ईश्वर: परम: कृष्ण: सच्चिदानन्दविग्रह:।
अनादिरादिर्गोविन्द: सर्वकारणकारणम्।। (ब्रह्मसंहिता)

श्रीकृष्ण षडैश्वर्यपूर्ण परमात्मा हैं। अनन्त ऐश्वर्य, अनन्त वीर्य, अनन्त यश, अनन्त श्री, अनन्त ज्ञान और अनन्त वैराग्य–ये सभी गुण भगवान श्रीकृष्ण में नित्य वर्तमान हैं।

भगवान श्रीकृष्ण पूर्ण अवतार हैं, और दूसरे जितने अवतार हैं, वे भगवान के अंशमात्र या कलामात्र होते हैं परन्तु भगवान श्रीकृष्ण स्वयं परिपूर्णतम हैं। इसीलिए कहा गया है–’कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्।’ श्रीकृष्ण को पूर्णावतार या ‘स्वयं-भगवान का पूर्ण आविर्भाव’ कहते हैं।

पाण्डवों के राजसूय-यज्ञ में जब भीष्मपितामह ने सबसे पहले भगवान श्रीकृष्ण की पूजा करने का आदेश दिया, तब शिशुपाल चिढ़ गया। उसने भीष्मपितामह को काफी बुरा-भला कहा जिससे युधिष्ठिर कुछ डर से गए। तब भगवान श्रीकृष्ण के सम्बन्ध में भीष्मपितामह ने कहा–

‘श्रीकृष्ण ही समस्त लोकों की उत्पत्ति तथा प्रलय के आधार हैं। यह सम्पूर्ण विश्व और चराचर समस्त प्राणी श्रीकृष्ण की क्रीडा के लिए हैं; वे ही अव्यक्त प्रकृति हैं और वे ही सनातन कर्ता हैं; वे समस्त भूतों से परे एवं अच्युत हैं; अतएव सबके पूज्यतम हैं। बुद्धि, मन, महतत्त्व, वायु, अग्नि, जल, आकाश, पृथ्वी तथा अण्डज, स्वेदज, जरायुज एवं उद्भिज्ज–चारों प्रकार के प्राणी, सब श्रीकृष्ण में ही प्रतिष्ठित हैं; वे ही सबके आधार हैं। सूर्य-चन्द्रमा, ग्रह-नक्षत्र, दिशा-विदिशा–सबके वे ही आधार हैं। जैसे वेदों का मुख अग्निहोत्र, छन्दों का मुख गायत्री, मनुष्यों का मुख राजा, नदियों का मुख समुद्र, नक्षत्रों का मुख चन्द्रमा, ज्योतिष्मान पदार्थों का मुख सूर्य, पर्वतों का सुमेरू और पक्षियों का गरुड़ है, वैसे ही संसार की जितनी भी गतियां हैं, उन सबके केन्द्रस्वरूप भगवान श्रीकृष्ण हैं।’

भगवान एक हैं। वे एक होकर भी अनेकरूपता अपनाते हैं और अपने रूप में ज्यों-के-त्यों रहते हैं। यह उनकी एकता में अनन्तता की स्थिति है–‘एकोऽहं बहु स्याम्’

भगवान श्रीकृष्ण के विभिन्न रूपों का वर्णन

सच्चिदानंद श्रीकृष्ण–सत्, चित् और आनंद–ये तीन शब्द हैं। सत् का अर्थ है जो सदा से था, सदा है और सदा ही रहेगा। चित् माने चेतनस्वरूप, ज्ञानस्वरूप अर्थात् जो सब कुछ जानता है और आनंद अर्थात् जहां आनंद ही आनंद है, अविनाशी सुख है। ‘कृष्’ शब्द सत्ता का वाचक है और ‘न’ आनंद का। जहां इन दोनों का संयोग होता है, वहीं सच्चिदानंद श्रीकृष्ण विराजमान हो जाते हैं और सम्पूर्ण सत्ता आनंदरस में सराबोर हो जाती है।

परम सुन्दर–भौतिक दृष्टि से श्रीकृष्ण का शरीर सर्वथा परिपूर्ण है। यह कहा जा सकता है कि उतना सुन्दर, उतना बलिष्ठ, उतना सुगठित शरीर सृष्टि के प्रारम्भ से लेकर आज तक न किसी का हुआ और न आगे किसी का होने की सम्भावना है। शरत्पूर्णिमा के निर्मल, शीतल अमृत की वर्षा करने वाले अगणित चन्द्रमा भी जिनकी अंगकान्ति के सामने फीके हो जाते हैं ऐसे नीलमणि आभा के समान श्रीकृष्ण हैं। उनका मोहन रूप ऋषियों के मन को, गुरुजनों के मन को, श्रुतियों के, देवकन्याओं के तथा स्वयं ब्रह्मविद्या के मन को एवं संसार की समस्त नारियों के मन को, शत्रुओं के मन को और स्वयं उनके अपने मन को भी मोहित करने वाला है
श्रीमद्भागवत में कंस की रंगशाला में जाने पर श्रीकृष्ण के शरीर का जो वर्णन हुआ है, वह श्रीकृष्ण के शरीर की पूर्णता का द्योतक है। श्रीकृष्ण पहलवानों को वज्र के समान दिख रहे थे और स्रियों को कामदेव के समान। बड़े-बड़े लोग उन्हें श्रेष्ठ पुरुष की भांति देख रहे थे और माता-पिता की दृष्टि में वे नन्हें से शिशु मालूम पड़ रहे थे। ग्वालों की दृष्टि में वे अपने आत्मीय थे और दुष्टों की दृष्टि में दण्ड देने वाले शासक; कंस उन्हें मृत्यु के रूप में देख रहा था और योगी लोग परम तत्व के रूप में। अज्ञानी लोग उनके विराट शरीर को देखकर भयभीत हो रहे थे और प्रेमी भक्त अपने प्रभु के रूप में देखकर कृतार्थ हो रहे थे। इस प्रकार उनके शरीर की पूर्णता के कारण सब लोग अपने-अपने भावानुसार उनका दर्शन विभिन्न रूप (रौद्र, अद्भुत, श्रृंगार, हास्य, वीर, वात्सल्य, भयानक, वीभत्स, शान्त, प्रेममय) में करते थे।

