अहो बकी यं स्तनकालकूटं
जिघांसयापाययदप्यसाध्वी।
लेभे गतिं धात्र्युचितां ततोऽन्यं
कं वा दयालुं शरणं व्रजेम।। (श्रीमद्भागवत)

अर्थात् पापिनी पूतना ने अपने स्तनों में हलाहल विष लगाकर श्रीकृष्ण को मार डालने की नियत से उन्हें दूध पिलाया था, उसको भी भगवान ने वह परम गति दी जो धायमाँ को मिलनी चाहिए। उन भगवान श्रीकृष्ण के अतिरिक्त और कौन दयालु है, जिसकी शरण ग्रहण करें।

पूतना का अर्थ

पूत का अर्थ है पवित्र और ना का मतलब है नहीं अर्थात जो पवित्र नहीं है वह है पूतना। आत्मस्वरूप का ज्ञान पवित्र है अर्थात् मनुष्य शुद्ध चेतन आत्मा है, परमात्मा का अंश है। पर ‘मैं’ शरीर हूँ यह अज्ञान है। कई आचार्य अविद्या को ही पूतना मानते हैं। पूतना तीन वर्ष तक के शिशु को मारती है। मनुष्य तीन अवस्थाओं–जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति में तीन गुणों–सत्व, रज और तम से जुड़ा हुआ है। जब वह परमात्मा से सम्बन्ध जोड़ता है अर्थात् ब्रह्मसम्बन्ध जोड़ता है तो पूतना उसे त्रास नहीं देती है। ईश्वर से विमुख रहने पर ही पूतना त्रस्त करती है, डराती है।

पूतना के पूर्वजन्म की कथा

पूतना पूर्वजन्म में राजा बलि की पुत्री रत्नमाला थी। राजा बलि के यज्ञ में भगवान वामन का रूप धारण करके भिक्षा मांगने गए थे। सात वर्ष के वामनजी अत्यन्त सुन्दर दिख रहे थे। वामनजी को देखकर राजा बलि की पुत्री के मन में वात्सल्य-प्रेम जागा और उसने मन-ही-मन सोचा कि ऐसा बालक मेरी गोद में आ जाए तो कितना अच्छा हो। इतने सुन्दर बालक को मैं खिलाऊँ, स्तनपान कराऊँ, तो मुझे बड़ी प्रसन्नता होगी। वामन भगवान ने अपने भक्त बलि की पुत्री के इस मनोरथ का मन-ही-मन अनुमोदन किया। पर जब वामनजी ने विराट रूप धारणकर बलि राजा का सर्वस्व हरण कर लिया तो उनकी पुत्री को बहुत बुरा लगा। वह सोचने लगी कि मेरे पिता को इन्होंने कपट से छला है अत: इन्हें मारना चाहिए। एक बार गोद में खिलाने का संकल्प और फिर मारने का संकल्प; दोनों संकल्प मिल गए और राजा बलि की पुत्री अगले जन्म में (द्वापरयुग में) पूतना हुई।

पूतना-वध की कथा

श्रीकृष्ण की षष्ठी-पूजा करके नंदबाबा कंस को वार्षिक कर चुकाने मथुरा गए। उन्होंने सोने की थाली में रखकर पांच हीरों की भेंट कंस को दी। नंदबाबा के घर नारायण बालकृष्ण बनकर आए हैं अत: लक्ष्मीजी भी वैकुण्ठ छोड़कर नंदबाबा के घर पधारी हैं। वसुदेवजी को जब पता चला कि नंदबाबा आए हैं तो वे नंदबाबा से मिलने उनके शिविर में गए। वसुदेवजी शूरसेन के पुत्र हैं और नंदबाबा पर्जन्य के पुत्र हैं। शूरसेन और पर्जन्य के पिता एक ही हैं। अत: दोनों भाई-सरीखे हैं। दो परम-बन्धु बहुत दिनों बाद मिले और वह भी कंस के भय से गुपचुप। एक-दूसरे से कुशल समाचार पूछने के बाद वसुदेवजी ने नंदबाबा से कहा–’नंदरायजी ! आप को अब यहां और अधिक नहीं रुकना चाहिए। गोकुल में बहुत उत्पात हो रहे हैं।’

