अच्युतं केशवं रामनारायणं कृष्णदामोदरं वासुदेवं हरिम्।
श्रीधरं माधवं गोपिकावल्लभं जानकीनायकं रामचन्द्रं भजे।।

संस्कार किसे कहते हैं?

‘संस्कार’ शब्द का अर्थ है दोषों को शुद्धि करना। जीव के दोषों और कमियों को दूरकर उसे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष– इन चार पुरुषार्थों के योग्य बनाना ही संस्कार का उद्देश्य है। तूलिका (रंग भरने का ब्रश) के बार-बार फेरने से धीरे-धीरे जैसे चित्र अनेक रंगों में निखर उठता है, वैसे ही विधिपूर्वक संस्कारों के अनुष्ठान से मनुष्य में बल, वीर्य, बुद्धि और दैवीय गुणों का विकास होता है।

नामकरण संस्कार क्यों किया जाता है?

सनातन धर्म में जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त सोलह संस्कार बताये गये हैं। नामकरण संस्कार उनमें से एक है। मनुष्य अनेक योनियों–पशु, पक्षी, कीट, पतंगे आदि की योनियों में भटकने के बाद मानव शरीर पाता है, अत: उसे अच्छे संस्कारों की जरूरत होती है।

नामाखिलस्य व्यवहारहेतु: शुभावहं कर्मसु भाग्यहेतु:।
नाम्नैव कीर्तिं लभते मनुष्यस्तत: प्रशस्तं खलु नामकर्म।। (वीरमित्रोदय संस्कारप्रकाश)

बृहस्पतिजी कहते हैं कि नाम से ही मनुष्य का सम्पूर्ण व्यवहार चलता है, नाम ही मनुष्य का भाग्यप्रदाता है, नाम से ही मनुष्य कीर्ति प्राप्त करता है। इसलिए नामकरण करना आवश्यक संस्कार है।

बालकृष्ण का नामकरण संस्कार

यदुवंशियों के कुलपुरोहित थे श्रीगर्गाचार्यजी। वह ज्योतिष के प्रकाण्ड विद्वान थे। वसुदेवजी की प्रेरणा से वह एक दिन गोकुल में नंदबाबा के घर आए। उन्हें देखकर नंदबाबा को बड़ी प्रसन्नता हुयी। उन्होंने भक्तिपूर्वक गर्गाचार्यजी की अर्चना की।
अर्चना का अर्थ है षोडशोचार पूजन–अर्थात् पाद्य, अर्घ्य, आचमन, समर्पण करके चंदन, पुष्प, धूप, दीप, नेवैद्य आदि से पूजन करना।

जब गर्गाचार्यजी का अच्छी तरह से आतिथ्य-सत्कार हो गया तब नंदबाबा ने कहा–‘महाराज आप आए हैं तो बहुत अच्छा हुआ। वृद्धावस्था में बालक हुआ है, इससे इसका नाम नहीं रखा है। इसे लाला कहते हैं। आप जैसे महात्माओं का गृहस्थों के द्वार पर आना ही परम कल्याण का कारण है, आप ज्योतिषशास्त्र के बड़े भारी ज्ञाता हैं, अत: हमारे ये दो बालक हैं, इनका आप नामकरण संस्कार कीजिए।’

गर्गाचार्यजी ने कहा–‘मैं यदुवंशियों के गुरू के रुप में प्रसिद्ध हूँ और आप जानते ही हो कि कंस की बुद्धि में कितना पाप है। जब से उसे पता चला है कि उसको मारने वाला पैदा हो चुका है तब से वह आशंकित है। जब उसको पता चलेगा कि मैंने तुम्हारे पुत्र का नामकरण किया है तब वह समझ लेगा कि यही देवकी का पुत्र है।’

नंदबाबा ने कहा मैं आपकी आशंका को समझता हूँ। आप चाहते हैं कि नामकरण का किसी को पता न चले तो ऐसा ही होगा। नंदबाबा ने कहा–‘हमारो गोष्ठ (गौशाला) में सर्वथा एकान्त है, वहां आप केवल स्वस्तिवाचनपूर्वक नामकरण कर दीजिए। दोनों बालक, उनकी माताएं, मैं और आप ही गोष्ठ में रहेंगे।’ गर्गाचार्यजी तो वसुदेवजी के कहने पर नामकरण करने ही आए थे, वह तुरन्त गोष्ठ में पहुंच गये। यशोदाजी की गोद में कृष्ण और रोहिणीजी की गोद में दाऊजी बैठे हैं।

