भगवान श्रीकृष्ण जीव को संसार रूपी रंगमंच पर कठपुतली बनाकर नचाते हैं। माया तो उनके इशारों पर नाचती है। पर वे स्वयं भी कभी-कभी अपने मन से नाच लेते हैं–’नाचहिं निज प्रतिबिम्ब निहारी’।  यशोदामाता दही बिलो रही हैं। उससे रई की घुमड़-घुमड़ ध्वनि हो रही है। कन्हैया अपनी किंकणी और नूपुरों की ध्वनि करते हुए उसी रई की ध्वनि के साथ नाचते हैं–

त्यौं त्यौं मोहन नाचै ज्यौं ज्यौं रई-घमर कौ होइ री।
तैसियै किंकनि-धुनि पग-नुपुर, सहज मिले सुर दोइ री।।

एक दिन व्रजसुन्दरी गोपियां नंदभवन के प्राँगण में श्रीकृष्ण से नाचने की मनुहार कर रही थीं–’व्रजेशदुलारे ! अपनी बाल्यचेष्टा से विमोहित करने वाले ! हम सब तेरी बलिहार जायँ। तू नाच दे ! नाच दे ! बलराम अनुज ! यह ले–’थेई थेई तत्त थेई।’ (श्रीगोपालचम्पू:)

इस प्रकार गोपियां जब ताल देने लगीं तो श्रीकृष्ण नाचने लगे। यशोदामाता तुलसी पूजा कर रहीं थीं तब उन्होंने दूर से अपने नीलमणि कन्हैया को आँगन में नृत्य करते देखा–

हरि अपनैं आँगन कछु गावत।
तनक-तनक चरननि सौं नाचत, मनहिं मनहिं रिझावत।।

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दूर देखति जसुमति यह लीला, हरष अनंद बढ़ावत।
सूर स्याम के बाल-चरित, नित नितही देखत भावत।।

यशोदामाता तुलसी पूजा तो भूल गयीं। अर्घ्यपात्र हाथ में ही रह गया और वे निर्निमेष नयनों से कन्हैया का गायन और रुनझुन-रुनझुन नृत्य देखकर कुछ देर के लिए अपने-आप को ही भूल गयीं। नंदबाबा को जब यह पता चला तो उन्होंने भी पुत्र का मनोहर नृत्य देखना चाहा पर नंदबाबा के सामने कन्हैया सकुचाने लगे। तब नंदरानी यशोदा ने उन्हें गोद में उठा लिया और बार-बार कन्हैया के कपोलों को चूमकर वात्सल्य की वर्षा करने लगीं। इस रसधारा में कन्हैया का संकोच बह गया।

बलि-बलि जाउँ मधुर सुर गावहुँ।
अबकी बार मेरे कुँवर कन्हैया, नंदहि नाचि दिखावहुँ।।

बस फिर क्या था? कन्हैया रुनझुन-रुनझुन नुपुर की ताल पर ताली बजाते हुए नाचने लगे। उनके साथ नंदबाबा का मन भी नाचने लगा। अब तो व्रज में इस बात की लहर-सी दौड़ गयी। गोपियों के दल-के-दल कन्हैया का नृत्य देखने के लिए नन्दभवन के आँगन में प्रतिदिन एकत्र हो जाते और उस अनुपम लीलारस का पान करके गोपियां बलिहार जातीं। सबका अलग-अलग हृदय था, सबकी अपनी-अपनी भावनाएं थीं, सभी अपनी भावना के अनुरूप लीला का रस लेती थीं। कन्हैया भी मुक्तहस्त से अपने नृत्य-रस का वितरण करने लगे; साथ ही अपनी तोतली बोली और अन्य बालसुलभ भावभंगिमाओं से, क्रीड़ाओं से व्रजवासियों को मोहित करने लगे। जिस रस की एक बूँद का पान कभी लक्ष्मीजी भी न कर सकीं; उसी रस को गोपियाँ अँजलि भर-भर कर पी रही थीं। अत्यन्त रूपवती किन्नरियां जिन्हें कभी देख न पायीं, अपने संगीत से सबको मोहित कर देने वाली गंधर्वबालाएं जिन्हें मोहित न कर सकीं, पाताल के दुर्लभ वैभव की अधिकारिणी नागपत्नियाँ जिनका सार न जान पायीं; उन्हीं श्रीकृष्ण को गोबर पाथने वाली गोपियाँ कपि की भांति नाच नचा रही थीं और कन्हैया गोपियों के भावों का अनुसरण करते हुए न केवल नाच रहे थे बल्कि प्रत्येक गोपी का मनोरथ पूर्ण कर रहे थे।

