे हुए जीवों के समान स्वयं भी भयभीत होने की-सी लीला करते। जब कभी दाऊदादा किसी सखा की गोद में सिर रखकर सो जाएं तब कन्हैया स्वयं उनके चरण दबाएं मानो कह रहे हों कि पहले जब तुम लक्ष्मण थे, तब तुम हमारे पाँव दबाया करते थे। पर अब जब तुम बड़े भाई बने हो तो तुम्हें हमसे पाँव दबवाने पड़ेंगे। कभी कन्हैया स्वयं ग्वालबालों के साथ कुश्ती लड़ते-लड़ते थक जाते तो किसी पेड़ के नीचे पत्तों की शय्या पर सो जायें। तब सखा उनकी सेवा करें, पांव दबावें, तालवृन्त के पत्तों का पंखा झलें और उनके मन को प्रिय लगने वाले गीत गावें। इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण अपनी योगमाया से अपने ऐश्वर्यमय स्वरूप को छिपाकर ग्वालबालों के समान लीला करते हैं।

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श्रीकृष्ण बलरामजी से कहते हैं–दादा! यह वृन्दावन के वृक्ष भी अपनी डालियों में सुन्दर फूल एवं फलों को लेकर आपके चरणकमलों में झुक रहे हैं। ये वृक्ष सिर झुकाकर आपको नमस्कार कर रहे हैं। ये पूर्वजन्मों में बड़े भक्त व संत थे। अब अपनी इच्छा से वृक्ष हो गए हैं। इन्होंने वृन्दावन का वृक्ष बनना इसलिए चाहा, ताकि व्रजरज में ही ये गड़े रहें, अपनी जगह से टस-से-मस न हों और कृष्णावतार में जब श्रीकृष्ण गोचारण के लिए आवें, तो उस झांकी का दर्शन कर अपने अनेक जन्मों की श्रीकृष्ण दर्शन की इच्छा पूरी कर सकें। उद्धवजी, ब्रह्माजी भी यही चाहते थे कि वे व्रज के वृक्ष, लता हो जावें।

श्रीकृष्ण बलरामजी से कहते हैं कि ये भंवरें, हरिणियां, कोकिला आदि भी संत हैं। अतिथि का स्वागत करना संत का स्वभाव होता है। वे अपनी प्रिय-से-प्रिय वस्तु अतिथि को भेंट कर देते हैं। इसीलिए आपके स्वागत के लिए मोर नाच रहे हैं, हरिणियां प्रेम से देख रही हैं और कोकिला कुहु-कुहु की मधुर आवाज से आपका स्वागत कर रहीं हैं। ये भंवरे भी गुंजार करते हुए आपके पावन यश का गान कर रहे हैं। धन्य है वृन्दावन की धरती, धन्य है वृन्दावन की द्रुमलता, नदी, पर्वत, खग-मृग।

दिन ढलने पर गाय व बछड़ों को एकत्र कर सब व्रज लौटे। उस समय श्रीकृष्ण की घुंघराली अलकों पर गौओं के खुरों से उड़-उड़कर धूलि पड़ी हुई थी, वे मधुर-मधुर मुरली बजा रहे थे और ग्वालबाल उनकी कीर्ति का गान करते हुए उनके पीछे-पीछे चल रहे थे। मुरली की ध्वनि सुनकर गोपियाँ व्रज से बाहर आईं। गोपियों ने अपने नेत्ररूप भ्रमरों से श्रीकृष्ण के मुखारविन्द का मकरन्द-रसपान करके दिन भर के विरह की जलन शान्त की। (अनेक जन्मों की साधना के पश्चात् साधक के हृदय में कृष्ण-तत्त्व पर पड़ा माया का पर्दा जब हट जाता है, तभी वह यह समझ सकता है कि गौओं को चराकर वन से जब श्रीकृष्ण लौटते हैं, उस समय गोपियां गोरज से रंगे कृष्ण के मुख को देखकर किस सुख का अनुभव करती हैं।)

श्रीकृष्ण आज पहली बार गोप-बालकों के संग गोचारण को गए थे। वहां से वापस आने पर नन्दबाबा और यशोदामाता उन्हें दौड़कर अपने अंक में भर लेते हैं। माता अपने पुत्र के चन्द्रमुख की बलैयां लेती हैं। कृष्ण अपनी मां को वन में गौ चराते वक्त भी नहीं भूले, सो मां के लिए कुछ जंगली फल लेकर आए हैं। माता उन्हें पाकर निहाल हैं। वे कहती हैं कि उसे कुछ नहीं चाहिए, वह तो सिर्फ कृष्ण को पाकर ही परम सुखी हैं।

जसुमति दौरि लिए हरि कनियाँ।
आजु गयौ मेरौ गाइ चरावन, हौं बलि जाउँ निछनियाँ।।
मो कारन कछु आन्यौ है बलि, बन-फल तोरि नन्हैया।
तुमहिं मिलैं मैं अति सुख पायौ, मेरे कुँवर कन्हैया।।

स्वयं परमब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्ण ने गोचारण करके गायों के प्रति अपनी निष्ठा व प्रेम दर्शाया है और गोसेवा के महत्व का प्रतिपादन कर अपने ‘गोपाल’ नाम को सार्थक किया–’गावो मे हृदये सन्तु गवां मध्ये वसाम्यहम्।’

परमात्मा ने मानव को बुद्धि व आत्मिक गुणों से सम्पन्नकर धरती पर इसलिए भेजा है कि वह उसकी सृष्टि को और अधिक  सौन्दर्य प्रदान करके उसकी कल्पना को साकार करेगा। परन्तु ये कैसी बिडम्बना है कि मनुष्य अपनी हठ-बुद्धि के कारण न केवल परमात्मा की रचना को कुरुप बना रहा है वरन् अपने को अमानवीय घोषित कर ’मानव-मात्र की धाय–गाय’ को भी आदर देने में कमी कर दी है।

महर्षि वशिष्ठ के शब्दों में–‘नदियां जिस प्रकार समुद्र में जा मिलती हैं, उसी प्रकार सुनहरी श्रृंगोंवाली (सींगों वाली) और दूध देने वाली गौएं मुझे प्राप्त हों। ऐसा हो कि मैं नित्य गौओं को देखूं और गौएं मेरी ओर देखें। कारण, गौएं हमारी हैं और हम गौओं के हैं। गौएं हैं इसीसे हमलोग भी हैं।’

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