‘गोकुल में उत्पात–नारायण रक्षा करें।’ नंदबाबा भगवान का स्मरण करते हुए गोपों के साथ छकड़े (बैलगाड़ी) दौड़ाते हुए शीघ्रता से गोकुल की ओर चल पड़े।

कंस ने नवजात शिशुओं का वध करने के लिए जिन असुरों को नियुक्त किया था उनमें पूतना सबसे प्रधान थी। पूतना इच्छानुसार रूप बनाकर दिन-रात अबोध बच्चों का वध करती हुई घूमा करती थी। श्रीकृष्ण की षष्ठी के दिन ही नंदबाबा के मथुरा चले जाने के बाद पूतना ब्रज में पहुंची। उसने देखा कि बलवान गोप प्रत्येक द्वार पर पहरा दे रहे हैं अत: उसने अपने को सुन्दर स्त्री बना लिया। उसकी चोटियों में बेला-चमेली के फूल गुँथे थे। सुन्दर वस्त्र पहने थी। उसके कानों के कर्णफूल की चमक, माथे पर लटकती हुई अलकें, मधुर मुस्कराहट, तिरछी चितवन, बड़े-बड़े नितम्ब, पतली कमर ब्रजवासियों का चित्त चुरा रही थी। आभूषणों की झंकार करती, हाथ में एक कमल लेकर उसे नचाती हुई पूतना जब चली तो ऐसा प्रतीत हुआ कि साक्षात् लक्ष्मीजी अपने पति को देखने के लिए आई हों। पूतना का तन सुन्दर है पर मन मैला है। बाहर से प्रेम का आडम्बर है पर मन में वैर-भाव है। रूप तो उसने पत्नी व माँ का धारण किया है पर मन में मारने की दुर्वृत्ति है। पूतना का सौंदर्य, श्रृंगार, बात करने का ढंग और उसकी शान-शौकत देखकर यशोदामाता ने सोचा कि यह कोई भले घर की स्त्री है इसलिए उन्होंने कोई विरोध नहीं किया और वह सीधे नंदभवन में चली गई। भगवान की ही लीलाशक्ति ने उसे अन्य किसी घर में जाने से रोककर नंदभवन में जाने की प्रेरणा दी।

पूतना इतना सुन्दर रूप धारण करके क्यों आई?

पूतना ने अपने वस्त्र और श्रृंगार से सभी को मोह लेने के लिए सुन्दर रूप धरा था। सौंदर्य का मोह होते ही विवेक बह जाता है, ज्ञान तब टिकता नहीं। कंस के भय से नंदबाबा ने सभी ब्रजवासियों को लाला का ध्यान रखने के लिए कहा था। किन्तु अनजान-सी स्त्री नंदभवन के भीतर चली जा रही है फिर-भी सौंदर्य के मोह के वश कोई उसे रोकता नहीं है। सभी होश गंवा बैठे हैं। सोचते हैं कि–ऐसा लगता है कि यह किसी बड़े घर की स्त्री है। हम इससे पूछेंगे कि आप कौन हैं और भीतर क्यों जा रही हैं तो उसे बुरा लगेगा। गोपियां तथा माता रोहिणी और यशोदाजी तक पूतना के सौंदर्य के प्रभाव में आ गईं। यशोदामाता बहुत भोली हैं उन्हें सब अच्छे और लाला के हितैषी ही नजर आते हैं। इसीलिए पूतना ने मखमली म्यान में दुधारी तलवार की तरह कपट से भरा सुन्दर रूप बनाया।
पूतना ने देखा कि एक दूध जैसे उज्जवल बिछावन पर नीलमणि जैसा सुकोमल शिशु पीताम्बर ओढ़े सो रहा था। भगवान श्रीकृष्ण दुष्टों के काल हैं। परन्तु जैसे आग राख की ढेरी में अपने को छिपाए हो वैसे ही उन्होंने अपने प्रचण्ड तेज को छिपा रखा था। उन्होंने उसी क्षण जान लिया कि यह बच्चों को मारने वाला पूतना-ग्रह है और अपने नेत्र बंद कर लिए।

पूतना के आते ही भगवान ने अपने नेत्र बंद क्यों किए?

