श्रीमद्भागवत के एक सुन्दर श्लोक में ब्रह्माजी ने कहा है–

अहो भाग्यमहो भाग्यं नन्दगोपव्रजौकसाम्।
यन्मित्रं परमानन्दं पूर्णं ब्रह्म सनातनम्।।

अर्थात्–अहो ! नन्दगोप के इस व्रज में रहने वाले व्रजवासी गोपों के धन्यभाग्य हैं, उनके वस्तुत: बड़े भाग्य हैं; क्योंकि परमानन्दस्वरूप सनातन पूर्ण ब्रह्म स्वयं उनके सखा और मित्र हैं।

एक भक्त ने कहा है–’श्रीकृष्ण ! तुम गोपालों के कीचड़ से भरे आँगन में तो विहार करते हो, पर ब्राह्मणों के यज्ञ में प्रकट होने में तुम्हें लज्जा आती है। एक बछड़े की या छोटे-से गोपशिशु की हुंकार सुनकर ‘हां, आया’–बोल उठते हो; पर सत्पुरुषों के सैंकड़ों स्तुतियां करने पर भी मौन रह जाते हो। गोकुल की ग्वालिनों की तो गुलामी स्वीकार करते हो, पर इन्द्रिय-संयमी पुरुषों के द्वारा प्रार्थना करने पर भी उनके स्वामी बनना तुम्हें स्वीकार नहीं है। इससे पता लगता है कि तुम्हारे चरण-कमल की प्राप्ति एकमात्र प्रेम से ही संभव है।’

व्रज में भगवान श्रीकृष्ण ने माधुर्यलीला की है जिसमें उन्होंने वर्षों से प्रतीक्षा कर रहे अपने भक्तों को परमानंद (प्रेमरस का मधुर आस्वादन) देने के लिए अपने को गौरव-गरिमाहीन बनाकर उनका ‘निज जन’ बना लिया। जिसमें भक्त उनको अपना मानकर उनके चरणों में लुट पड़ता है, उन्हें आलिंगन करने लगता है, उनके हृदय से चिपट जाता है, उन्हें गोद में बैठा लेता है, उनके गलबैयाँ देकर चलता है, साथ खाता-पिता है, एकसाथ विहार करता है, आदि। और इसका हमें गोप-गोपियों के साथ श्रीकृष्ण की विभिन्न लीलाओं में दर्शन होता है।

व्रज के गोपकुमार श्रीकृष्ण की सख्यभक्ति के अनुपम उदाहरण हैं। मधुमंगल, सुबल, सुबाहु, सुभद्र, भद्र, मणिभद्र, वरूथप, भोज, विशाल, तोक और श्रीदामा आदि सहस्त्रों व्रजसखाओं के श्रीकृष्ण ही जीवन थे। मधुमंगल पौर्णमासी देवी का पौत्र और श्रीसांदीपनिजी का पुत्र था। यह भगवान श्रीकृष्ण का प्रिय सखा तथा परम विनोदी था। मधुमंगल ही  मसखरे मनसुखा’  के नाम से प्रसिद्ध है। ये सभी गोपकुमार गरीब ग्वालों के पुत्र हैं। श्रीकृष्ण की प्रसन्नता के लिए उनके साथ दौड़ते, कूदते, गाते, नाचते और तरह-तरह के खेल खेला करते थे। यहां तक कि माखन की चोरी व गोपियों की मटकियों को फोड़ने में भी वे सदैव श्रीकृष्ण के साथ रहते थे। श्रीकृष्ण का प्रेम भी इनके साथ अलौकिक है। ग्वालों के साथ ग्वाल होकर वे खेलते हैं। मैं ईश्वर नहीं हूँ, मैं आपके समान ग्वाल ही हूँ–ऐसा मानकर प्रेम करते हैं।

