mata yashoda shri krishna

माता यशोदा जैसा भाग्यशाली कोई नहीं

अंकाधिरूढं शिशुगोपगूढं, स्तनं धयन्तं कमलैककान्तम्।
सम्बोधयामास मुदा यशोदा, गोविन्द दामोदर माधवेति।।

अर्थात् अपनी गोद में बैठकर दूध पीते हुए बालगोपालरूपधारी भगवान लक्ष्मीकान्त को लक्ष्य करके प्रेमानन्द में मग्न हुई माता यशोदा इस प्रकार बुलाया करती थीं–’ऐ मेरे गोविन्द ! ऐ मेरे दामोदर ! ऐ मेरे माधव !’

माता यशोदा के सौभाग्य का वर्णन कौन कर सकता है, जिनके स्तनों को साक्षात् ब्रह्माण्डनायक ने पान किया है। भगवान ने अपने भक्तों की इच्छा के अनुरूप अनेक रूप धारण किए हैं, परन्तु उनको ऊखल से बांधने का या छड़ी लेकर ताड़ना देने का सौभाग्य केवल महाभाग्यशाली माता यशोदा को ही प्राप्त हुआ है। ऐसा सुख, ऐसा वात्सल्य-आनन्द संसार में किसी को प्राप्त न हुआ है, न होगा। श्रीशुकदेवजी तो श्रीयशोदाजी को वात्सल्य-साम्राज्य के सिंहासन पर बिठाकर उनको दण्डवत् करते हुए कहते हैं–’देवी ! तुम्हारे जैसा कोई नहीं है। तुम्हारी गोद में तो सम्पूर्ण फलों-का-फल नन्हा-सा शिशु बनकर बैठा है।’

श्रीमद्भागवत में भी कहा गया है–’मुक्तिदाता भगवान से जो कृपाप्रसाद नन्दरानी यशोदा को मिला, वैसा न ब्रह्माजी को, न शंकर को, न अर्धांगिनी लक्ष्मीजी को कभी प्राप्त हुआ।’

इसीलिए राजा परीक्षित ने शुकदेवजी से पूछा कि यशोदाजी ने ऐसा कौन-सा पुण्य किया था, जिसके कारण भगवान श्रीहरि उनके पुत्र बने और उनका दुग्धपान किया।

माता यशोदा के पूर्वजन्म की कथा

अष्टवसुओं में से एक वसु द्रोण ने तपस्या कर ब्रह्माजी को प्रसन्न किया। ब्रह्माजी के प्रकट होने पर वसु द्रोण ने प्रार्थना की कि–’देव ! जब भी मैं पृथ्वी पर जन्म धारण करूँ, तब भगवान श्रीकृष्ण में मेरी परम भक्ति हो।’ उस समय द्रोणपत्नी धरादेवी भी वहीं खड़ी थीं। मन-ही-मन वह भी ब्रह्माजी से यही प्रार्थना कर रहीं थीं। ब्रह्माजी ने कहा–’तथास्तु, ऐसा ही होगा।’ इसी वरदान के कारण धरादेवी ने ब्रज में सुमुख नामक गोप के घर में जन्म लिया। उनकी माता का नाम पाटला था। यह वही समय था जब भगवान श्रीकृष्ण अवतार लेने वाले थे, द्वापरयुग का अंत होने वाला था। पाटला ने अपनी कन्या का नाम यशोदा रखा। यशोदा का विवाह ब्रजराज नन्द से हुआ। ये नन्द पूर्वजन्म में वही द्रोण नाम के वसु थे जिन्हें ब्रह्माजी ने वर दिया था।

गोलोक में भगवान की नित्यलीला में भी उनकी नित्यमाता यशोदा हैं। जब भगवान के अवतरण का समय हुआ तब इन नित्यमाता का पाटलापुत्री यशोदा (पूर्वजन्म की धरादेवी) में आवेश हो गया। पाटलापुत्री यशोदा नित्ययशोदा से मिलकर एक हो गयीं। इन्हीं यशोदा के पुत्र के रूप में परब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्ण अवतरित हुए। जिस समय भगवान श्रीकृष्ण अवतरित हुए उस समय माता यशोदा प्रौढ़ावस्था में थीं। अत: जब अधिक आयु में पुत्र हुआ तो फिर आनन्द का तो कहना ही क्या?