इस पर विभिन्न संतों व महानुभावों ने अपने-अपने विचार प्रकट किए हैं। उनमें से कुछ इस प्रकार हैं–

  • श्रीकृष्ण जगद्गुरु हैं। वह बताना चाहते हैं कि जहां साधक सांसारिक आकर्षणों से आँखें हटा लेता है वहां पूतनारूपी अविद्या धीरे-धीरे क्षीण हो जाती है।
  • भगवान श्रीकृष्ण ने विचार किया कि वैसे तो पूतना ने मां का रूप धारण किया है परन्तु हृदय में वैर है। ऐसी स्त्री का मुख नहीं देखना है इसलिए नेत्र बंद कर लिए।
  • पूतना माया से सुन्दर स्त्री का रूप धरकर आयी है। भगवान की दृष्टि पड़ने पर माया का आवरण उतर जाएगा और इसके असली रूप को देखकर पुत्र के अनिष्ट की आशंका से कहीं मां के प्राण न निकल जाएं, इसलिए भगवान ने नेत्र बंद कर लिए।
  • भगवान श्रीकृष्ण ने विचार किया कि करुणादृष्टि से देखूंगा तो इसे मारुंगा कैसे, और उग्रदृष्टि से देखूंगा तो यह भस्म हो जाएगी। इसलिए भगवान ने नेत्र बंद कर लिए।
  • भगवान श्रीकृष्ण ने विचार किया कि मैं तो गोकुल में माखन-मिश्री खाने आया था, पर यहां तो छठी के दिन ही विष पीना पड़ेगा। इसलिए आंखें बंद करके शंकरजी का ध्यान किया कि आप आकर विष-पान कीजिए और मैं दूध पीऊंगा।
  • जैसे बालक किसी अपरिचित को देखकर आंखें बंद कर लेते हैं, वैसे ही भगवान श्रीकृष्ण ने पूतना को देखकर बाललीला करते हुए अपने नेत्र बंद कर लिए।
  • भगवान श्रीकृष्ण ने विचार किया कि जैसे लोग कड़वा काढ़ा नेत्र बंद कर पी जाते हैं वैसे ही इस पापिनी का दूध मैं नेत्र बंद कर पी जाऊंगा।
  • भगवान ने सोचा कि अब मैं पूतना के प्राण चूसने वाला हूँ, तब यह बहुत तड़फेगी। मुझसे यह देखा नहीं जाएगा। इसलिए भगवान ने नेत्र बंद कर लिए।
  • भगवान ने सोचा कि स्त्री अबला है, उसे मारना नहीं चाहिए।यदि मैं इसे मारूंगा तो मेरे द्वारा ही शास्त्र का नियम भंग हो जाएगा। इसलिए भगवान ने नेत्र बंद कर लिए।
  • पूतना वासना है। वासना आँखों से ही अन्दर आती है। मन को पवित्र रखना है तो आँखों को पवित्र रखना होगा। इसलिए भगवान ने नेत्र बंद कर लिए।

पूतना प्रेम का नाटक करती है और जैसे ही यशोदामाता घर के भीतर जाती हैं वह अपना कालकूट विष लगाया हुआ स्तन बालकृष्ण के मुख में दे देती है। जिसका नाम विष को अमृत कर देता है, उसे विष का क्या पता लगना था। भगवान ने मन में कहा, प्रेम से मुझे जो कुछ भी मिलता है, उसे मैं स्वीकार कर लेता हूँ। बालकृष्ण स्तनपान करते हुए पूतना के प्राण चूसने लगे। पूतना के मर्मस्थान फटने लगे। वह चिल्लायी–अब मुझे छोड़ छोड़। पूतना के दो बार छोड़ छोड़ कहने का अर्थ है कि मुझे पाप-पुण्य, राग-द्वेष, ममता-अहंता से मुक्त कर दो। भगवान ने मन में कहा–मैं जिसे एक बार पकड़ता हूँ उसे कभी छोड़ता नहीं। इसलिए बालकृष्ण ने तो उसे नहीं छोड़ा पर उसकी देह ने उसका साथ छोड़ दिया। तड़फती हुई वह अपने वास्तविक रूप में गोकुल से दूर जा गिरी।

पूतना के स्तनों में दूध और विष दोनों विद्यमान थे। संसार में भी विष और अमृत दोनों प्राप्त होते हैं। यहां पाप-पुण्य, हर्ष-शोक, जन्म-मरण जैसे विषमभाव सदैव विद्यमान रहते हैं। बंधन तथा मोक्ष भी रहते हैं। यह मनुष्य पर निर्भर है कि वह क्या चुनता है। श्रीकृष्ण ने हंस की तरह दूध-पानी अलग करते हुए दूध पी लिया और विष छोड़ दिया मानो वे बताना चाह रहे हैं कि मेरी तरह अच्छाई ग्रहण करो, बुराई छोड़ दो।