सोलह कलाओं से पूर्ण श्रीकृष्ण–श्रीकृष्ण का जीवन लौकिक दृष्टि से भी सम्पूर्ण कलाओं से परिपूर्ण है। महाभारत में वर्णन आता है कि जब महाभारत युद्ध के समय अर्जुन के घोड़े घायल हो जाते या थक जाते तब अर्जुन तो शिविर में जाकर विश्राम करने लगते, किन्तु श्रीकृष्ण घोड़ों की मालिश करते और जहां चोट लगी होती, वहां मरहम-पट्टी करते। इससे सिद्ध होता है कि भगवान श्रीकृष्ण आयुर्वेद के महान ज्ञाता थे। वे केवल मनुष्यों की ही नहीं बल्कि पशुओं की भी चिकित्सा में निपुण थे। उनके रथ-संचालन कौशल ने ही अर्जुन की युद्ध में रक्षा की और शल्य जैसे कुशल रथ-संचालक भी उनके सामने नहीं ठहर पाते थे। इन्होंने युद्ध में समय-समय पर पाण्डवों को नीति-शिक्षा देकर महान विपत्तियों से बचाया। श्रीकृष्ण को युद्धकला में भी निपुणता प्राप्त थी। जरासन्ध ने तेईस-तेईस अक्षौहिणी सेना लेकर सत्रह बार मथुरा पर चढ़ाई की, लेकिन मथुरा का एक आदमी भी नहीं मरा और बलराम व श्रीकृष्ण ने उसकी सेना का संहार कर दिया। मल्लविद्या में श्रीकृष्ण इतने निपुण थे कि देखने में नन्हें से होने पर भी मुष्टिक-चाणूर जैसों का कचूमर ही निकाल दिया। श्रीकृष्ण ने इतनी जल्दी द्वारका की रचना करवायी थी कि सब लोग चकित रह गए। श्रीकृष्ण ने धर्मराज युधिष्ठिर का जो सभागार बनवाया था उसमें जल-थल का भ्रम हो जाता था। यह इंगित करता है कि श्रीकृष्ण को शिल्पकला और स्थापत्यकला का कितना ज्ञान था। श्रीकृष्ण का क्रोधित कालिया नाग के भयानक फणों पर नृत्य करना तो नृत्यकला की पराकाष्ठा है जिसमें अद्भुत शरीर साधना, चरण-लाघव व श्रीकृष्ण का विचित्र मनोयोग देखने को मिलता है। गोपियों के साथ रासमण्डल का नृत्य भी अत्यन्त निराला है। श्रीकृष्ण संगीतशास्त्र के महान आचार्य हैं। श्रीकृष्ण का वेणुवादन तो आत्मा का संगीत है। वेणु के सात छिद्रों में से छ: छिद्र तो भगवान के ऐश्वर्य, वीर्य, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य की प्राणवायु से पूरित हैं। सातवां छिद्र स्वयं भगवान के निर्विकार स्वरूप का द्योतक है। श्रीकृष्ण का वाक्-कौशल भी सर्वश्रेष्ठ है। श्रीकृष्ण जब पांडवों की ओर से संधि प्रस्ताव लेकर कौरवों की सभा में गए तो उनको सुनने के लिए दूर-दूर से ऋषि-मुनिगण पधारे।

आदर्श गृहस्थ श्रीकृष्ण–भगवान श्रीकृष्ण ने जब प्राग्ज्यौतिषपुर के भौमासुर को मारकर उसके द्वारा हरण की हुई सोलह हजार राजकुमारियों पर दया करके अकेले ही उनसे विवाह कर लिया और यह बात जब नारदजी ने सुनी, तब उन्हें भगवान की गृहचर्या देखने की बड़ी इच्छा हुई। नारदजी द्वारका आये। द्वारका में श्रीकृष्ण के अन्त:पुर में सोलह हजार से अधिक बड़े सुन्दर महल थे। नारदजी एक महल में गए। वहां भगवान रुक्मिणीजी के समीप बैठे थे और रुक्मिणीजी चंवर से हवा कर रही थीं। नारदजी को देखकर भगवान ने उनकी पूजा की, उनके चरण धोकर चरणामृत सिर चढ़ाया और फिर पूछा–देवर्षि ! मैं आपकी क्या सेवा करूँ। नारदजी ने कहा–’आप ऐसी कृपा कीजिए कि मैं जहां भी रहूँ, आपके चरणों के ध्यान में ही लीन रहूँ।’ इसके बाद नारदजी एक-एक करके सभी महलों में गए। भगवान श्रीकृष्ण ने सभी जगह उनका स्वागत किया। नारदजी ने देखा–कहीं श्रीकृष्ण गृहस्थ के कार्य कर रहे हैं, कहीं हवन कर रहे हैं, कहीं देवाराधन कर रहे हैं, कहीं ब्राह्मणों को भोजन करा रहे हैं, कहीं यज्ञ, कहीं संन्ध्या तो कहीं गायत्री जप कर रहे हैं, कहीं ब्राह्मणों को गौओं का दान कर रहे हैं। कहीं पर देवताओं का पूजन तो कहीं गुरुजनों की सेवा कर रहे हैं। नारदजी ने भगवान से कहा–’भगवन् ! आप सर्वत्र विराजते हैं। यही आपकी लीला विभूति है। आपकी योगमाया ब्रह्म आदि के लिए भी अगम्य है परन्तु आपके चरणों की सेवा करने के कारण हम उसे जान गए हैं। अब आज्ञा दीजिए कि आपकी पावन लीला को मैं त्रिलोकी में गाता हुआ विचरण करता रहूँ।’