गर्गाचार्यजी ने कहा–‘यह रोहिणी का पुत्र है इसलिए इसका नाम होगा ‘रौहिणेय’। यह अपने सगे-सम्बन्धियों और मित्रों को अपने गुणों से अत्यन्त आनन्दित करेगा। इसका दूसरा नाम होगा ‘राम’। इसके बल की कोई सीमा नहीं है अत: इसे ‘बलराम’ भी कहेंगे। यदुवंशियों में मेलमिलाप कराने के कारण इसका नाम ‘संकर्षण’ भी है। बलरामजी का संकर्षण नाम इसलिए भी है क्योंकि वह एक गर्भ से खींचकर दूसरे गर्भ में लाए गए थे परन्तु गर्गाचार्यजी ने इस प्रसंग को छुपा लिया।

अब गर्गाचार्यजी की दृष्टि पड़ी श्रीकृष्ण पर। उन्होंने कहा–‘नंदजी, यह जो तुम्हारा साँवला सलौना बालक है, यह युग-युग में रंग परिवर्तित करता है। सत्ययुग में श्वेत वर्ण का, त्रेतायुग में रक्त वर्ण था। परन्तु इस समय द्वापरयुग में यह मेघश्याम रूप धारण करके आया है अत: इसका नाम ‘कृष्ण’ होगा। दूसरा नाम बताते समय गर्गाचार्यजी सच भी बोलते हैं और सच छुपाते भी हैं ताकि नंदबाबा और यशोदामाता को पता न चल जाए कि यह देवकी और वसुदेव का पुत्र है। गर्गाचार्यजी कहते हैं कि किसी देश काल में यह वसुदेव का पुत्र हो चुका है अत: इसका नाम ‘वासुदेव’ है। इस बालक के नाम और गुण अनंत हैं। यह बालक सभी का आकर्षण करेगा इसलिए इसका नाम रखता हूँ ‘श्रीकृष्ण’।

यशोदाजी ने पूछा–लाला के जन्माक्षर में कैसे ग्रह हैं? गर्गाचार्यजी ने कहा–‘लाला के जन्माक्षर में आठ ग्रह उच्च के हैं। यह बड़ा राजा होगा। लक्ष्मी इसके चरणों में रहेगी। यह सब का रक्षण करेगा। लोगों का उद्धार करेगा।’ यशोदाजी ने पूछा-‘महाराज, कोई ग्रह खराब तो नहीं हैं, पहले ही बता दीजिए।’

गर्गाचार्यजी ने कहा–‘लाला का राहु नीच का है। जिस पुरुष के जन्माक्षर में सप्तम स्थान में नीच का राहु हो वह पुरुष अनेक स्त्रियों का पति होता है। यशोदामाता यह सुनकर खुश हुयीं। अनेक स्त्रियों का पति होना बुरा नहीं है। ऐसा लगता है कि लाला का विवाह तुरन्त हो जाएगा। अंत में गर्गाचार्यजी ने कहा कि तुम्हारा पुत्र तुम लोगों का कल्याण करेगा। नंदजी तुम्हारा यह पुत्र श्री में, कीर्ति में, अनुभाव में, सौशील्यादि में व भक्तवत्सलता में नारायण के समान है।

वृन्दावन की गोपियां व साधु श्रीकृष्ण को नारायण से बढ़कर मानते हैं। वे मानते हैं कि नारायण में तो साठ गुण हैं पर कन्हैया में चौंसठ गुण हैं। श्रीकृष्ण में चार गुण ज्यादा हैं। श्रीकृष्ण की वेणु माधुरी, लीला माधुरी व रूप माधुरी नारायण से अधिक है। नारायण तो शंख बजाते हैं पर श्रीकृष्ण तो अपनी बांसुरी से ही सबको घायल कर देते हैं। सभी देवताओं के हाथ में कोई-न-कोई शस्त्र रहता है पर श्रीकृष्ण तो अपनी बांसुरी से ही घायल कर देते हैं। जैसी लीला श्रीकृष्ण करते हैं वैसी लीला कोई नहीं कर सकता। हम नारायण का वंदन करती हैं पर हमारा कन्हैया सर्व से श्रेष्ठ है। यही कारण है कि ब्रजवासियों ने उनके कन्हैया, कनुआ, कान्हा आदि उलटे-पुलटे नाम भी रखे, वे भी भगवान ने प्रेमवश स्वीकार किए।

अंत में सूरदासजी के शब्दों मे–

गर्ग निरुपि कह्यौ सब लच्छन, अविगत हैं अविनासी।
सूरदास प्रभु के गुन सुनि-सुनि, आनंदे ब्रजबासी।।

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