कर-कमलों से चरण-कमल को लिए मधुर मुख-कमल ललाम।
व्रजेश्वरी की गोद विराजित बालमुकुन्द नयन-अभिराम।।

श्रीकृष्ण जैसे-जैसे बढ़ रहे थे उसी क्रम से माता यशोदा का आनन्द भी बढ़ता जा रहा था। माता यशोदा अपने पुत्र को देखकर फूली नहीं समाती थीं–

जसुमति फूली फूली डोलति।
अति आनंद रहत सगरे दिन हसि हसि सब सों बोलति।।

मंगल गाय उठति अति रस सो अपने मन को भायौ।
विकसित कहति देख ब्रजसुन्दरि कैसो लगत सुहायौ।।

माता के स्नेह की अद्वितीय विशेषता

मां का स्नेह ऐसा है कि जब वह अपने बालक के प्रति उमड़ता है, तब वह केवल भावात्मक नहीं होता, ठोस द्रव के रूप में परिणत हो जाता है। माता का स्नेह अपने बालक के प्रति दूध बनकर प्रकट होता है। यह विशेषता पिता, भाई, बहन, पुत्री आदि अन्य किसी के स्नेह में नहीं होती। उनका स्नेह उनके मन-ही-मन में रह जाता है। भाव का ठोस वस्तु बन जाना केवल माता के स्नेह की विचित्रता है।

यशोदाजी के सत्कर्मों व तप का ही यह फल है कि उनकी गोद में स्वयं भगवान खेल रहे हैं। यशोदामाता के स्नेह की अधिकता से उनका दूध लाला के लिए अपने-आप झर-झर निकलता है। यशोदामाता जब बालकृष्ण को दूध पिलाने लगीं तो एक विचित्र लीला हुई।

दूध पिलाते हुए माता यशोदा के ध्यान में आया कि कहीं अधिक दूध पीने से बालकृष्ण (लाला) को अपच न हो जाए। जब माता अपने बच्चे को दूध पिलाती है तो वह इस बात का भी ध्यान रखती है कि बच्चे को कितना दूध पिलाना चाहिए। कहीं अधिक भोजन से बच्चे को कोई हानि तो नहीं होगी। अत: यशोदा माता ने सोचा कि यदि इस समय हम बच्चे को हँसा दें तो यह बिना रोये अपने-आप दूध पीना छोड़ देगा। इसलिए माता यशोदा लाला की आँख-से-आँख मिलाकर उनके मुख को चूमने लगीं।

भगवान ने जब यह देखा कि मैया मेरे अधिक दूध पीने से अपच की आशंका करती है तब वे मुस्करा पड़े और जम्हाई लेने लगे। अब जो जम्हाई लेते समय मैया ने देखा कि मेरे लाला के मुख में तो सम्पूर्ण विश्व है, तब वे आश्चर्यचकित हुयीं और डर भी गयीं।

भगवान ने माता यशोदा को मुख में विश्व के दर्शन क्यों कराए?