किंनरी बहुर अरू बहुर गंधरबनी पंनगनी चितवन नहिं माँझ पावैं।
देत करताल वे लाल गोपाल सौं, पकर ब्रजलाल कपि ज्यौं नचावैं।।

सच्चिदानंद परमब्रह्म भगवान श्रीकृष्ण अपने भक्तों को, अपने प्रियजनों को सुख पहुंचाने के लिए ही इस पृथ्वी पर अवतरित हुए हैं। वे अपनी बाललीला से सब व्रजवासियों को सदा आनन्द देने में ही लगे रहते हैं। यशोदामाता कहतीं–’लाला ! बाबा के खड़ाऊँ तो उठा ला।’ जिनकी पदरज के लिए सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी भी तरसते रहते हैं, वे ही बड़े उत्साह से नंदबाबा के खड़ाऊँ सिर पर उठाकर ले आते हैं। कभी किसी गोपी को मथानी देते हैं, कभी दोहनी, कभी रस्सी। जो सचराचर का सेव्य है, वह व्रज में प्रेम-परवश प्रत्येक व्रजवासी का सेवक बन गया है।

 

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एक गोपी कहती–मेरे लाल ! वह पीढ़ा ले आओ, तो ले आते हैं। वह बांट ले आओ, तो ले आते हैं। कभी-कभी बांट नहीं उठता तो दोनों हाथ लगाते हैं, लेट जाते है और छाती से लगाकर उठाने की कोशिश करते है। जब नहीं उठता तो मैया की ओर देखते हैं। मुँह लाल हो जाता है। दूसरी गोपी पूछती–’नीलमणि ! सोहनी (झाड़ू) किसे कहते हैं? तू जानता है? उसे तू मेरे हाथ में दे तो जानूं।’  नंदनन्दन चौखट की आड़ में पड़ी झाड़ू की ओर मुस्कराते हुए देखते और गोपी के हाथ में लाकर रख देते। तीसरी गोपी कहती–’श्यामसुन्दर ! सीढ़ी पर चढ़ तो भला।’ श्रीकृष्ण तुरन्त नंदभवन की पद्मराग जड़ित सीढ़ियों पर चढ़ने लगते और गोपी आनन्दाश्रुओं को पौंछती हुयी तुरन्त उन्हें पकड़कर आँगन में ले आती। चौथी गोपी कहती–’कन्हैया ! देख, मयूर कितना सुन्दर नृत्य कर रहा है, तू भी उसकी तरह नाच।’  कन्हैया गोपी के मनोरथ को पूरा करने के लिए दोनों भुजाओं को पीठ की ओर ले जाकर फैला देते, कमर झुका कर, गर्दन को उठाकर मयूर की भांति रुनझुन-रुनझुन करते गोपियों की परिक्रमा करने लगते। एक अन्य गोपी कन्हैया को भौंरों की आवाज निकालने को कहती तो कन्हैया उड़ते हुए भ्रमरों को देखते फिर उन्हीं की नकल करते हुए गूँ ऊँ ऊँ ऊँ करने लगते। इस प्रकार नंदभवन का आँगन गोपियों के अट्टहास से गूँजता रहता। प्रत्येक गोपी यशोदाजी के नीलमणि को अपने वक्ष:स्थल से लगाना चाहती है।