गोपियों ने देखा कि बालकृष्ण पूतना की छाती पर निर्भय होकर खेल रहे हैं, मानो मन-ही-मन कह रहे हैं–
‘मैं दुधमुँहां शिशु हूँ, स्तनपान ही मेरी जीविका है। तुमने स्वयं ही अपना स्तन मेरे मुँह में दे दिया और मैने पिया। इससे यदि तुम मर जाती हो तो स्वयं तुम्ही बताओ इसमें मेरा क्या अपराध है।’

पूतना का राक्षसी रूप कैसा था?

श्रीमद्भागवत में पूतना के राक्षसी स्वरूप का वर्णन किया गया है। यथा–पूतना का शरीर बड़ा भयानक था, उसका मुंह हल के समान तीखी और भयंकर दाढ़ों से युक्त था। उसके नथुने पहाड़ की गुफा के समान गहरे थे और स्तन पहाड़ से गिरी हुई चट्टानों की तरह बड़े-बड़े थे। लाल-लाल बाल चारों ओर बिखरे हुए थे। आँखें अंधे कुएं के समान गहरी, नितम्ब नदी के करार की तरह भयंकर, भुजाएं, जाँघें और पैर नदी के पुल के समान तथा पेट सूखे हुए सरोवर की भांति जान पड़ता था। पूतना का शरीर इतना बड़ा था कि जब वह गिरी तब छ: कोस के भीतर के वृक्ष टूटकर गिर गए। उसकी भयंकर चिल्लाहट से ब्रजवासियों के हृदय, कान और सिर में वेदना होने लगी।

गोपियों द्वारा बालकृष्ण की नजर उतारना और उनकी रक्षा का प्रबन्ध करना

गोपियों ने झटपट वहां पहुंचकर श्रीकृष्ण को गोद में उठा लिया और यशोदामाता से बोलीं–मां, राक्षसी के स्पर्श से लाला को नजर लगी होगी। अत: गोष्ठ में ले जाकर बालकृष्ण की प्रिय गंगी गाय की पूंछ को लाला के चरणों से मुख तक सर्वांग में तीन बार घुमाया। गाय की पूंछ से नजर उतारने की प्रेरणा गोपियों को भगवान ने ही दी क्योंकि भगवान पृथ्वी का भार उतारने के लिए ही अवतरित हुए हैं और पृथ्वी गाय का रूप धारणकर ही भगवान के पास गयी थी। जो गोपाल बनकर आया है, उसकी रक्षा गाएं ही करेंगी। बालकृष्ण को पवित्र करने के लिए गोपियों ने उनके शरीर पर गोबर मला क्योंकि गोबर में कीटाणुओं को मारने की शक्ति होती है; गोमूत्र से नहलाया, फिर सब अंगों में गोरज लगायी और बारहों अंगों में गोबर लगाकर भगवान के केशव आदि नामों से रक्षा की। फिर गोपियों को ध्यान आया कि हमने तो बालक को मुर्दे पर से उठाया है अत: अपने शरीरों में अंगन्यास व करन्यास किया और फिर बालकृष्ण के अंगों में बीजन्यास किया। गोपियों ने कहा–

‘अजन्मा भगवान तेरे पैरों की, मणिमान् घुटनों की, यज्ञपुरुष जांघों की, अच्युत कमर की, हयग्रीव पेट की, केशव हृदय की, ईश वक्ष:स्थल की, सूर्य कण्ठ की, विष्णु बांहों की, उरुक्रम मुख की और ईश्वर सिर की रक्षा करें। तुम्हारे चलते समय वैकुण्ठ रक्षा करें, सोते समय माधव रक्षा करें, क्रीड़ा करते समय गोविन्द रक्षा करें। बैठे समय श्रीपति रक्षा करें और खाते समय यज्ञभोक्ता रक्षा करें। पृश्निगर्भ तेरी बुद्धि की और परमात्मा तेरे अहंकार की रक्षा करें। डाकिनी, भूत, प्रेत, पिशाच, कोटरा, रेवती, ज्येष्ठा, पूतना, दु:स्वप्न, वृद्धग्रह और बालग्रह से भगवान विष्णु तुम्हारी रक्षा करें।’