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा–’पुत्र नारद ! मेरे आचरण से लोगों को शिक्षा मिलेगी इसलिए मैं स्वयं धर्म का आचरण करता हूँ। तुम मेरी माया से मोहित न होना। मैंने जो तुम्हारे चरण धोये, इससे खेद मत करना। एक साथ मेरे हजारों कार्यों को देखकर तुम भ्रम में मत पड़ना।’ ऐसा धर्ममय था भगवान श्रीकृष्ण का गृहस्थ जीवन।

गोपाल श्रीकृष्ण–गौचारण और गौसेवा तो श्रीकृष्ण की जीवनी शक्ति ही रही है। इसी से इनका नाम ‘गोपाल’ और ‘गोविन्द’ पड़ा। श्रीकृष्ण ने गोपाल नाम को सार्थक बनाकर गौसेवा के महत्व को प्रतिपादित किया है–

गावो मे हृदये सन्तु गवां मध्ये वसाम्यहम्।।
(गाय मेरे हृदय में स्थित रहें और गायों के बीच में ही मैं सदा निवास करूँ।)

श्रीकृष्ण गायों, गोपों व गोचारण से बहुत प्रेम करते हैं। वे छोटी अवस्था से ही गायों की सेवा करने लगे, गायों को वन में चराने ले जाते और सायंकाल उनके नाम पुकार-पुकार कर उन्हें एकत्रकर गोकुल में लाते। उनका बालपन गोवंश का रक्षक है। श्रीकृष्ण ने जब इन्द्र की जगह गोवर्धन की पूजा गोपों से करवायी तो इन्द्र ने प्रलयकालीन मेघों से वर्षा करवायी। श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को छत्र की तरह धारण कर लिया। उस समय ‘कामधेनु’ गाय आयी। उसने श्रीकृष्ण का अपने थनों से निकलने वाली दुग्धधारा से अभिषेक किया और कहा–‘जिस प्रकार देवों के राजा देवेन्द्र हैं, उसी प्रकार आप हमारे राजा ‘गोविन्द’ हैं।’

FullSizeRender (2)
प्रकृतिप्रेमी श्रीकृष्ण–श्रीकृष्ण प्रकृतिप्रेमी के रूप में जाने जाते हैं। उन्होंने स्वर्ग के देवता इन्द्र की अपेक्षा पृथ्वीलोक के वन को, पर्वत को तथा वनवासियों को अधिक महत्व दिया। वह इन्द्र से अधिक आदर गायों का, गाय चराने वालों का व गायों को घास, चारा, पानी देने वालों (गोवर्धन पर्वत) का करते हैं। यश, श्री, वैराग्य एवं ऐश्वर्य के स्वामी श्रीकृष्ण अपने को वनवासी, गिरिवासी बताकर साधारणजनों में अपने को मिला देते हैं। परोक्ष देवता के स्थान पर प्रत्यक्ष देवता की पूजा कराते हैं और स्वयं भी प्रत्यक्ष होकर पूजा को ग्रहण करते हैं। स्वयं पूज्य हैं और स्वयं ही पुजारी। उन्होंने इन्द्र के अहंकार को मिटाकर एकब्रह्मोपासना के सिद्धान्त की संस्थापना की। यही है उनकी गोवर्धन-पूजा का रहस्य। उन्होंने अपने सखाओं को वनों का महत्व बताते हुए कहा–’मेरे प्यारे मित्रो ! देखो ये वृक्ष कितने भाग्यवान हैं। इनका सारा जीवन केवल दूसरों की भलाई करने के लिए ही है। ये स्वयं तो हवा, धूप, वर्षा, पाला–सब कुछ सहते हैं। परन्तु हम लोगों की उनसे रक्षा करते हैं। इनके द्वारा सब प्राणियों का जीवन-निर्वाह होता है। इन्हीं का जीवन श्रेष्ठ है। ये वृक्ष अपने पत्तों से, फूलों से, फलों से, छाया से, मूल से, छाल से, लकड़ी से, गन्ध से, गोंद से, भस्म से और फिर अंकुर से लोगों की सेवा करते हैं। कभी किसी को अपने पास से व्यर्थ नहीं जाने देते हैं।’ जल की शुद्धि के लिए उन्होंने यमुनाजी को विषमुक्त करने के लिए कालियानाग का दमन किया।

सेवाभावी श्रीकृष्ण–भगवान श्रीकृष्ण माता-पिता, गुरुजनों, ब्राह्मणों, मित्रों व गौओं की सेवा में लगे रहते थे। जब खेल में थके बलरामजी किसी गोपबालक की गोद में सिर रखकर लेट जाते तो श्रीकृष्ण उनके पैर दबाकर और उन्हें पंखा झलकर उनकी थकावट दूर करते थे। वे सुदामाजी से कहते हैं–मैं गुरुदेव की सेवा से जितना प्रसन्न होता हूँ, उतना यज्ञ, वेदाध्ययन या तपस्या से नहीं। तभी तो वे वन से लकड़ी चुनकर लाते। इसी प्रकार जब रुक्मिणीजी का संदेश लेकर ब्राह्मणदेवता आए तो श्रीकृष्ण उन्हें देखते ही अपने सिंहासन से नीचे उतर गए और उनका खूब आदर-सत्कार किया। फिर अपने कोमल हाथों से उनके पैर सहलाने लगे। बचपन में गुरु सांदीपनि का आश्रम छोड़कर आने के बीसों वर्ष बाद जब वे द्वारका में विप्र सुदामा से मिलते हैं तो–

‘पानी परात को हाथ छुवो नहिं, नैनन के जल सों पग धोए।’ (नरोत्तमदास)