कोऊ कहै ललन पकराव मोहि पाँवरी, कोऊ कहै लाल बल लाऔ पीढ़ी।
कोऊ कहै ललन गहाव मोहि सोहनी, कोऊ कहै लाल चढ़ जाउ सीढ़ी।।

कोऊ कहै ललन देखौ मोर कैसैं नचैं, कोऊ कहै भ्रमर कैसैं गुँजारैं।
कोऊ कहै पौर लगि दौर आऔ लाल, रीझ मोतीन के हार बारैं।।

जो कछु कहैं ब्रजवधू सोइ सोइ करत, तोतरे बैन बोलन सुहावैं।
रोय परत वस्तु जब भारी न उठै तवै, चूम मुख जननी उर सौं लगावैं।। (सूरदास)

इस प्रकार गोपियां जो-जो आदेश करतीं, वही-वही कन्हैया करते; करने के पश्चात् तोतली बोली में पूछते–’अरी ! मैं चतुर हूँ ना।’ गोपियाँ भी उत्तर देने के बदले उन्हें अपने भुजपाश में बाँध लेतीं। उनके आनन्द का पार नहीं रहता। वे अपने समस्त घर के कार्यों को छोड़कर रात-दिन छाया की तरह श्रीकृष्ण-बलराम की बाललीलाओं में मग्न रहतीं। कभी गोपियाँ कन्हैया से कहतीं–’कन्हैया ! तेरी तुलना में बलराम में अधिक बल है।’ बलराम भी कन्हैया को देखकर हँसने लगते। तब गोपियाँ पुचकारकर दोनों को पास खड़ा कर देतीं और स्वयं दो मण्डलों में विभक्त हो जातीं। श्रीबलदाऊ और श्रीकृष्ण नन्हीं-सी भुजा फैलाकर लिपट पड़ते। कभी श्रीकृष्ण ऊपर तो बलराम नीचे और कभी बलराम ऊपर तो श्रीकृष्ण नीचे। इस प्रकार दोनों एक अत्यन्त मनोहारी मल्ल-युद्ध की रचना करते और अपनी इस बालक्रीड़ा से गोपियों को हँसा-हँसाकर लोटपोट कर देते। दोनों भाइयों की शोभा ऐसी अद्भुत है मानो दो कमल–एक पुण्डरीक (उज्जवल कमल) और दूसरा नीलोत्पल (नीलकमल) हो। इतने सुन्दर, सुकुमार और स्वच्छ मानो स्फटिकमणि और महामरकतमणि हों। श्रीकृष्ण का नृत्य देखना,  गाना सुनना और बालक्रीड़ाओं पर मुग्ध होना ही गोपियों की दिनचर्या बन गयी है।

जल-थल-नभ-कानन-घर-भीतर, जहँ लौं दृष्टि पसारौ री।
तितही तित मेरे नैननि आगैं निरतत नंद-दुलारौ री।।

इस प्रकार कन्हैया व्रजवासियों को अपनी लीला दिखाकर आनन्दित करते हैं और उधर आकाश में देव व ऋषिगण खड़े होकर आश्चर्य से उनकी लीलाएं देखते हैं। जो उनको पहचानते नहीं, उनको लगता है कि श्रीकृष्ण कोई साधारण बालक हैं। परन्तु ब्रह्मा, शिव, नारद, सनक-सनन्दन आदि जब उन्हें देखते हैं तो उनकी आँखों से प्रेमाश्रु बहने लगते हैं। प्रेम से उनका हृदय द्रवित और कण्ठ गद्गद हो जाता है। वे यह सोचकर चकित होते हैं कि अखिल ब्रह्माण्डनायक श्रीकृष्ण भक्तों के इतने अाधीन हैं कि उनके नचाये नाच रहे हैं; फिर भी व्रजवनिताओं (गोपियों) की आँखें तृप्त नहीं होती हैं। उनकी और भी अधिक मधुरातिमधुर लीला देखने की चाह बढ़ती ही जाती।