एक बहुत सुन्दर प्रसंग है–मनसुखा बहुत दुर्बल था। उसके शरीर की सभी हड्डियां दिखाई पड़ती थीं। एकदिन श्रीकृष्ण ने मनसुखा के कंधे पर हाथ रखकर कहा–मनसुखा ! तुम मेरे मित्र हो कि नहीं? मनसुखा ने सिर हिलाकर कहा–हां, मैं तुम्हारा मित्र हूँ। तब कन्हैया ने कहा ऐसा दुर्बल मित्र मुझे पसंद नहीं। तुम मेरे जैसे तगड़े हो जाओ। मनसुखा रोने लगा। उसने कहा–कन्हैया ! तुम राजा के पुत्र हो। तुम्हारी माता तुम्हें दूध-माखन खिलाती है। इससे तुम तगड़े हो गए हो। मैं तो गरीब हूँ। मैंने कभी माखन नहीं खाया। मेरी मां मुझे छाछ ही देती है। मुझ जैसे गरीब को कौन माखन देगा? कन्हैया ने मनसुखा से कहा–मैं तुम्हें हर रोज माखन खिलाऊँगा। मनसुखा ने कहा–कन्हैया तुम मुझे हर रोज माखन खिलाओगे तो तुम्हारी माता गुस्सा करेगी। तब कन्हैया ने कहा–अपने घर का नहीं, पर बाहर से कमाकर मैं तुम्हें माखन खिलाऊँगा। इस प्रकार अपने मित्रों को माखन खिलाने के लिए कन्हैया ने माखनचोरी लीला की। ऐसा अद्वितीय था श्रीकृष्ण का सख्य-प्रेम जिसमें श्रीकृष्ण माखनचोरी की योजना सखाओं के समक्ष रखते हैं कि किस प्रकार हम सब मिलकर गोपियों के घर से माखन की मटकी उठा लाएंगे, खाएंगे, पशु-पक्षियों को खिलायेंगे, गिराएंगे और माखन की कीच मचाएंगे। यह सुनकर गोपबालकों के आनन्द का पार नहीं है। सब ताली पीट-पीटकर नाचने लगे। नंदबाबा की कसम खाकर सभी श्रीकृष्ण की बुद्धि की प्रशंसा करने लगे।

करैं हरि ग्बाल संग बिचार।
चोरी माखन खाहु सब मिलि, करहु बाल-बिहार।।

यह सुनत सब सखा हरषे, भली कही कन्हाइ।
हँसि परस्पर देत तारी, सौंह करि नँदराइ।।

कहाँ तुम यह बुद्धि पाई, स्याम चतुर सुजान।
सूर प्रभु मिलि ग्वाल-बालक, करत हैं अनुमान।। (सूरसागर)

जिन श्रीकृष्ण के घर नौ लाख गाएँ थीं, उनको माखन चुराकर खाने की आवश्यकता नहीं थी। फिर भी अपने ग्वालवालों को खिलाने के लिए (बंदरों को भी श्रीकृष्ण ने माखन खिलाया है क्योंकि रामावतार में बंदरों ने उनकी लंका विजय में सहायता की थी) और गोपियों को आनन्दित करने के लिए माखन चोरी करते और यशोदामाता की प्रेम भरी झिड़की सुनते और मां का गुस्सा शांत करने के लिए कहते–

कित गजराज कहाँ मृग-छौना अनगढ़ मेल मिलावै।
तू जननी मेरी अति भोरी उनके कहे पतियावै।।

अर्थात्–कहां ये हाथी के समान मोटी-मोटी गोपियां और कहां मैं हिरन के बच्चे जैसा। मां तू किससे मेरी तुलना कर रही है, तू तो बहुत भोली है जो उनकी बातों में आ जाती है।

सूरदासजी ने एक पद में खेल के प्रसंग का बहुत ही सुन्दर वर्णन किया है जिसमें श्रीकृष्ण हार जाते हैं और श्रीदामा जीत जाते हैं पर श्रीकृष्ण दांव देना नहीं चाहते और खेलना भी चाहते हैं तब श्रीदामा कहते हैं कि खेलते समय क्यों गुस्सा करते हो। तुम हमसे जाति में तो बड़े नहीं हो न ही हम तुम्हारे घर में रहते हैं। कान्हा तुम इसीलिए अधिकार जमाते हो क्योंकि तुम्हारे पास ज्यादा गाएं हैं–