महाभारत में श्रीकृष्ण–महाभारत में पग-पग पर श्रीकृष्ण की नीतिज्ञता, सर्वशक्तिसम्पन्नता एवं भगवत्ता के दर्शन होते हैं। महाभारत के सभापर्व में श्रीकृष्ण वेदों के पंडित, राजनीति में पारंगत, पराक्रमी एवं अजेय योद्धा के रूप में आते हैं। उद्योगपर्व में उनके शौर्यपूर्ण कार्यों का वर्णन हैं। वे इन्द्र से भी अधिक पराक्रमी हैं। युद्ध में अकेले श्रीकृष्ण को प्राप्तकर अर्जुन को महाभारत के युद्ध में विजय प्राप्त करने का पूर्ण विश्वास है। महाभारत के अनुसार जहां धर्म है, वहां श्रीकृष्ण हैं और जहां श्रीकृष्ण हैं, वहां विजय है–

यतो धर्मस्तत: कृष्ण: यत: कृष्णस्ततो जय:।।

जहां एक ओर अर्जुन की सूर्यास्त से पहले जयद्रथ वध की प्रतिज्ञा पूरी कराने के लिए श्रीकृष्ण ने समय से पहले सूर्य को छिपा दिया–

‘हे पार्थ प्रण पूरा करो, देखो अभी दिन शेष है।’ (मैथिलीशरणगुप्त)

वही दुर्योधन की सभा में तथा महाभारत-युद्ध में उनका विश्वरूप दर्शन उनके ईश्वरत्व को प्रकट करता है। श्रीकृष्ण को धृतराष्ट्र के रूप में दृष्टिहीन, ज्ञानशून्य, अविवेकी व पुत्रमोह में फंसा सम्राट, शिशुहन्ता आचार्यपुत्र अश्वत्थामा व नारी की अवमानना करने वाले युवराज दुर्योधन व दु:शासन स्वीकार नहीं हैं। जिस साम्राज्य के महारथी एक निहत्थे बालक (अभिमन्यु) पर सामूहिकरूप से आक्रमण करते हों, युद्धनीति का उल्लंघन करते हों, ऐसी व्यवस्था का बने रहना उनकी नजर में सम्पूर्ण मानवता का विनाश है, इसीलिए उन्होंने कभी कौरवों का साथ नहीं दिया।

भगवान श्रीकृष्ण में पूर्णता हर तरह से नजर आती है। वह जो भी काम करते हैं, पूर्णतया अनुभवी पुरुष के रूप में करते हैं। कोई भी कला उनसे बची नहीं। आध्यात्मिक दृष्टि से उनका ज्ञान अनन्त है। महाभारत के युद्ध में अर्जुन को दिए गए गीता के उपदेश व उद्धव आदि भक्तों को जो उपदेश दिए हैं वह उनके पूर्ण ज्ञान की सत्ता को प्रकट करते हैं।

योगेश्वर व जगद्गुरु श्रीकृष्ण–श्रीकृष्ण ने कंस के कारागार में जन्म लेने से लेकर प्रभास के महाप्रयाण तक जो कुछ भी किया, सब लोकहित हेतु किया। यही कारण है कि श्रीकृष्ण योगियों के भी योगी अर्थात् योगीराज हैं। गीता में श्रीकृष्ण ने अत्यन्त गुह्य ज्ञान का उपदेश दिया है। गीता में ज्ञान, भक्ति व कर्म का अद्भुत समन्वय है। यह सभी उपनिषदों का सार है। यहां श्रीकृष्ण का परम ज्ञानी व योगेश्वर स्वरूप प्रकट होता है। ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ ऐसा विचित्र ग्रन्थ है जिसने समस्त विश्व को सदा के लिए उनका शिष्य बना दिया। श्रीमद्भगवद्गीता अनन्त अर्थमयी है। जो जिस भाव से उसे देखता है, उसको वही भाव गीता में मिल जाता है तथा गीता से ही उसका कार्य सफल हो जाता है। गीता योगी व गृहस्थ सभी के लिए समान रूप से उपयोगी है।

FullSizeRender

धर्मरक्षक व धर्मसंस्थापक श्रीकृष्ण–श्रीकृष्ण अपने स्वजनों और सम्बन्धियों के हितैषी थे, परन्तु धर्मविरोधी होने पर किसी को भी स्वजन होने के नाते क्षमा नहीं करते थे। कंस मामा थे पर अधार्मिक होने के कारण स्वयं श्रीकृष्ण ने उनका वध किया। शिशुपाल पांडवों के समान श्रीकृष्ण की बुआ का लड़का था, पर पापाचारी था, अतएव उन्होंने उसको दण्ड दिया। द्रौपदी के सोते हुए पुत्रों की हत्या करने वाले द्रोणपुत्र अश्वत्थामा के वध रूप उसकी सिर की मणि का हरण कराने में भी कोई संकोच नहीं किया। श्रीकृष्ण ने विश्वकर्मा को निर्देश देकर न केवल द्वारका का निर्माण कराया, बल्कि मथुरावासियों को यहां लाकर बसाया भी। पर जब उन्होंने देखा कि उनका आश्रित यादव-वंश धन-वैभव के मद में चूर होकर अधार्मिक व उद्दण्ड हुआ जा रहा है और अपने अवांछित कर्मों से पृथ्वी को बोझिल कर रहा है, तब उनमें परस्पर गृहयुद्ध कराकर उनके विनाश की व्यवस्था करा दी। उन्हें धर्म प्रिय है, अधार्मिक स्वजन नहीं।