भगवान ने सोचा कि जब माता यशोदा मुझसे निश्छल प्रेम कर रही है; अपना हृदयरस (स्नेह) मुझे पिला रही है तो मुझे भी उनसे कुछ छिपाना नहीं चाहिए। माता मुझे सचमुच का बेटा समझती है पर मैं तो अजन्मा ईश्वर हूँ। मुझे उनसे कोई कपट नहीं करना चाहिए। माता मुझे अपना सात्विक दूध पिलाती है तो मुझे भी उनको अपना सत्य स्वरूप दिखा देना चाहिए।

दूसरा कारण यह है– भगवान ने सोचा, मां, तू अकेले मेरी मां नहीं हैं, सारे विश्व की मां है। मेरे साथ सारा विश्व तेरा बेटा है। सभी मेरे पेट के भीतर बैठकर तेरा दूध पी रहे हैं। तो इतने से दूध से क्या अपच होने वाला है? इस प्रकार भगवान की ऐश्वर्य-शक्ति ने यशोदामाता को बालकृष्ण के मुख में पहाड़, द्वीप, नदी, सूर्य, चन्द्रमा, पृथ्वी, द्युलोक, भूलोक आदि सब दिखा दिए।

परन्तु ऐश्वर्य-शक्ति से मां की स्नेह-शक्ति अधिक बड़ी होती है। मां ने सोचा कि आज हमारे लाला के मुख में न जाने क्या गड़बड़झाला दिख रहा है। लगता है किसी ने कोई जादू कर दिया है, या लाला का कोई खेल है। लाला के मुख में कोई सृष्टि नहीं है, ये तो निगोड़ी (ब्रजभाषा का शब्द है जो उलाहना देने के लिए प्रयोग करते हैं) मेरी आँखें हैं जो न जाने लाला में क्या-क्या खेल दिखलाती रहती हैं। इसलिए बंद करो इन आँखों को, यह कहकर माता ने अपनी आँखें बन्द कर लीं।

भगवान की ऐश्वर्य-शक्ति हार गयी और मां के प्रेम के कारण परमब्रह्म परमात्मा फिर शिशु बन गए। ऐश्वर्य-शक्ति ईश्वर से प्रेम की परीक्षा के लिए बार-बार आती है पर मां यशोदा का वात्सल्य, स्नेह उसे अपनी दासी बना लेता है।

ब्रजरानी सुत पलना झुलावे।
आछो मुख चुंबत लालन को अति रस मंगल गावे।।

निरखि सुंदर आनन तन फिरफिर ते उर लावे।
श्रीविट्ठल गिरिधर नंदनंदन ब्रजजन के मन भावे।। (कीर्तन पुष्प वाटिका)

माता यशोदा बालकृष्ण को पालने में झुलाने लगीं। वे लाला का मुख चूमकर अति आनन्द में मंगल गीत गाने लगतीं। फिर बालकृष्ण के सुन्दर मुख को देखकर बार-बार हृदय से लगा लेतीं।

माता की इच्छा श्रीकृष्ण के शीघ्र बड़े होने की है। वे कहती हैं–‘नान्हरिया गोपाल लाल, तू बेगि बड़ो किन होहि।’ अर्थात् हे नन्हें गोपाललाल ! तू कब जल्दी से बड़ा होगा। यशोदामाता कभी प्रार्थना करती हैं–’हे भगवान ! मेरा वह दिन कब आयेगा जब मैं अपने लाल को बकैयाँ (घुटनों के बल) चलते देखूंगी, कब दूध की दंतुलियां देखकर मेरे नेत्र शीतल होंगे, इसकी तोतली बोली सुनकर कब कानों में अमृत बहेगा।’ माता का मनोरथ पूरा भी हो गया। श्रीकृष्ण बोलने भी लगे, बकैयां चलने लगे और फिर खड़े होकर चलने भी लगे। माता यशोदा और श्रीकृष्ण में होड़ लगी रहती। माता यशोदा का वात्सल्य जितना उमड़ता, उससे सौगुना श्रीकृष्ण लीलामाधुर्य बिखेर देते फिर श्रीकृष्ण की  उस लीलामाधुरी को देखकर माता यशोदा का वात्सल्यसिन्धु सहस्त्रगुना उछाल मारता तो श्रीकृष्ण की लीला लक्षगुना चमक उठती। इस तरह माता यशोदा का वात्सल्य अनन्त, असीम व अपार हो गया। उसमें डूबी माता यशोदा सब कुछ भूल गयीं। उनके नेत्रों में हर समय केवल श्रीकृष्ण ही नाचते रहते थे। कब दिन हुआ, कब रात्रि हो गई, उन्हें कुछ भान ही नहीं रहता।वे हर समय अपने लाला की भावसमाधि में ही मग्न रहतीं। ऐसा लगता था मानो श्रीकृष्ण कह रहे हों–