खेलत मैं को काको गुसैयाँ।
हरि हारे जीते श्रीदामा, बरबस हीं कत करत रिसैयाँ।।

जाति-पाँति हमतैं बड़ नाहीं, नाहीं बसत तुम्हारी छैयाँ।
अति अधिकार जनावत यातैं अधिक तुम्हारें गैयाँ।।

रूठहि करै तासौं को खेलै, रहे बैठि जहँ-तहँ सब ग्वैयाँ।
सूरदास प्रभु खेल्यौइ चाहत, दाउँ दियो करि नंद-दुहैयाँ।। (सूरसागर)

गोपकुमारों ने श्रीकृष्ण को समान भाव से खूब बरता है। व्रज के सखाओं और मित्रों को उनके ऐश्वर्य का भान भी नहीं था। यदि कभी उन्हें ऐश्वर्य का भान होता भी है तो वे स्वयं ही उसे भूल जाते हैं या श्रीकृष्ण उन्हें भुला देते हैं। आँखमिचौनी, गुल्लीडण्डा, चकई-भौंरा, माखनचोरी, गोचारण, सखाओं के साथ वन भोजन, गेंद खेलना, गोवर्धन-पूजन, वरुणलोक दर्शन, झूला, हास्य-विनोद आदि लीलाएँ श्रीकृष्ण की सख्यभावमयी लीलाएं हैं। ये लीलाएं सखाओं को परम आनन्द देने वाली हैं। भगवान का मित्र होना भी अत्यन्त दुर्लभ है। श्रीदामा आदि सखा खेल-खेल में भगवान को घोड़ा बनाकर उनकी पीठ पर चढ़कर अपना दाँव लेने से नहीं चूकते। इससे और गहरी मित्रता कहां देखने को मिल सकती है। भगवान के साथ खेलना, भगवान से रूठना, फिर हृदय से लगाना, भगवान की बराबरी करना–यह तभी संभव है जब अपने को मिटाकर उनके सुख में सुखी रहने की लगन लगी रहे। उनके ईश्वरत्व को भूल जाएँ, उन्हें अपना मित्र और हितैषी समझें और स्वार्थ की तो गंधमात्र भी न हो। यदि ऐसा न होता तो फटे कपड़ों की चिन्दियों से बनी गेंद को लाने के लिए श्रीकृष्ण कालियदह में नहीं कूद जाते। अपने परम मित्र मनसुखा का दु:ख उनसे देखा नहीं गया। मित्र की हठ थी कि मुझे वही गेंद चाहिए। अब वह तो जल में कूद कर ही वापिस लाई जा सकती है, तो मित्र की हठ को पूरा करने के लिए श्रीकृष्ण कालियदह में कूद गए। श्रीकृष्ण ने अपने सम्पूर्ण लीलाकाल में अपने मित्रों के दु:ख को पहिचाना। वे जीती हुई बाजी भी मित्र के हित में हार जाते हैं–’हरि हारे जीते श्रीदामा।’ बालसखा सुदामा के दारिद्रय से द्रवित होकर, बिना याचना के ही अपना लोक दे डाला। श्रीकृष्ण का प्रेम सभी के साथ निष्कपट है।

पं. श्रीकृष्णगोपालाचार्यजी के शब्दों में

माई री ! अचरज की यह बात।
निर्गुण ब्रह्म सगुन ह्वै आयौ, बृज में ताहि नचात।।

पूरन ब्रह्म अखिल भुवनेश्वर, गति जाकी अज्ञात।
ते बृज गोप-ग्वाल संग खेलत, वन-वन धेनु चरात।।

जाकूँ बेद नेति कहि गावैं, भेद न जान्यौ जात।
सो बृज गोप-बन्धुन्ह गृह नित ही, चोरी कर दधि खात।।

शिव-ब्रह्मादिक, देव, मुनि, नारद, जाकौ ध्यान लगात।
ताकूँ बांधि जसोदा मैया, लै कर छरी डरात।।

जाकी भृकुटि-बिलास सृष्टि-लय, होवै तिहुँ पुर त्रास।
‘कृष्णगुपाल’ ग्वाल डरपावत, हाऊ तें भय खात।।

गोपियां क्या हैं?