निष्काम कर्मयोगी श्रीकृष्ण–श्रीकृष्ण के जीवन में कर्म की पूर्णता भी प्रत्यक्षरूप से दृष्टिगोचर होती है। साधुओं का परित्राण, दैत्यों का संहार, धर्म की स्थापना, अधर्मका नाश आदि मनुष्य के हित के लिए जिन भी कार्यों की आवश्यकता थी, वे सब श्रीकृष्ण के जीवन में पूर्णत: पाये जाते हैं। किसी भी अच्छे कार्य को वे सहज ही स्वीकार करते हैं। न उन्हें मान या गौरव का बोध होता है और न ही अपमान या लज्जा का। पाण्डवों के राजसूय-यज्ञ में बड़े-बूढ़े ज्ञानी, ऋषि-मुनियों तथा भीष्म आदि गुरुजनों के सामने वे अपनी अग्रपूजा स्वीकार करते हैं और उसी यज्ञ में अतिथियों के चरण धोने व जूठी पत्तलें उठाने का कार्य भी करते हैं। महाभारत के युद्ध में एक तरफ वे पाण्डवों के युद्धनीति के निर्देशक हैं वहीं वे अर्जुन के रथ पर लगाम-चाबुक लेकर घोड़े हांकते हैं।

असुर संहारक श्रीकृष्ण–भगवान श्रीकृष्ण ने अपने अवतार के छठे दिन से ही अनेक अधर्मी असुरों (पूतना, तृणावर्त, वत्सासुर, बकासुर, धेनुकासुर, अरिष्टासुर, चाणूर, मुष्टिक और कंस आदि) का वध करके धर्म-संस्थापन लीला शुरु कर दी और उनके माता-पिता, और सखा ग्वालबालों को उनके ईश्वरत्व का भान भी नहीं होता है। जिस समय वे नंग-धडंग बालक थे उसी समय उन्होंने पूतना, शकटासुर, तृणावर्त आदि असुरों को अमरधाम पहुँचा दिया। गोकुल-वृन्दावन में ग्यारह वर्ष तक सखाओं के साथ धमाचौकड़ी मचायी, निकुंजवनों में रस की नदियां बहायीं; पर उस समय भी वे असुर-राक्षसों की चटनी बनाने से नहीं चूके। मथुरा में मुष्टिक-चाणूर का चूरन बनाया; कूट-शल-तोशल को तिनके की तरह तोड़ दिया और कुवलयापीड और सहस्त्रों हाथियों का बल रखने वाले मामा कंस का कचूमर बना दिया। पता नहीं, कहां से बल का भंडार उनमें आ गया। पर आश्चर्य नहीं, संसार का सारा बल तो इन्हीं से आता है। इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण ने निरन्तर सनातन मानव धर्म की रक्षा की।

माया के अधीश्वर श्रीकृष्ण–भगवान श्रीकृष्ण सृष्टि के आदिकारण होते हुए भी अशरीरी हैं। शरीर के बिना माया से सब कार्य बना देते हैं। एक बार सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी को भी ऐसा ही अनुभव हुआ। भगवान श्रीकृष्ण गोप बालकों के साथ गाय बछड़ों को चराते थे। ब्रह्माजी ने गोप-बालकों के साथ गाय बछड़ों का अपहरण कर लिया। पर क्या हुआ? भगवान श्रीकृष्ण उन सभी अपहृत बछड़ों, ग्बाल-बालों, उनके छड़ी-छीकों, भोज्य पदार्थों और वस्त्रादि के रूप में प्रकट हो गए। उन सबको अपने नाम मालूम थे। शाम को सब घर लौटे। उतनी ही संख्या, वय (आयु), रूप आदि के गाय-बछड़े, गोप-बालक अपने-अपने घर में रहने लगे। यथावत सब कार्य होते रहे। कहीं कोई गड़बड़ी नहीं। किसी को भी इस लीला-रहस्य का आभास नहीं हुआ। श्रीकृष्ण साक्षात् परमेश्वर हैं। वे स्वयं ब्रह्मा को रचते हैं फिर बछड़ों को रचने में क्या विशेषता है। एक वर्ष बाद जब ब्रह्माजी अपने कार्य के परिणाम को देखने के लिए गोकुल पधारे तो उनके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। यहां वैसे ही गायों और गोपबालकों को देखकर समझ नहीं पाए कि कौन असली है और कौन नकली? क्या करें बेचारे। भगवान की माया को देखकर सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी भी चकित हो गए। इस प्रकार ब्रह्माजी जगत को मोहित करने वाले श्रीकृष्ण को मोह में डालने आए थे और स्वयं ही श्रीकृष्ण की माया से मोहित हो गए।
अलौकिक अद्भुतकर्मा श्रीकृष्ण–श्रीकृष्ण ने अपने जीवन में बड़े-बड़े अद्भुत कार्य किए। ब्रह्माजी का मोह-भंग, दावानलपान, गोवर्धनधारण करना, इन्द्रगर्वहरण करना, वरुणलोक में पूजा स्वीकार करना, गोपों को ब्रह्म तथा परमधाम के दर्शन कराना, रासलीला में दो-दो गोपियों के बीच में अपना एक-एक स्वरूप प्रकट कर देना, मथुरा के मार्ग में अक्रूर को भगवत्दर्शन देना, कुब्जा को सीधी करना, मृत गुरुपुत्र को लाना, मृत देवकी पुत्रों को लाना, द्रौपदी का चीर बढ़ाना, एक पत्ता खाकर दुर्वासा ऋषि और उनके शिष्यों का पेट भर देना, माता, अर्जुन व दुर्योधन को विराट रूप दिखलाना, और विराट रूप में भी भविष्य के चित्र दिखलाना, जयद्रथवध के समय सूर्य को समय से पहले छिपा देना, उत्तरा के गर्भ में परीक्षित की रक्षा करना, नारदजी को प्रत्येक महल में दर्शन देना आदि सभी अद्भुत कर्म हैं।

