Surdas Hare Krishna

सूरदासजी उच्चकोटि के संत होने के साथ-साथ उच्चकोटि के कवि थे। इन्हें वात्सल्य और श्रृंगार रस का सम्राट कहा जाता है। सूरदासजी अँधे थे परन्तु इन्हें दिव्य दृष्टि प्राप्त थी। जैसा भगवान का स्वरूप होता था, वे उसे अपनी बंद आँखों से वैसा ही वर्णन कर देते थे।
एक बार श्रीविट्ठलनाथजी के पुत्रों ने उनकी परीक्षा लेनी चाही। उन्होंने बालकृष्ण की मूर्ति का कोई श्रृंगार नहीं किया। नग्न मूर्ति पर मोतियों की माला लटका दी और सूरदासजी से कीर्तन करने के लिए प्रार्थना की। दिव्य दृष्टि प्राप्त सूरदासजी ने पद गाया–

देखे री हरि नंगम नंगा।
जलसुत भूषन अंग बिराजत, बसनहीन छवि उठत तरंगा।।

ऐसी ही अन्य लीलाओं का सजीव चित्रण प्रस्तुत है–

बालकृष्ण का कर्णछेदन संस्कार

बालकृष्ण के कान छेदन संस्कार का सूर ने बड़ा ही मनोवैज्ञानिक ढंग से वर्णन किया है। कर्णछेदन के समय यशोदा को पहले तो बड़ा आनन्द होता है, परन्तु उनको जब यह ध्यान आता है कि कर्णछेदन से कृष्ण को कष्ट होगा तो उनका हृदय धड़कने लगता है और वह अपना मुख मोड़ लेती हैं। श्रीकृष्ण रोने लगते हैं तो वह नाई को धमकाने लगतीं हैं ताकि रोते हुए बालक को ढाढ़स बँध सके। बाल स्वभाव और माता के हृदय की अनुभूति का यथार्थ चित्रण सूरदासजी के शब्दों में–

कान्ह कुँवर कौ कनछेदन है, हाथ सोहारी भेली गुर की।
विधि बिहँसत, हरि हँसत हेरि हरि, जसुमति की धुकधुकी सु उर की।।

लोचन भरि-भरि दोऊ माता, कनछेदन देखत जिय मुरकी।
रोवत देखि जननि अकुलानी, दियौ तुरत नौआ कौ घुरकी।।

बालकृष्ण की माँ यशोदा से शिकायत लीला

मैया कबहिं बढ़ेगी चोटी।
किती बार मोहिं दूध पिबत भई, यह अजहूँ है छोटी।|

तू जो कहति बल की बेनी ज्यौं, ह्वै ह्वै लाँबी-मोटी।
काढत-गुहत न्हवावत जैहैं, नागिन सी भई लोटी।|

काँचो दूध पिवाबत पचि-पचि, देत न माखन-रोटी।
सूरज चिरजीवौं दोउ भैया, हरि-हलधर की जोरी।।

इस लीला में सूरदासजी ने बालहृदय का कोना-कोना झाँक लिया है। बच्चों में स्पर्धा का भाव बड़ा प्रबल होता है। यशोदा श्रीकृष्ण को दूध पिलाना चाहती हैं, और कहती हैं कि इससे तुम्हारी चोटी बढ़ जायेगी और बलराम जैसी हो जायेगी। स्पर्धावश वह दूध पीने लगते हैं, पर वे चाहते हैं कि दूध पीते ही उनकी चोटी बढ़ जाये। और दूध पीकर भी चोटी न बढ़ने पर वह माँ यशोदा को उलाहना भी बड़े सशक्त ढंग से देते हैं–‘तू कच्चा दूध तो भरपेट देती है, पर माखन-रोटी के बिना चोटी नहीं बढ़ेगी।

एक अन्य कृष्णलीला

सूरदास प्रतिदिन श्रीकृष्ण को पद सुनाया करते थे। प्रतिदिन की तरह आज भी कृष्ण ने सूर के हाथों में इकतारा देकर कहा, ‘सुनाओ कोई नया पद! आज तुम बजाओ मैं नाचूँगा।’ अभी सूरदास इकतारे का स्वर मिला ही रहे थे कि ना जाने कृष्ण को क्या सूझा। उन्होंने सूरदास के हाथ से इकतारा ले लिया और बोले–‘तुम रोज गाते बजाते हो और मैं सुन-सुनकर नाचता हूँ, पर आज मैं गाऊँगा-बजाऊँगा और तुम नाचोगे।’
‘मैं नाचूँ! यह क्या कौतुक है कान्हा। मुझ बूढ़े को नचाओगे। पर मुझे नाचना आता ही कहाँ है?’
कृष्ण बोले, ‘नहीं आज तो नाचना ही पड़ेगा।’
‘अच्छा कान्हा! मैं नाच लूंगा, पर कितनी बार नचाओगे। चौरासी लाख (योनि) बार मुझे नचाकर भी तुम्हारा मन नहीं भरा। अब और न नचाओ कान्हा।’

अब मैं नाच्यौ बहुत गुपाल।
काम-क्रोध कौ पहिरि चोलना, कंठ विषय की माल।।

महामोह के नुपूर बाजत, निंदा-सब्द-रसाल।
भ्रम भोयौ मन भयौ पखावज, चलत असंगत चाल।।

तृष्ना नाद करति घट भीतर, नाना विधि दै ताल।
माया को कटि फेंटा बाँध्यौ, लोभ-तिलक दियौ भाल।।

कोटिक कला काछि दिखराई, जल-थल सुधि नहिं काल।
सूरदास की सबै अविद्या, दूरि करौ नँदलाल।।

इस प्रकार बालकृष्ण की अनेकों लीलाएं हैं जिन्हें पढ़ने और मनन करने से मन आनन्द विभोर हो जाता है।

रे मन, गोविन्द के ह्वै रहियै।
इहिं संसार अपार बिरत ह्वै, जम की त्रास न सहियै।।

दुख, सुख, कीरति, भाग आपनैं आइ परै सो गहियै।
सूरदास भगवंत-भजन करि अंत बार कछु लहियै।।

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