श्रीमहाप्रभु वल्लभाचार्यजी के शिष्य और अष्टछाप के कवि श्रीपरमानंददासजी ने एक पद में गोपी की बहुत सुन्दर परिभाषा की है–

गोपी प्रेम की ध्वजा।
जिन गोपाल किए अपने वस उर धरि स्याम भुजा।।

अर्थात् प्रेमरसमयी भक्ति की प्रवर्तिका गोपियां ही हैं। श्रीकृष्णदर्शन की लालसा ही गोपी है। गोपी कोई स्त्री नहीं है, गोपी कोई पुरुष नहीं है। श्रीमद्भागवत में ‘गोपी’ शब्द का अर्थ परमात्मा को प्राप्त करने की तीव्र इच्छा बताया गया है।

कल्पों तक कठोर तपस्या करके वरदान से प्राप्त गोपी शरीर वाली श्रुतियां, स्वयं ब्रह्मविद्या, बड़े-बड़े ऋषि-मुनि जो स्व-सुख से रहित पूर्णत्यागमय और अपने परम मधुर प्रेम के द्वारा अपने प्रियतम श्रीकृष्ण को सुख पहुंचाने के लिए वर्षों से प्रतीक्षा कर रहे थे, गोपी बनकर व्रज में आए।

गोपियां श्रुतियां हैं, इडा-पिंगला आदि नाड़ियां हैं, चित्तवृत्तियां हैं। ’गोपायन्ति  श्रीकृष्णम्’–ये श्रीकृष्ण का गोपन करती हैं, चोर-चोर, जार-जार कहकर उनको छिपाती हैं, इसलिए गोपी हैं। ‘गोभि: पिबन्ति’–ये इन्द्रियों द्वारा श्रीकृष्ण-रस का पान करती हैं, इसलिए भी इनको गोपी कहते हैं। अन्य लोग तो ‘नेति नेति’ द्वारा निषेध करके इस रस से वंचित हो जाते हैं, परन्तु गोपियां अपनी इन्द्रियों से ही श्रीकृष्ण-रस का पान करती हैं। भक्ति अलौकिक दिव्य-रस है। जो आँख से भक्ति करे, कान से भक्ति करे, मन से भक्ति करे, जीभ से भक्ति करे, जो अपनी प्रत्येक इन्द्रिय को भक्तिरस में डुबो दे, उसे गोपी कहते हैं। जब प्रत्येक इन्द्रिय से भक्ति फूटती है, तब देहाभिमान छूटता है। वासना का विनाश होकर प्रेममार्ग में प्रवेश मिलता है। कुछ संतों ने कहा है जिसके शरीर में कृष्ण का स्वरूप गुप्त है, जिसके हृदय में श्रीकृष्ण को छोड़कर कुछ भी नहीं है, उसे गोपी कहते हैं। गोपी ने मन से सर्वस्व त्याग कर दिया है और मन में परमात्मा का स्वरूप स्थिर कर लिया है। गोपियों का शरीर भगवान का सतत् ध्यान करने से भगवान जैसा दिव्य बन गया है।

पद्मपुराण में गोपियों के सम्बन्ध में कहा गया है–’गोपियों को श्रुतियाँ, ऋषियों का अवतार, देवकन्या और गोपकन्या जानना चाहिए। वे मनुष्य कभी नहीं हैं।’ इन गोपियों में कुछ तो ‘नित्यसिद्धा’ हैं जो अनादिकाल से भगवान श्रीकृष्ण के साथ दिव्य-लीला विलास करती हैं। कुछ पूर्वजन्म में श्रुतियां हैं जो ‘श्रुतिपूर्वा’ कहलाती हैं। कुछ दण्डकारण्य के सिद्ध ऋषि हैं जो ‘ऋषिपूर्वा’ के नाम से जानी जाती हैं और कुछ स्वर्ग में रहने वाली देवकन्याएं हैं जो ‘देवीपूर्वा’ कहलाती हैं।