जो जैसा सम्बन्ध जोड़कर उनके पास आता है, उससे उसी सम्बन्ध को वे स्वीकार कर लेते हैं। इसीलिए वे वसुदेव-देवकी और नन्द-यशोदा को सुख देने वाले पुत्र हैं; गोपबालकों व सुदामा जैसे दरिद्रों, उद्धव जैसे ज्ञानियों व अर्जुन जैसे वीरों के सखा है; गोपियों के प्राणनाथ हैं; राधा के लिए प्रेमी हैं; द्वारका की पटरानियों के प्रिय पति हैं, गौओं के अनन्य सेवक हैं; पशु-पक्षियों के बन्धु हैं; राक्षसों के काल हैं; ज्ञानियों के ब्रह्म हैं; योगियों के परमात्मा हैं; भक्तों के भगवान हैं; प्रेमियों के प्रेमी हैं; राजनीतिज्ञों में निपुण दूत हैं, शूरवीरों में महान पराक्रमी हैं, अशरण की शरण हैं और मुमुक्षुओं के लिए साक्षात् मोक्ष हैं। समस्त विश्व का सारा ऐश्वर्य जिसके भीतर समाहित है तथा जो ज्ञान-विज्ञान, भूत-भविष्य-वर्तमान, सत्त्व-रज-तम, जड़-चेतन–समूची सृष्टि का जनक है और निखिल ब्रह्माण्ड की सारी लीलाएं जिसके भ्रूभंगमात्र (भौंहों के सिकोड़ने मात्र ) से संचालित होती हैं, जो अपने भक्तों की निष्ठा, भक्ति व पूर्ण समर्पण से ही बँधता है और नारद, वेदव्यास, शुकदेव, आदि सतत् उपासना के बावजूद भी जिनका अन्त न पा सके, वही श्रीकृष्ण शत्रुभाव से भजने वाले के लिए सहज सुलभ है। मात्र नाम लेने से ही आजन्म पातकी अजामिल को कृपालु भगवान ने तार दिया। ऐसे सृष्टि नियामक श्रीकृष्ण को गोपों की सामान्य कन्याएं थोड़े से छाछ के लिए नाच नचाती हैं। एक ओर वे अपनी वंशी की तान पर गोपियों के चित्त को चुराते हैं तो दूसरी ओर भौमासुर से भारतीय नारियों की अस्मिता व गौरव की रक्षा करने वाले हैं। विश्व के सबसे बड़े युद्ध के दिशा-निर्देशक भी श्रीकृष्ण हैं। इस तरह भवभयहारी, विपिनबिहारी, मुरारी, रासबिहारी, गोपीबल्लभ, यशोदानन्दन का चरित्र एक सम्पूर्णता का द्योतक है।

शुद्ध सच्चिदानन्द दिव्य वपु मधुर अखिल जग के स्वामी।
सबके परमेश्वर, सबके ही साक्षी सर्वान्तयामी।।
धर्मस्थापक, दुष्टदलन-कर्ता, सत्-संरक्षणकारी।
संधि-दूत बन चले स्वयं श्रीकृष्ण भक्त-संकट-हारी।। (पद-रत्नाकर)

भगवान श्रीकृष्ण में परस्पर विरोधी गुणों का समन्वय

श्रीकृष्ण स्वयं भगवान हैं इससे उनमें परस्पर विरोधी गुण-धर्म भी देखने को मिलते हैं। भगवान श्रीकृष्ण सूक्ष्म से भी सूक्ष्म और महान से भी महान, महान भोगी होकर भी परम योगी, विभक्त होकर भी सदा अविभक्त, सर्वकर्ता होकर भी सदा अकर्ता, दृश्य होकर भी अदृश्य, जन्म लेने वाले होकर भी अजन्मा, सापेक्ष होकर भी सदा निरपेक्ष, सकाम होकर भी नित्यपूर्णकाम, भक्त प्रेमवश पराधीन होकर भी परम स्वतन्त्र, ममतायुक्त होकर भी निर्मम हैं।

वे जहां पूर्ण भगवान हैं, वहीं पूर्ण मानव हैं। कंस के कारागार में वे दिव्य-आभा से पूर्ण आभूषण-आयुधों से सम्पन्न ऐश्वर्यमय चतुर्भुज रूप में प्रकट होते हैं। यह उनका ईश्वरत्व प्रकट करता हैं। और तुरंत ही वे मधुर-मधुर छोटे से शिशु बन जाते हैं। व्रज में जहां श्रीकृष्ण अपने रूप-माधुर्य, वेणुलीला, माखनचोरी लीला, रासलीला आदि से व्रजवासियों को अपने प्रेम का रसपान कराते हैं वहीं अवतार ग्रहण के छठे दिन ही पूतना-वध के द्वारा राक्षसों के वध की धर्म-संस्थापन लीला शुरु कर देते हैं।

धर्म के अनुष्ठान और उसके अभाव भी श्रीकृष्ण मे ही दिखाई देते हैं। उनकी लीला में भी जगह-जगह धर्म की अभिव्यक्ति हुई है। उनकी दिनचर्या–जागने से लेकर सोने तक धर्म के काम में ही लगे हुए हैं। वे यज्ञ करते थे, दान करते थे, कुब्जा जैसी स्रियों का भी उद्धार करते थे, लोगों को कैद से छुड़ाते थे, अत्याचारियों का संहार करते थे। उनकी यह लीला आज भी चल रही है। आज भी उनका नाम लेने वाले, उनका यशोगान करने वाले धार्मिकों के सिरमौर हो जाते हैं। उन्हीं भगवान श्रीकृष्ण पर कलंक भी लगा कि उन्होंने स्यमन्तक मणि छीन ली। और उनके अपनों ने भी उन पर विश्वास नहीं किया। आज भी भगवान श्रीकृष्ण की लीला में कलंक का आरोप करने वालों की कमी नहीं है। उन्होंने यश की भांति अपयश को भी स्वीकार किया। वे दोनों के ही आश्रय हैं तो दोनों से ही अछूते हैं। यही विशिष्टता उन्हें भगवत्ता से परे पूर्णता प्रदान करती है।