गोवत्स (बछड़ों) संग श्रीकृष्ण और बलदाऊ की बाललीला

ब्रह्ममयी व्रजभूमि में भगवान श्रीकृष्ण की लीलाएं सदा होती रहती हैं। श्रीकृष्ण की प्रिय वस्तु जिनके साथ वे क्रीड़ा करते हैं, मुख्यत: तीन हैं–गौएं, गोपियाँ और ग्वालबाल। व्रज में भगवान श्रीकृष्ण अपने साथी ग्वालबालों के साथ गोसेवा कर गोपियों को आनन्दित करते रहते हैं। गायें श्रीकृष्ण की प्रिय निधि हैं। गोसेवा की प्रमुखता के कारण ही उनका लोक ‘गोलोक’ कहलाता है। भगवान श्रीकृष्ण स्वयं अपने को गोरूप में परिणत कर अपनी ही सेवा अपने गोरूप में करते हैं।

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बछरा की लै पूँछ कर पकरि भजावत ताहि।
पाछे-पाछे सखन-संग ताके भाजत जाहिं।।

नित नूतन क्रीड़ा करत बालक श्रीब्रजचंद।
देत-लेत आनंद नित संचित-आनंद-कंद।। (पद-रत्नाकर)

एक बार नंदबाबा गौशाला में बछड़ों की सम्हाल कर रहे थे और नंदरानी यशोदा रसोई में भोजन बनाने में व्यस्त थीं। श्रीकृष्ण और बलराम दोनों आँगन में खेल रहे थे। जब उन्होंने देखा कि इधर-उधर कोई नहीं है, तो तुरन्त नंदभवन के मुख्यद्वार से निकलकर बाहर आ गये। आम के वृक्ष की शीतल छाया में कुछ गोवत्स विश्राम कर रहे थे, दोनों भाई वहां जा पहुंचे। बछड़ों की कोमल पूंछ देखकर वे कुछ सोचने लगे क्योंकि आज उन्हें अपनी मधुर बाललीला से सारे व्रज को वात्सल्य-रस के सागर में डुबोना था।  दोनों भाइयों ने अपने-अपने नेत्रकमलों को इस तरह नचाया मानो आपस में कुछ परामर्श सा किया हो। फिर एक ही साथ दोनों ने एक-एक बछड़े की पूंछ को दोनों हाथों से मुट्ठी बाँधकर पकड़ लिया। अचानक पूँछ खिंच जाने से बछड़े उठ खड़े हुए और भागने लगे। दोनों भाई बछड़े से खिंचे जाने से भयभीत हो उठे। अनन्त ज्ञान के भण्डार श्रीकृष्ण-बलराम लीला करते समय यह भूल गये कि यदि वे पूंछ छोड़ दें तो बछड़ों से सम्बन्ध छूट जायेगा। बल्कि उन्होंने तो अपनी रक्षा के लिए पूँछ को और जोर से पकड़ लिया और माँ-माँ, बाबा-बाबा पुकारने लगे। श्रीकृष्ण-बलराम की करुणामिश्रित पुकार सुनकर समस्त व्रजसुन्दरियां, जिस अवस्था में थी, श्रीकृष्ण-बलराम को देखने के लिए दौड़ पड़ीं। उसी समय एक गोपी ने शीघ्रता से बछड़े के आगे आकर उसे थाम लिया। उसी समय नंदबाबा और यशोदामाता भी आ गये और कहने लगे–बेटा कन्हैया ! बलदाऊ ! पूंछ छोड़ दो, पूंछ छोड़ दो। और दोनों ने हाथ से पकड़कर पूंछ छुड़ा दी और माता दोनों भाइयों को गोद में लेकर चूमने लगीं।

कन्हैया की इस अद्भुत लीला को देखकर गोपियां हँसते-हँसते लोट-पोट हो गयीं। एक गोपी बोली–’कन्हैया ! दाऊ ! तुम दोनों भला इस बछड़े से भी दुर्बल हो! अरे, पूँछ पकड़कर बछड़े को रोक लेते या पूँछ पकड़े-पकड़े ही सारे व्रज में घूम आते। हम लोग अपने-अपने घर से ही तुम्हें देखकर निहाल हो जातीं, बछड़े भी निहाल होते।’ यह कहते-कहते गोपी की आंखों से प्रेम के आंसू निकलने लगे।