‘जगत की स्त्रियों, देखो ! यदि तुममें से कोई मुझ परब्रह्म पुरुषोत्तम को अपना पुत्र बनाना चाहे तो मैं पुत्र भी बन सकता हूँ पर पुत्र बनाकर कैसे प्यार किया जाता है, कैसे वात्सल्यभाव से मुझे भजा जाता है, इसकी शिक्षा तुम्हें माता यशोदा से लेनी होगी।’

ग्बाल-बाल जब श्रीकृष्ण को चिढ़ाते हैं कि तुम यशोदाजी के पुत्र नहीं हो, तुम तो काले हो और माता यशोदा तो गोरी हैं; तुम्हें तो माता ने मोल लिया है, तो वे श्रीकृष्ण को समझाती हैं कि मैं गायों की सौगन्ध खाकर कहती हूँ कि मैं ही तेरी मां हूँ और तू मेरा बेटा है–

‘सूर स्याम मोहिं गोधन की सौं, हौं माता तू पूत।’

माता यशोदा के हृदय में जो हर्ष और दु:ख के भाव आते थे उसमें वे स्वयं ही नहीं डूब जाती थीं बल्कि ब्रज का प्रत्येक प्राणी, गौ, पशु, पक्षी भी उसी भाव में निमग्न हो जाते थे। जब श्रीकृष्ण कालिया नाग के दमन के लिए कालीदह में कूद गए तब माता यशोदा की छटपटाहट का बहुत ही सुन्दर वर्णन सूरदासजी ने किया है–

खन भीतर, खन बाहिर आवति, खन आँगन इहिं भाँति।
सूर स्याम कौं टेरति जननी, नैंकु नहीं मन साँति।। (सूरसागर)

अर्थात् श्रीकृष्ण के कालीदह में कूदने का समाचार सुनकर माता यशोदा कभी घर के भीतर जाती हैं, फिर तुरन्त ही बाहर आ जाती है, कभी आंगन में घूमती हैं। सूरदासजी कहते हैं मैया का मन बहुत अशांत है, और वह बार-बार श्रीकृष्ण को आवाज लगा रही हैं।

वृन्दावन आने के पश्चात् श्रीकृष्ण ने अनेकों मनमोहिनी लीलाएं कीं जिनसे माता यशोदा के हृदय में हर्ष अथवा दु:ख की धाराएं फूट निकलती थीं। इस प्रकार ग्यारह वर्ष छ: महीने श्रीकृष्ण माता यशोदा के महल को आनन्दित करते रहे किन्तु अब यह आनन्द मथुरा (मधुपुरी) जानेवाला था। फाल्गुनमास की द्वादशी तिथी को अक्रूरजी श्रीकृष्ण को मथुरा ले जाने के लिए आ ही गए। अक्रूरजी के आने पर मानो माता यशोदा के हृदय पर वज्रपात हो गया। श्रीकृष्ण को विदा करते समय माता यशोदा की जो करुण दशा थी, उसे देखकर कौन नहीं रो पड़ा।

जसोदा बार बार यौं भाषै।
है कोउ ब्रज मैं हितु हमारो, चलत गुपालहिं राखै।। (सूरसागर)

अर्थात् माता यशोदा बार-बार यह कह रही हैं कि ब्रज में हमारा ऐसा कोई हितैषी है जो गोपाल को मथुरा जाने से रोक ले।