भगवान की सौंदर्यलीला में भी सुन्दरता और भीषणता दोनों ही रूपों का दर्शन होता है। भगवान श्रीकृष्ण सुन्दर तो इतने हैं कि ‘भूषण भूषणांगम्’ अर्थात् उनके शरीर की आभा से आभूषण भी चमक उठते हैं। मोरमुकुट, बाँकी लकुट, काली कामर, गुंजामाला, वनमाला तथा कौस्तुभमणि आदि श्रीकृष्ण के श्रीअंग में स्थान ग्रहणकर अपनी शोभा पाते हैं। मानो इनकी तपस्या पर प्रसन्न होकर इन पर कृपा करने के लिए श्रीकृष्ण ने इन्हें अंगीकृत किया है।

नंदभवन के मणिस्तम्भ में अपने प्रतिबिम्ब, शारीरिक सौन्दर्य को देखकर स्वयं चकित हो जाते हैं। एक बार श्रीकृष्ण नंदरानी के मणिमय आंगन में बालक्रीड़ा कर रहे थे। घुटनों के बल चलते हुए दर्पण से भी सहस्त्रगुना अधिक सुन्दर मणिमय आंगन में सहसा उनको अपना प्रतिबिम्ब दीख पड़ा। बस, उस सुन्दरता को देखते ही श्रीकृष्ण उसका आलिंगन करने के लिए, उसको पकड़ लेने के लिए मचल पड़े। उन्होंने बड़ा जोर लगाया, पर जब वह हाथ न आया तो मां को देखकर रोने लगे। औरों की तो बात ही क्या, स्वयं श्रीकृष्ण ही उस प्रतिबिम्ब को निहार कर मोहित हो गए। जिसने भी उनके चाहे बालरूप हो या ग्वालरूप या चतुर्भुज रूप हो, को प्रेम से जी भर के लिए देख लिया वही समझो उनका प्रेम दीवाना हो गया। नामकरण संस्कार कराने के लिए आए गर्गाचार्यजी की शिशु श्रीकृष्ण के अभूतपूर्व दिव्य-रूपसौंदर्य को देखकर विचित्र दशा हो जाती है और कहने लगते हैं–

‘मेरा धैर्य छूट रहा है, शरीर कम्पित और रोमांचित हो रहा है तथा बुद्धि भी लोप हुई जा रही है। आश्चर्य है ! जिनके नामकरण के लिए मैं यहां आया, उन्होंने तो स्वयं मेरा नाम ही मिटा दिया है।’

श्रीकृष्ण परम मधुर, परम कोमल होने के साथ ही महाकालरूप, अत्यन्त विकट और कठोर भी हैं। उनकी सुन्दरता में भीषणता भी छिपी है। मथुरा की रंगभूमि में जहां स्रियों ने उन्हें कामदेव के रूप में देखा, वहीं कंस ने उनको मृत्यु रूप में देखा। यशोदामाता जिस बालकृष्ण को गोदी में लेकर चूम रहीं थी, वहीं उनके विराट रूप को देखकर थर-थर कांपने लगीं। अर्जुन जिन्हें देखने के लिए लालायित रहता था, महाभारत के युद्ध में श्रीकृष्ण के विराट काल-स्वरूप को देखकर कांपने लगा। इस तरह श्रीकृष्ण मृत्यु व अमृत दोनों ही हैं। सौन्दर्य और सौन्दर्य का अभाव दोनों ही उनके चरित्र में साफ दिखाई देते हैं।

गीता के दसवें अध्याय में भगवान ने अपनी विभूतियों का वर्णन करते हुए बतलाया है कि–गणना करने वालों में मैं काल हूँ, अक्षरों में अकार, समासों में द्वन्द्व तथा अक्षयकाल अर्थात् काल का भी महाकाल मैं ही हूँ।

 

भगवान श्रीकृष्ण की लक्ष्मीलीला में भी विरोधाभास है। लक्ष्मीजी भगवान श्रीकृष्ण के वक्ष:स्थल पर सुनहली रेखा के रूप में विराजमान रहती हैं। जिस दिन से भगवान व्रज में आए, उसी दिन से व्रज लक्ष्मीजी की लीलाभूमि हो गया। वे भगवान की चरणरज व वृन्दावनधाम की उपासना करती हैं। लक्ष्मीजी ने सोचा जब हमारे स्वामी यहां ग्वाल बनकर आये हैं और नंगे पांव यहां की भूमि पर घूमेंगे तो क्यों न हम अपने आपको चारों ओर बिछा दें। लक्ष्मीजी गोकुल के वनों में घूमती हैं; इधर से श्रीकृष्ण निकलेंगे, यह सोचकर रास्ता साफ कर देती हैं। परन्तु जिस समय भगवान श्रीकृष्ण सुदामा का चिड़वा खाने लगते हैं, वे कांप उठती हैं और रुक्मिणीजी के रूप में लक्ष्मीजी ने भगवान का हाथ पकड़ लिया।