इसके अतिरिक्त भगवान के रामावतार में उन्हें देखकर मुग्ध होने वाले दण्डकवन के ऋषि-मुनि, जो भगवान का आलिंगन करना चाहते थे–को भगवान ने गोपी होकर उन्हें प्राप्त करने का वर दिया था, वे भी व्रज में गोपी हुए। इसके अतिरिक्त मिथिला की गोपी, कोसल की गोपी, अयोध्या की गोपी, श्वेतद्वीप की गोपी आदि गोपियों के अनेक यूथ थे जिनको बड़ी तपस्या करके भगवान से वर पाकर गोपीरूप में अवतीर्ण होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था।

कुछ प्रमुख गोपियों के नाम व उनका पूर्वजन्म

  • उग्रतपा नामक ऋषि ने रासलीला रत नवकिशोर श्रीकृष्ण का सौ कल्पों तक ध्यान किया, वे सुनन्द नामक गोप की कन्या ‘सुनन्दा’ हुए।
  • सत्यतपा नामक ऋषि ने सूखे पत्ते खाकर श्रीराधा के दोनों हाथ पकड़कर नाचते हुए श्रीकृष्ण का दस कल्पों तक ध्यान किया। वे सुभद्र नामक गोप की कन्या ‘सुभद्रा’ हुए।
  • हरिधामा नामक ऋषि ने निराहार रहकर  कोमल पत्तों की शय्या पर लेटे हुए श्रीराधाकृष्ण का ध्यान किया, वे तीन कल्प के बाद सारंग नामक गोप के घर ‘रंगवेणी’ नामक कन्या के रूप में अवतीर्ण हुए।
  • जाबालि ऋषि ने एक पैर पर खड़े होकर व्रज में विहार करने वाले श्रीकृष्ण का ध्यान करते हुए नौ कल्पों तक तपस्या की। फिर वे प्रचण्ड नामक गोप के घर ‘चित्रगन्धा’ के रूप में प्रकट हुए।
  • शुचिश्रवा नामक ऋषि ने शीर्षासन में रहकर दस वर्ष की आयु वाले श्रीकृष्ण का ध्यान करते हुए तपस्या की। वे एक कल्प के बाद व्रज में सुधीर नामक गोप के घर उत्पन्न हुए।

गोपियों का अपने पति-पुत्रादि से भी बढ़कर श्रीकृष्ण में प्रेम क्यों हुआ?

श्रीमद्भागवत में राजा परीक्षित के यह पूछने पर कि ‘गोपियों का अपने पति-पुत्रादि से भी बढ़कर श्रीकृष्ण में प्रेम क्यों हुआ?’ शुकदेवजी कहते हैं–’आत्मा ही सब प्राणियों के लिए प्रियतम है। यह सारा जगत आत्मा के सुख के लिए ही प्रिय हुआ करता है और श्रीकृष्ण ही अखिल आत्माओं के आत्मा हैं (इसलिए श्रीकृष्ण के लिए गोपियों का इतना स्नेह है)।’

गोपियों का तन-मन-धन–सभी कुछ प्राणप्रियतम श्रीकृष्ण था। वे संसार में जीती थीं श्रीकृष्ण के लिए, घर के सारे काम करती थीं श्रीकृष्ण के लिए। यहां तक कि उनकी निद्रा भी श्रीकृष्ण में ही होती थी। स्वप्न और सुषुप्ति दोनों में ही वे श्रीकृष्ण की मधुर लीलाओं को देखतीं और अनुभव करतीं थीं। भगवद्गीता में भगवान ने जो कुछ करने के लिए कहा है, गोपियों के जीवन में वे सब बातें स्वाभाविक विद्यमान थीं। गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को उपदेश देते हुए कहा है–

‘वे निरन्तर मुझमें मन लगाने वाले तथा मुझमें ही प्राणों को अर्पण करने वाले मेरे परम भक्त परस्पर मेरी ही चर्चा करते हैं, मेरी ही लीला गा-गाकर संतुष्ट होते हैं और मुझमें ही रमण करते हैं; इस प्रकार प्रेमपूर्वक नित्ययुक्त होकर मुझे भजने वाले भक्तों के साथ अपनी ईश्वरीय बुद्धि का योग मैं करा देता हूँ, जिससे वे मुझको ही प्राप्त होते हैं।’