श्रीकृष्ण और बलराम गोकुल में ऐसी बाललीलाएं करते कि गोपियां अपने घर का काम-धंधा छोड़कर यही सब देखती रहतीं। वे अपने समस्त कर्म, समस्त उपासनाएं भूल गयीं। उनके लिए तो अब सम्पूर्ण उपासनाओं का सारसर्वस्व एक यशोदानन्दन ही बन गये हैं। दिन का अधिकांश भाग वे नन्दद्वार के समीप खड़ी रहकर बिता देतीं। घर लौटतीं तो मन तो नंदनन्दन के पास ही रह जाता। दूध दुहने बैठतीं तो आँखों के सामने गायों के थन की जगह कन्हैया ही दीखते; धान कूटतीं तो ऊखल में, मूसल में यहां तक कि धान के कणों में भी नंदनन्दन ही दिखते; दही बिलोतीं तो दिखता कि मनमोहन मथानी पकड़े खड़े हैं, घर लीपतीं तो उन्हें सब जगह कन्हैया ही नाचते-थिरकते हुए दिखते, वस्त्र धोने बैठतीं तो जल में, जलपात्र में यहां तक कि वस्रों में भी उन्हें श्यामसुन्दर का चेहरा ही दिखता, झाड़ू देने जातीं तो लगता गौशाला में बैठी हूँ और गोरज में लिपटे श्यामसुन्दर सामने खेल रहे हैं;  बस झाड़ू हाथ में ही रह जाती। इस प्रकार गोपियां अधिकांश समय भावसमाधि में ही लीन रहतीं।

श्रीकृष्ण की अत्यन्त भावप्रद लीला

एक बार कार्तिक मास में यशोदामाता दीपदान करने के लिए यमुनातट पर जा रही थीं। पूजा का थाल लिए वे डरती-डरती नंदभवन से निकलीं कि कहीं नटखट कान्हा की दृष्टि उन पर न पड़ जाये अन्यथा वह भी साथ चलने की हठ करने लगेगा। माता को सज-धजकर जाता देखकर कन्हैया ने पीछे से आकर मां की साड़ी पकड़ ली और चुपके से साथ चल दिए। मां ने जैसे ही देखा कि कन्हैया भी साथ आ रहा है तो उन्होंने समझाने की बहुत कोशिश की पर वह असफल रहीं।

यमुनातट पर पहुँचकर यशोदामाता दीपदान में लग लगीं। दीपदान करने के बाद जब उनको कन्हैया का ध्यान आया तो उन्होंने देखा कि कन्हैया घुटने-भर जल में प्रवेश करके बहते हुए जलते हुए दीपकों को किनारे पर लाकर घाट की सीढ़ियों पर रख चुका है और आगे वाले दीपकों को लाने के लिए कमर तक पानी में प्रवेश कर रहा है। माता के वात्सल्यपूर्ण हृदय में भय हुआ कि मेरा नन्हा-सा कान्हा कहीं गहरे पानी में जाकर डूबने न लग जाय। माता को क्या पता कि यह डूबने वाला नहीं, अपितु डूबने वालों को किनारे लगाने वाला है।

मैया ने कहा–’कन्हैया, मैं इसीलिए तुम्हें यहां लाना नहीं चाह रही थी। यह तू क्या कर रहा है?’ कन्हैया ने उत्तर दिया–’यही तो मेरा काम है। मैं इसी काम के लिए पृथ्वी पर आया हूँ।’ मैया ने कहा–’कन्हैया, मैं तेरी यह गोल-गोल बातें नहीं समझ पा रही। साफ-साफ बता, यह क्या कर रहा है?’