गोपियां नहीं जानतीं कि जिस विष्णु को वे मना रही हैं वही विष्णु यशोदामाता की गोद में खेल रहे हैं। जो अपनी इच्छा से ही त्रिलोकी की रक्षा करता है, वह गोपियों के प्रेमपाश में बंधकर इस प्रकार रक्षित किया गया।
गोपियों ने बालकृष्ण को यशोदामाता की गोद में दे दिया और कहा कि तुम्हारा पुत्र दूध पीना चाहता है। तब यशोदामाता ने बालकृष्ण को दूध पिलाया तो वह सो गए। तब सबको संतोष हुआ कि बालक स्वस्थ है। उसी समय नंदबाबा गोपों के साथ मथुरा से वापिस आ गए। मार्ग में उन्हें पूतना का मृतदेह पड़ा मिला। पूतना के शरीर से छ: कोस तक के वृक्ष, वनस्पति, जीव-जन्तु कुचल गए थे। नंदबाबा को बड़ा आश्चर्य हुआ। वे कहने लगे–’अवश्य ही वसुदेव के रूप में किसी ऋषि ने जन्म लिया है, क्योंकि उन्होंने जैसा कहा था वैसा ही उत्पात यहां देखने में आ रहा है।’ पूतना का शरीर इतना बड़ा था कि उसका दाह-संस्कार एकबार में करना असंभव था। अत: उसके शरीर के टुकड़े-टुकड़े करके जला दिए गए। पर सबको बड़ा विस्मय हो रहा था कि जलते हुए पूतना के शव से सुगन्ध निकल रही थी।

पूतना के जलते हुए शव से दिव्य गंध क्यों निकली?

नंदबाबा और गोपगण जब गोकुल वापिस आए तो उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ कि अगरू की बड़ी भारी सुगन्ध चारों दिशाओं में फैल रही थी। यह दिव्य गंध जलते हुए पूतना के शव से निकल रही थी।

गई मारन पूतना कुच कालकूट लगाइ।
मातु की गति दई ताहि कृपाल जादवराइ।।

श्रीमद्भागवत के अनुसार

पूतना लोकबालघ्नी राक्षसी रुधिरासना।
जिघांसयापि हरये स्तनं दत्वाऽऽप सद्गतिम्।।

अर्थात् पूतना जन्म से राक्षसी थी, कर्म था शिशुओं की हत्या करना और आहार था बालकों का रक्त। वह श्रीकृष्ण के पास कपटवेश बनाकर मारने गयी थी; किन्तु कैसे भी गई; किसी भी भाव से गई; नन्हें बालकृष्ण के मुख में उसने अपना स्तन दिया इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण ने उसे माता की गति दी। उसका कपटी राक्षसी शरीर दिव्य गंध से पूर्ण हो गया। श्रीकृष्ण जिसे छू लेते हैं उसका लौकिक शरीर फिर अलौकिक, दिव्य, चिन्मय बन जाता है। श्रीकृष्ण की मार में भी प्यार है।

इसलिए हमें यह हमेशा याद रखना चाहिए कि विष पिलाकर मारने की नीयत से आने वाली पूतना की इतनी बड़ी सद्गति हुई तो जो श्रद्धा-भक्ति से अपनी प्रिय वस्तु श्रीकृष्ण को समर्पित करे, उसको क्या गति मिलेगी।

“कुचलने वाले को खुशबू ही देना फूल से सीखो,
ये वीराने चमन बन जाएं खिलना इस तरह सीखो।
छांह पर बैठते पर रूख बरसाते हैं फूलों को,
चलाते चोट पत्थर की उन्हें फल बांटना सीखो।।

हमेशां से यही दस्तूर है दिलबर के प्यारों का,
उठे जो हाथ कातिल का उसे तुम चूमना सीखो।
दिले मोती सभी के टूट कर फैले बिखरते हैं,
इन्हें ले प्यार के धागे से माला गूंथना सीखो।।

6 COMMENTS

  1. Sister Shri Archana Agarwalji, Your explanations and thought flows are very clear and easily under stable and very good. We are fortunate and blessings D to go through the loving and touching episode of Puttana devi.
    God”S grace on whoever come iin his contact by thought or physical is bound to be relieved or earthly mayavi bondage. We cherish your narration and beutiful informative explanations.

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