गोपियों के मन में इस लोक और परलोक के किसी भी भोग की कामना नहीं थी। उन्होंने अपने मनों को कृष्ण के मन में और अपने प्राणों को कृष्ण के प्राणों में विलीन कर दिया था।

कान्ह भए प्रानमय प्रान भए कान्हमय,
हिय मैं न जानि परै कान्ह है कि प्रान है।

गोपियों का हृदय श्रीकृष्णमय हो गया था; गोपियां भगवान की बनी-बनायी भक्त थीं। उन्होंने अपनी सारी इच्छाओं को श्रीकृष्ण की इच्छा में मिला दिया था। ‘जो गोपियां गायों का दूध दुहते समय, धान आदि कूटते समय, दही बिलोते समय, आँगन लीपते समय, बालकों को पालना झुलाते समय, रोते हुए शिशुओं को लोरी देते समय, घरों में छिड़काव करते तथा झाड़ू लगाते समय, प्रेमभरे हृदय से आँखों में आँसू भरकर गद्गद वाणी से श्रीकृष्ण का नाम-गुणगान किया करती हैं, उन श्रीकृष्ण में चित्त लगाने वाली गोपरमणियों को धन्य है।’

भगवान के आदेश पर जब उद्धवजी गोपियों को समझाने ब्रज में आए तब गोपियों ने कहा–

स्याम तन स्याम मन, स्याम है हमारौ धन,
आठौ जाम ऊधौ ! हमैं स्याम ही सौं काम है।
स्याम हिए, स्याम जिए, स्याम बिनु नाहिं तिए,
आंधे की सी लाकरी अधार स्यामनाम है।।

स्याम गति स्याम मति, स्याम ही है प्रानपति,
स्याम दुखदाई सौं भलाई सोभाधाम है।
ऊधौ ! तुम भए बौरे, पाती लेकर आए दौरे,
जोग कहाँ राखैं, यहां रोम-रोम स्याम है।।

अर्थात् यहां तो श्याम के सिवा कुछ है ही नहीं; सारा हृदय तो उससे भरा है, रोम-रोम में वह छाया है। सोते-बैठते कभी साथ छोड़ता नहीं; फिर बताओ तुम्हारे ज्ञान और योग को कहां रखें? उद्धव गुरु बनकर गोपियों को योग की दीक्षा देने गए थे पर उनके चेले बनकर लौटे। वापिस मथुरा आकर श्रीकृष्ण को ‘यदुनाथ’ कहना भूलकर  ‘गोपीनाथ’ पुकारने लगे। उद्धवजी ने कहा–’हे गोपाल, हे गोपीनाथ ! एक बार चलो न व्रज को। उस प्रेमलोक को छोड़कर यहां इस रूखी-सूखी मथुरा में कहां आ बसे।’

गीता में तो भगवान श्रीकृष्ण ने अपने ही मुख से बारम्बार अपने को साक्षात् सच्चिदानन्द परात्पर तत्त्व घोषित किया है। और इन भगवान का गोपियों ने ‘चोर-जार-शिखामणि’ नाम रखा है। (गोपियों के घर माखन खाकर और यमुनातट पर उनके वस्त्रों को कदम्ब पर रखकर भगवान श्रीकृष्ण ‘चोर’ कहलाए तथा शरद पूर्णिमा की रात्रि को गोपियों में आत्मरमण कर भगवान ‘जार’ कहलाए।) वे भगवान श्रीकृष्ण जिनके चरणों की पावन धूलि पाने के लिए ब्रह्मा और ज्ञानी उद्धव कीड़े-मकोड़े की योनि और लता-गुल्म आदि जड़ शरीर धारण करने में भी अपना सौभाग्य समझते हैं।

श्रीउद्धवजी कहते हैं–

वन्दे नन्दव्रजस्त्रीणां पादरेणुमभीक्ष्णश:।
यासां हरिकथोद्गीतं पुनाति भुवनत्रयम्।। (श्रीमद्भागवत)