बहे जाहिं जे बीच धार में, लाऊँ तिन्हें किनारे।
यह मेरो कौतुक, ये मेरे खेल-खिलौने प्यारे।।

यशोदामाता की दृष्टि में यमुनाजी में बहते हुए जलते हए दीपक मात्र दीपक हैं किन्तु कन्हैया की दृष्टि में अपार भवसागर की धारा में बहती हुई असंख्य जीवन-ज्योतियां हैं। कन्हैया का तात्पर्य है कि भवसागर में बहते हुए जीवों को पार लगाने के लिए ही मैं पृथ्वी पर आया हूँ और वही कार्य मैं कर रहा हूँ। जो बहे जा रहे हैं उन्हें किनारे लगा रहा हूँ। मैया ने कहा–’बेटा, बहने वाले तो असंख्य हैं, तू कितनों को किनारे लगाने की जिम्मेदारी निभायेगा?’ कन्हैया ने कहा–’मैया, मैं सबको पार नहीं लगाता। मैं तो केवल उनको पार लगाता हूँ जो बहते-बहते मेरे सम्मुख आ जाते हैं।’

श्रीकृष्ण की यह बाललीला पढ़ने-सुनने में तो बहुत छोटी लगती है पर इसका भाव बहुत गम्भीर है।

नन्हे श्याम की नन्ही लीला, भाव बड़ा गम्भीर रसीला

भगवान श्रीकृष्ण की माखन के लोंदे के लिए गोपी के गोमय (गोबर) के टोकरे उठाने की अद्भुत लीला

कृष्णावतार आनंद अवतार है। भगवान श्रीकृष्ण व्रज के सुख की टोकरी सिर पर लेकर ढोते हैं और व्रज की गलियों में कहते फिरते हैं–आनंद लो आनंद।

एक दिन नंद के दुलारे श्रीकृष्ण प्रात:काल जल्दी उठकर अपनी बालसुलभ क्रीड़ाओं से यशोदामाता को बहुत खिझाने लगे। यशोदामाता ने कई बार समझाया–कन्हैया उत्पात मत कर। आज मुझे बहुत काम है पर कन्हैया ने एक नहीं सुनी। खीजकर मैया ने उन्हें घर से बाहर सखाओं के साथ जाकर खेलने को कह दिया। श्रीकृष्ण तो मानो इसी ताक में थे। आज उन्हें अपनी बाललीला में कुछ नवीन रंग भरने थे। वात्सल्य-प्रेम में आकण्ठ डूबी हुई किसी गोपी को अपनी बाललीला के द्वारा कृतार्थ करना था। इसलिए वे मैया से डरने का बहाना करके यमुनातट की ओर भाग चले।

छोटे से कृष्ण हैं, पीली धोती धारण किये, उसके ऊपर लाल-हरा कछोटा बांधे, कन्धे तक घुँघराले केश मुख पर लहराते हुए, मस्तक पर गोरोचन का तिलक लगाये, कमनीय कण्ठ में कठुला पहने, हृदय पर बघनखा आदि टोना-निवारक वस्तुओं से निर्मित माला पहने, पांव में नुपुर पहने हुए हैं। इधर-उधर घूमने के बाद उन्हें भूख सताने लगी तो वह एक गोपी के पास जाकर खड़े हो गये। गोपी उनकी वेशभूषा, मन्द-मन्द कटीली मुस्कान, प्रेम भरी चितवन, भौंहों की मटकन आदि को देखकर मन-ही-मन उन पर रीझ गयी और कन्हैया से बोली–क्या चाहिए? कन्हैया गोपी से थोड़ा माखन-छाछ देने का अनुरोध करने लगे।

तनक लाय नवनीत प्रीति सौं, दै री ! दया दिखाय।
नाँहि नैक दही ही अपनौ, कै कछु मही मँगाय।।

देखि स्याम की जुगुति ‘विनय’ सुनि, गोपी मन मुसक्याँनी।
‘मिलत न कछु बिनु मोल लाल ! कहुँ-कहि बिनु मोल बिकानी।। (श्रीविंध्येश्वरीप्रसादजी मिश्र)