श्रीकृष्ण ज्ञानी और अज्ञानी दोनों हैं–उनकी लीला से दोनों ही व्यक्त होते हैं। श्रीकृष्ण का ज्ञान अखण्ड है। सनत्कुमार के जिस प्रश्न का उत्तर स्वयं ब्रह्मा भी न दे सके, उसका समाधान श्रीकृष्ण ने किया। परन्तु उन्होंने अज्ञानी बनकर भी लीला की है। यशोदामाता को लगता है कि ये बालक कितना अज्ञानी है कभी तलवार से हाथ काटने लगता है। नंदबाबा के घर में तलवार रखी है। एक दिन श्रीकृष्ण और बलराम उसे उठाकर तलवारबाजी करने लगे। कभी अाग का अँगार पकड़ कर अपने हाथों को जला लेते हैं। एक दिन माता यशोदा ने जेवर बनवाने के लिए सुनार बुलाया। श्रीकृष्ण ने जाकर सुनार की आग फूंकने वाली नली उठा ली और मुंह से आग फूंकने लगे। जब चिनगारी उड़ी और शरीर में लगी तब बलराम और श्रीकृष्ण दोनों चिल्लाए–मैया, मैया। एक दिन घर में मोर आया। श्रीकृष्ण उसे अपने हाथ से रोटी खिलाने लगे। मोर भी अपना मुंह नीचे करके रोटी खाने लगा। इतने में श्रीकृष्ण उसके गले में हाथ डालकर उसकी पीठ पर चढ़ गए। मोर उड़ा तो मैया दौड़कर आयीं कि हाय ! हाय ! कहीं मोर लाला को झाड़ियों में न गिरा दे। कभी गोपियों के घर में इतना ऊधम मचाते हैं। इस प्रकार उनकी लीलाओं में ज्ञान-अज्ञान दोनों ही व्यक्त होते हैं।

वे जहां पूर्णतम भगवान हैं, वहां पूर्णतम मानव के रूप में भी आदर्श व्यवहार करते हैं। कौरव-पाण्डव लड़ें नहीं इसके लिए वे स्वयं संधिदूत बनकर कौरव-सभा में जाते हैं और युद्ध न हो–इसके लिए कौरवों को समझाने का हरसंभव प्रयास करते हैं। पर दुर्योधन के न मानने पर पाण्डवों को युद्ध के लिए स्पष्ट आदेश भी देते हैं।

श्रीकृष्ण रागी और विरागी दोनों हैं–श्रीकृष्ण रागी थे। माखनचोरी, रासलीला, यशोदा के प्रेमवश साँटी सहन करना, गोपियों के नचाने पर नाचना, उनकी मान-मनौती करना, चीरहरण, द्वारका में ऐश्वर्य का भोग– ये सब श्रीकृष्ण के रागी होने के लक्षण हैं। पर श्रीकृष्ण का विराग भी अतुलनीय है। एक बार मथुरा गए तो पलट कर कभी वापिस नहीं आए, जिस राज्य के लिए बड़े-बड़े तपस्वी अपनी तपस्या छोड़ देते हैं, वही राज्य कंस की मृत्यु के बाद श्रीकृष्ण के चरणों पर लोटता था पर श्रीकृष्ण ने राज्यसिंहासन का त्याग कर उग्रसेन को राजा बनाया। युधिष्ठिर ने क्या अपना साम्राज्य श्रीकृष्ण के चरणों में न्यौछावर नहीं किया था? परन्तु श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर के यज्ञ में जूठी पत्तलें उठाने का सेवाकार्य किया। उन्होंने अत्याचारी राजाओं का ध्वंस किया, पर स्वयं कहीं भी राज्यग्रहण नहीं किया। वे ममता-शून्य थे। गान्धारी के द्वारा अपने विशाल परिवार के विनाश का शाप सुनकर वे विचलित नहीं हुए। श्रीकृष्ण पत्नी व पुत्रों से बहुत प्रेम करते थे परन्तु ऋषियों के शाप से उन्होंने किसी की रक्षा नहीं की। वे सब कुछ कर सकते थे पर सोने की द्वारका पलक झपकते ही समुद्र में डूब गई और उन्होंने किसी की भी रक्षा नहीं की। यह उनके अखण्ड वैराग्य की लीला है।

श्रीकृष्ण ने अपने आदर्श जीवन में जो कुछ किया है, उसकी कहीं तुलना नहीं है। हम उनको सर्वदा सब क्षेत्र में सर्वोच्च आसन पर आसीन पाते हैं। अध्यात्म, धर्म, राजनीति, रण-कौशल, विज्ञान, कला, संगीत, नेतृत्व, सेवा, पारिवारिक जीवन, समाज सुधार–कहीं भी देखिए वे सदा सबके लिए आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हैं।
वे निश्चित ही स्वयं भगवान हैं। कोई उन्हें महापुरुष माने, योगेश्वर माने, परम पुरुष माने, महामानव माने, पूर्ण मानव माने, अपूर्ण मानव माने, निपुण राजनीतिज्ञ माने, कुटिल राजनीतिज्ञ माने, कला निपुण माने या कुछ भी माने–यह तो सत्य है कि एक बार जो उनके सम्पर्क में आ जाए, उसका कल्याण निश्चित है।

सब कुछ वासुदेव श्रीकृष्ण में ही

वासुदेवपरा वेदा वासुदेवपरा मखा:।
वासुदेवपरा योगा वासुदेवपरा: क्रिया:।।
वासुदेवपरं ज्ञानं वासुदेवपरं तप:।
वासुदेवपरो धर्मो वासुदेवपरा गति:।। (श्रीमद्भागवत)

श्रीसूतजी कहते हैं–’वेदों का तात्पर्य श्रीकृष्ण में ही है। यज्ञों के उद्देश्य श्रीकृष्ण ही हैं। योग श्रीकृष्ण के लिए ही किए जाते हैं और समस्त कर्मों की परिसमाप्ति भी श्रीकृष्ण में ही है। ज्ञान से ब्रह्मस्वरूप श्रीकृष्ण की ही प्राप्ति होती है। तपस्या श्रीकृष्ण की प्रसन्नता के लिए ही की जाती है। श्रीकृष्ण के लिए ही धर्मों का अनुष्ठान होता है और सब गतियां श्रीकृष्ण में ही समा जाती हैं।’

https://www.facebook.com/aaradhika.krishna/posts/1548335552145901

5 COMMENTS

  1. बहोत बहोत धन्यवाद । आपने तो भगवान का सम्पूर्ण जीवनपट ही दिखादिया।

    दिपक लोलगे

  2. जय श्री राधे अति सुन्दर मन और चित्त दोनों प्रसन्न हो गये

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here