अर्थात्–’अहो ! इन गोपियों की चरण-रज का सेवन करने वाले वृन्दावन में उत्पन्न हुए गुल्म, लता और ओषधियों में से मैं कुछ भी हो जाऊँ (जिससे उन गोपियों की चरण-रज मुझे भी प्राप्त हो); क्योंकि इन गोपियों ने बहुत ही कठिनता से त्याग किए जाने योग्य स्वजनों को और आर्यपथ को त्यागकर भगवान श्रीकृष्ण के मार्ग को प्राप्त किया है, जिसको श्रुतियां अनादिकाल से खोज रही हैं। ……… मैं उन नन्दव्रजवासिनी स्त्रियों की चरण-रेणु को बारम्बार नमस्कार करता हूँ, जिनके द्वारा किया गया भगवान की लीला-कथाओं का गान त्रिभुवन को पवित्र करता है।’

भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं अपने मुख से गोपियों की प्रशंसा करते हुए कहा है–

‘हे अर्जुन ! गोपियाँ अपने अंगों की सम्हाल इसलिए करती हैं कि उनसे मेरी सेवा होती है; गोपियों को छोड़कर मेरा निगूढ़ प्रेमपात्र और कोई नहीं है। वे मेरी सहायिका हैं, गुरु हैं, शिष्या हैं, दासी हैं, बन्धु हैं, प्रेयसी हैं–कुछ भी कहो, सभी हैं ! मैं सच कहता हूँ कि गोपियां मेरी क्या नहीं हैं। हे पार्थ ! मेरा माहात्म्य, मेरी पूजा, मेरी श्रद्धा और मेरे मनोरथ को तत्त्व से केवल गोपियां ही जानती हैं और कोई नहीं जानता।’

भगवान श्रीकृष्ण स्वयं महाभागा गोपियों के ऋणी रहना चाहते हैं। भगवान ने कहा–

’मैं जानता हूँ कि तुमने मेरे लिए, मेरी सेवा के लिए लोक-वेद-स्व सबका परित्याग कर दिया है। इसलिए मैं भी मन-ही-मन छिपकर तुम लोगों की सेवा करता हूँ। मैं तुम्हारा प्यारा हूँ और तुम हमारी प्यारी हो। अरी गोपियों, तुमने मुझसे ऐसा निश्छल, निष्कपट प्रेम किया है कि यदि मैं ब्रह्मा की आयु से भी तुम लोगों का बदला चुकाकर उद्धार पाना चाहूँ तो भी पार नहीं पा सकता, क्योंकि तुमने हमारे लिए घर छोड़ा है तथा जितने बन्धन थे, उन सबको छोड़ दिया है। तुम तो साधु हो और अपने शील-स्वभाव से ही हमें उऋण कर सकती हो।’

भाई हनुमानप्रसादजी पोद्दार के शब्दों में–

बंदौं गोपी-जन-हृदय, जो हरि राखे गोय।
पलकहुँ नहिं निकसत कबहुँ, मानि परम सुख सोय।।

बंदौं गोपी-मन सरस, मिल्यौ जो हरि-मन जाय।
हरि-मन गोपी मन बन्यौ, करत नित्य मनभाय।।

xxxxx          xxxxx        xxxxx

बंदौं गोपी-नाम, जे हरि मुरली महँ टेर।
सुख पावत हरि स्वयं करि कीर्तन बेरहिं बेर।।

बंदौं गोपी-रूप, जो हरि-दृग रह्यौ समाय।
निकसत नैकु न नयन तैं छिन-छिन अधिक लुभाव।।

रसखानिजी के शब्दों में–

जदपि जसोदा नंद अरु ग्बालबाल सब धन्य।
पै या जग में प्रेम कौं गोपी भई अनन्य।।

मित्र का वास्तविक कर्तव्य

मित्र का वास्तविक कर्तव्य केवल प्रेम करना या प्रकट करना ही नहीं है, अपितु अपने मित्र को शिक्षा देना, उसे सचेत करना, सान्त्वना देना तथा आवश्यकता पड़ने पर बलपूर्वक आदेश देना भी है। श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध में हमें ऐसी घटनाएं मिलती हैं जिनमें भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी मित्रता की दिव्यता की मर्यादा को बतलाया है।