परन्तु गोपी ने कन्हैया से कहा–’बिना मूल्य दिये कहीं भी कुछ नहीं मिलता।’  गोपी के इस स्वार्थभरे उत्तर को सुनकर कन्हैया ने कहा–

मोल माखन कौ माँगत हाय।
मैं बालक कछु पास न मेरे, देउँ कहाँ तैं लाय।।

पर गोपी को कन्हैया पर जरा भी दया नहीं आयी और उसने कहा–कन्हैया ! कोई बात नहीं है। तू यदि मेरे माखन का मूल्य नहीं दे सकता तो न सही, तू मेरा कुछ काम कर दे। माखन बनाने के लिए कितना परिश्रम करना पड़ता है? देख कन्हैया ! ब्राह्ममुहुर्त में जगकर हम दधिमंथन करती हैं, दिन-रात गौओं की सेवा करती हैं–गौओं को चारा आदि देना, उन्हें स्नान कराना, गोष्ठ की झाड़ू-बुहारी लगाना, गोबर (गोमय) को खाँच (टोकरी) में भर-भर कर पुष्पवाटिका में डालना, यमुनाजी से जल भरकर लाना और ऊपर से घर के सारे काम भी हम ही करते हैं। हम सभी गोपियां तेरी मैया के समान ‘व्रजरानी’ तो हैं नहीं कि हमारे  सब काम दास-दासियां कर दें। अत: कन्हैया ! तू यदि सचमुच मेरा ताजा माखन अरोगना चाहता है तो गोष्ठ में चलकर मेरा थोड़ा-सा काम कर दे। काम यह है कि मैं गोष्ठ की सफाई करके जब गोबर की टोकरियां भर-भर कर उन्हें बाहर ले आऊँ, तब तुम प्रत्येक बार सहारा देकर मेरे सिर पर खाँच रखवाते जाना। इसके बदले में मैं तुम्हें उतने ही माखन के लौंदे (गोले) दूँगी जितनी बार तुम टोकरी उठवाओगे।

जितिक बार तुम खाँच उठावहु, करि श्रमु नंद दुलारे।
उतने ही नवनीत पिंड, गनि राखहुँ हाथ तिहारे।।

कन्हैया ने गोपी की बात मान ली। पर कितनी टोकरी उठाई हैं–इस संख्या का पता कैसे चले क्योंकि दोनों को ही गिनती नहीं आती है। गोपी बहुत चालाक है, उसने कन्हैया को एक उपाय सुझाया–

‘तू जितनी बार मेरे सिर पर गोमय (गोबर) की टोकरी रखवाने में सहायता करेगा, मैं उतनी बार तेरे कपोलों पर गोबर की रेखाएं बनाती जाऊँगी। काम खत्म हो जाने पर हम किसी पढ़े-लिखे सयाने व्यक्ति से वे रेखाएं गिनवा लेंगे और उतने ही माखन के लोंदे मैं तुझे दे दूंगी। बोलो, स्वीकार है यह प्रस्ताव।’

कन्हैया क्या करते? जो गोपी अनेक जन्मों से अपने हृदय के जिन भावों को श्रीकृष्ण को अर्पण करने की प्रतीक्षा कर रही है, उसकी उपेक्षा वह कैसे करें? इन्हीं गोपियों की अभिलाषाओं को पूरा करने के लिए ही तो निर्गुण-निराकार परम-ब्रह्म ने सगुण-साकार लीलापुरुषोत्तमरूप धारण किया है। दिन भर के भूखे-प्यासे श्यामसुन्दर गोपी के साथ उसकी गौशाला में जाकर गोमय की टोकरियां उठवाने लगे। एक हाथ से अपनी खिसकती हुई काछनी को सम्हालते और दूसरे हाथ से गोमय की खाँच गोपी के सिर पर रखवाते। ऐसा करते हुए कन्हैया का कमल के समान कोमल मुख लाल हो गया।  चार-पांच टोकरियां उठवाने के बाद कन्हैया बोले–गोपी, तेरा कोई भरोसा नहीं है। तू बाद में धोखा दे सकती है, इसलिए गिनती करती जा। और उस निष्ठुर गोपी ने कन्हैया के लाल-लाल मुख पर गोमय की हरी-पीली आड़ी रेखाएं बना दीं। अब तो गोपी अपनी सुध-बुध भूल गयी और कन्हैया के सारे मुख-मण्डल पर गोमय के प्रेम-भरे चित्र अंकित हो गये–’गोमय-मण्डित-भाल-कपोलम्।’