यशोदा माता ने श्रीकृष्ण से कहा–’बेटा ! मेरी इच्छा थी कि तू मेरी आँखों से दूर न जा। अब तुझे मथुरा जाने की इच्छा हुई है तो मैं तुझे रोकती नहीं। तेरा सुख ही मेरा सुख है।’ श्रीकृष्ण को सुखी देखकर वे संतोष कर लेती हैं।

उन्होंने श्रीकृष्ण का हाथ दाऊजी के हाथ में देते हुए कहा–’बेटा ! तू बड़ा है, तू ही इसे सम्भालना। कभी हठ करे तो तू इसे खुश रखना।’ फिर श्रीकृष्ण से कहती हैं–’तू आज जा रहा है इसलिए कहती हूँ, तू मुझे मां मां कहकर बुलाता है तो लोग यह बात करते हैं कि मैं तेरी मां नहीं हूँ, तेरी मां देवकी है। मैं तेरी धाय हूँ। बेटा मैंने तो तुझे दूध पिलाया है, तुझे प्रेम किया है। पर आज मुझे याद आता है कि मैंने तुझे एक बार ओखली से बाँधा था यह मेरी भूल थी। इसलिए तेरी मां क्षमा मांगती है।’

श्रीकृष्ण बार-बार मां के चरणों में वंदना करते हैं और कहते हैं–’मां ! आज तूने कहा तो कहा फिर ऐसा न कहना। लोग चाहें जो कुछ कहें कन्हैया तो तेरा ही बेटा है। तू मेरी मां है और मैं तेरा पुत्र हूँ। मां ! तूने प्रेम से मुझे बांधा है, तेरा यह प्रेम कन्हैया कभी नहीं भूलेगा। मां मैं आऊंगा, तू रोना मत।  मां मुझे आशीर्वाद दे।’  माता यशोदा कन्हैया को छाती से लगाकर आलिंगन करती हैं।

वे जड़-चेतन, पशु-पक्षी, मनुष्य–जो कोई भी दृष्टि के सामने आ जाता, उसी से देवकीजी को अनेकों सन्देश भेजतीं। किसी ने यशोदाजी का सन्देश श्रीकृष्ण से जाकर कह दिया। श्रीकृष्ण ने उद्धवजी को यशोदाजी को समझाने के लिए भेजा; पर माता के आँसू कोई नहीं पौंछ सका। उनकी आँखों से प्रेम के अश्रु बह रहे थे, स्तनों से दूध निकल रहा था, श्रीकृष्ण और बलरामजी की याद उनको रह-रह कर सता रही थी। अपने पुत्रों का स्मरण आते ही माता यशोदा की विचित्र दशा हो गयी। वे अपना आशीष देती हुई उद्धवजी से कहतीं हैं–

कहियौ जसुमति की आसीस।
जहाँ रहौ तहँ नंद लाड़िलौ, जीवौ कोटि बरीस।। (सूरसागर)

यशोदाजी का हृदय तो तब आनन्दित हुआ जब वे कुरुक्षेत्र में श्रीकृष्ण से मिलीं। श्रीकृष्ण व बलरामजी को हृदय से लगाकर मानो उन्हें नवजीवन मिला।

जब श्रीकृष्ण के अवतार धारण करने का प्रयोजन पूरा हो गया और वह अपनी लीला समेटने वाले थे (स्वधाम–गोलोक जाने वाले थे) तब उन्होंने श्रीराधाजी के साथ माता यशोदा को भी गोलोक के दिव्य रथ पर बिठाकर विदा कर दिया। इस प्रकार श्रीराधाजी के साथ माता यशोदा गोलोक में पधार गयीं।

धन्य हैं माता यशोदा जिनको श्रीकृष्ण की लीलाओं का आनन्द प्राप्त करने का, माखन-मिश्री खिलाने का सौभाग्य मिला; जिसके लिए देवकीजी तरसती रहीं।

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