गोकुल की  बालिकाएं यमुना में अरुणोदय के पूर्व स्नान करके और कात्यायनीदेवी से इस हेतु से प्रार्थना करने जाती हैं कि उन्हें श्रीकृष्ण भगवान की कृपा प्राप्त हो। वे एक-स्वर से इस मन्त्र का गान करती हैं–

कात्यायनि महामाये महायोगिन्यधीश्वरि।
नन्दगोपसुतं देवि पतिं मे कुरु ते नम:।।

अर्थात्–’हे कात्यायनी ! महामाये ! महायोगिनी ! सबकी एकमात्र अधीश्वरी ! आप नन्दनन्दन श्रीकृष्ण को हमारा पति बना दीजिए। हम आपको नमस्कार करती हैं।’

उन्होंने अपने वस्त्र उतार कर तट पर रख दिए और वे जल में प्रविष्ट हुईं; किन्तु व्रतिनी होने के नाते उन्हें वस्त्र धारण करके ही स्नान करना चाहिए था। भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें कर्तव्य का पाठ पढ़ाया और उनके वस्त्र हरण कर लिए। गोपियों की किंचित् भी दोष-बुद्धि नहीं हुई बल्कि उनको श्रीकृष्ण की सब क्रियाओं में सुख-ही-सुख मालूम हुआ। गोपियों के क्षमा मांगने पर श्रीकृष्ण ने उन्हें वस्त्र लौटा दिए। भगवान ने गोपियों से कहा–’तुम्हारा संकल्प हमको ज्ञात है कि तुमने किस लिए हमारी पूजा की है। जाओ, तुम सिद्ध हो गयीं। जिसके लिए तुमने देवी की पूजा की थी, वह तुम्हें प्राप्त हो गया। रासलीला में तुम सब मेरे चरणों की अर्चा कर सकती हो।’

कुछ समय बाद भगवान श्रीकृष्ण गोप-बालकों के साथ वन में गए। वहां उन्होंने अपने मित्रों को बहुत अच्छी शिक्षा देते हुए कहा–’मेरे प्यारे मित्रो ! देखो ये वृक्ष कितने भाग्यवान हैं। इनका सारा जीवन केवल दूसरों की भलाई करने के लिए ही है। ये स्वयं तो हवा, धूप, वर्षा, पाला–सब कुछ सहते हैं। परन्तु हम लोगों की उनसे रक्षा करते हैं। इनके द्वारा सब प्राणियों का जीवन-निर्वाह होता है। इन्हीं का जीवन श्रेष्ठ है। ये वृक्ष अपने पत्तों से, फूलों से, फलों से, छाया से, मूल से, छाल से, लकड़ी से, गन्ध से, गोंद से, भस्म से और फिर अंकुर से लोगों की सेवा करते हैं। कभी किसी को अपने पास से व्यर्थ नहीं जाने देते हैं।’

इस प्रकार ग्वाल-बालों को परोपकार और जनसेवा का पाठ पढ़ाते हुए कहा–

‘मेरे प्रिय मित्रो ! संसार में प्राणी तो बहुत हैं; परन्तु उनके जीवन की यथार्थ सफलता इतने में ही है कि जहां तक हो सके अपने धन से, विवेक-विचार से, वाणी से और प्राणों से भी ऐसे ही आचरण सदा किए जायँ जिनसे दूसरों का कल्याण हो।’

https://www.youtube.com/watch?v=eharFnYsc7A

14 COMMENTS

  1. अापका प्रयास बहुत सराहनीय है जन जन तक पहुंचाने का प्रयास करना भगवान की कृपा है जो अनंत काल तक कायम रहे

  2. Jaishree krishna jaishree radharani jaishree Govind jaishree Nath ji jaishree dwarkadheesh Kee jaishree bhaktvtsal Bhagvan kee jaishree Govind jaishree Nath ji

  3. अद्भुत है. अर्चना जी,निरंतर आपसे ज्ञान चाहिये!
    छोटा भाई समझिये.

    सलिल सुधाकर..

  4. I m overhelmed to read all this beautiful information. Pl keep on passing such guidance to us forever. It has given me immense happiness n pleasure. Thank you sooooo much.

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