बिबस लोभ-माखन-चाखन के, हरि तँह खाँच उठाई।
गुलचा खाय लाल-गालनि पै, गोमय-लिपि लिखवाई।।

जब गोपी को होश आया तब वह बोली कि मुझे इतना गोबर तो चाहिए नहीं था, मैं क्यों इतनी टोकरियां भर-भर कर ले गयी।? कन्हैया ने कहा–बहाना मत बना, गिनती के अनुसार गिन-गिन कर माखन के लोंदे ला। गोपी बोली–कन्हैया, ऐसे माखन नहीं मिलता। कन्हैया ने पूछा–फिर कैसे मिलेगा? गोपी ने कहा–पहले नाचो तब मिलेगा।

अब कन्हैया एक हाथ अपनी कमर पर और दूसरा हाथ अपने सिर पर रखकर ‘ता-ता थेई, ता-ता थेई’ नाच रहे हैं। ब्राह्मणों द्वारा किये गये यज्ञ-आवाहन आदि कर्मकाण्ड भी जिन्हें अपनी ओर आकर्षित नहीं कर पाते वही प्रेमरससिन्धु भगवान श्रीकृष्ण व्रज में तनिक से माखन के लिए कभी नृत्य करते हैं तो कभी याचक बनने में भी संकोच नहीं करते हैं। व्रजमण्डल के आकाश में स्थित देवतागण गोपी और श्रीकृष्ण की इस झांकी को देखकर पुष्पवर्षा करते हैं।

ब्रज में नाचत आज कन्हैया मैया तनक दही के कारण।
तनक दही के कारण कान्हां नाचत नाच हजारन।।

नन्दराय की गौशाला में बंधी हैं गैया लाखन।
तुम्हें पराई मटुकी को ही लागत है प्रिय माखन।।

गोपी टेरत कृष्ण ललाकूँ इतै आओ मेरे लालन।
तनक नाच दे लाला मेरे, मैं तोय दऊँगी माखन।। (रसिया)

प्रेम की झिड़कियाँ भी मीठी होती हैं–मार भी मीठी लगती है। शेष, महेश, गणेश, सुरेश इस मजे को क्या जानें–सुस्वादु रस का यह जायका उनके भाग्य में कहाँ? वे जिस परब्रह्म की अपार महिमा का पार पाने के लिए दिन-रात नाक रगड़ते रहते हैं, वही सलोना श्यामसुन्दर व्रजमण्डल के प्रेमसाम्राज्य में छाछ की ओट से इसी रस के पीछे अहीर की छोकरियों (गोपियों) के इशारों पर तरह-तरह के नाच नाचता-फिरता है–

सेस, महेस, गनेस, दिनेस,
सुरेसहु जाहि निरन्तर गावैं।
जाहि अनादि, अनन्त, अखण्ड,
अछेद, अभेद, सुबेद बतावैं।।

नारद-से सुक व्यास रटैं,
पचिहारे, तऊ पुनि पार न पावैं।
ताहि अहीरकी छोहरियाँ,
छछियाभरि छाछपै नाच नचावैं।। (रसखानि)

श्रीमद्भागवत में कहा गया है–’प्यारे कृष्ण ! आपकी एक-एक लीला मनुष्यों के लिए परम मंगलमयी और कानों के लिए अमृतस्वरूप हैं। जिसे एक बार उस रस का चस्का लग जाता है, उसके मन में फिर किसी दूसरी वस्तु के लिए लालसा ही नहीं रह जाती।’

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